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सुधर्मा Sudharma

टेलीग्राम चैनल का लोगो sudharma_108 — सुधर्मा Sudharma
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2021-10-05 08:34:09 पुरुष सूक्त--- पुरुषसूक्त ऋग्वेद संहिता के दसवें मण्डल का एक प्रमुख सूक्त यानि मंत्र संग्रह (10.90) है, जिसमें एक विराट पुरुष की चर्चा हुई है और उसके अंगों का वर्णन है। इसको वैदिक ईश्वर का स्वरूप मानते हैं। विभिन्न अंगों में चारो वर्णों, मन, प्राण, नेत्र इत्यादि की बातें कहीं गई हैं। यही श्लोक यजुर्वेद (31वें अध्याय) और अथर्ववेद में भी आया है। क्योकि इस सूक्त में अनेक बार यज्ञ आया है और यज्ञ की ही चर्चा यजुर्वेद में हुई है।
पुरुष सूक्त के आरंभिक दो मंत्र और सायण कृत भाष्य, वेदों (और सांख्य शास्त्र में) में पुरुष शब्द का अर्थ जीवात्मा तथा परमात्मा आया है, पुरुष लिंग के लिए पुमान और पुंस जैसे मूलों का इस्तेमाल होता है। पुम् मूल से ही नपुंसकता जैसे शब्द बने हैं।
ऋग्वेद के दशम मंडल का 90 वां सूक्त पुरुष सूक्त कहलाता है। इस सूक्त का
ऋषि नारायण है और देवता पुरुष है। सूक्तं 10.89ऋग्वेदः - मण्डल 10 सूक्तं
10.90 नारायणः । सूक्तं 10 .91 →देवता पुरुषः 1 अनुष्टुप्, 16 त्रिष्टुप् I
पुरुष वह है जो प्रकृति को प्रभावित कर सके । पुरुष सूक्त को समझने की कुंजी हमें स्कन्द पुराण 6.231 से प्राप्त होती है जहां पुरुष सूक्त का विनियोग विष्णु की मूर्ति की अर्चना के विभिन्न स्तरों पर किया गया है। सूर्य के समतुल्य तेजसम्पन्न, अहंकारहित वह विराट पुरुष है, जिसको जानने के बाद साधक या उपासक को मोक्ष की प्राप्ति होती है । मोक्षप्राप्ति का यही मार्ग है, इससे भिन्न और कोई मार्ग नहीं है I पुरुष सूक्तं, वैष्णव सम्प्रदाय के 5 सूक्तों में से एक है शेष चार सूक्त हैं नारायण सूक्तं, श्री सूक्तं , भू सूक्तं और नील सूक्तं I
पुरुष सूक्तं को हम सबसे पहले ऋग्वेद में देखते हैं , ऋग्वेद के दसवें मंडल का 90 वां सूक्त पुरुष सूक्त है , इसके बाद हम इसे सामवेद और अथर्ववेद में भी कुछ परिवर्तन के साथ देख सकते हैं पुरुष सूक्त के शीर्षक पुरुष पुरुषोत्तम , नारायण हैं, जो की विराट पुरुष के रूप में हैं उनसे ही सारी सृष्टि का निर्माण हुआ , इस सूक्त में बताया गया है कि उनके हज़ार सर, कई आंखें , कई टांगें हैं , वे हर जगह व्याप्त हैं, वे समझ से परे हैं, सारी सृष्टि उनका चौथा हिस्सा है केवल, और उनका बाकी का हिस्सा अव्यक्त है I वह पुरुष ब्रह्मा के रूप में मंद रहा, और अनिरुध नारायण जो कि नारायण के चार रूपों में से एक है , ने कहा कि ''तुम कुछ करते क्यों नहीं ?''ब्रह्मा ने उत्तर दिया , '' क्यूंकि मैं कुछ जानता नहीं '' , तब अनिरुध नारायण ने कहा , '' तुम यज्ञ करो , तुम्हारी इन्द्रियां जो कि देवता हैं ,ऋत्विक बनेंगी , तुम्हारा शरीर हविष्य बनेगा , तुम्हारा ह्रदय यज्ञ कि वेदी बनेगा , मैं उस हविष्य को ग्रहण करूँगा , तुम अपने शरीर का बलिदान दो उससे सभी शरीर बनेंगे , ऐसा ही करो जैसा कि तुम अन्य कल्पो में करते आये हो ''
इस तरह से वह यज्ञ ''सर्वहूत '' यज्ञ हुआ { जिसमे सब कुछ की आहुति दी गयी हो } उत्पत्ति की संरचना इसप्रकार यज्ञ से हुयी इस यज्ञ में पुरुष को आहुति दी गयी , ब्रह्मा द्वारा , ऋत्विक ब्रह्मिन , देवता बने जो की ब्रह्मा की इन्द्रियां थे , यज्ञ प्रकृति रुपी वेदी पर किया गया , यज्ञ की अग्नि पुरुष का ह्रदय थी,, यज्ञ में आहुति किसकी दी गयी ? पुरुष की , जिसमे सारी सृष्टि समाहित थी I इस प्रकार पुरुष सूक्त , प्रेम का सन्देश देता है की पुरुष स्वयं को ही सृष्टि की अग्नि में ग्रहण करेगा , ताकि सृष्टि का सृजन हो सके , इस प्रकार आहुति , बलिदान से ही सारी सृष्टि का प्रारंभ हुया , यही पुरुष सूक्तं का सन्देश है

- सुद्युम्न आचार्य
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2021-10-05 08:33:44
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2021-09-13 10:50:17 तोड़ दें तो करिए विसर्जन । लेकिन गोबर के गणेश को बनाकर विसर्जन करिए और उनकी प्रतिमा 1 अंगुष्ठ से बड़ी नहीं होनी चाहिए ।

मुझे पता है मेरे इस पोस्ट से कुछ नासमझ लोगों को ठेस लगेगी और वह मुझे हिन्दू विरोधी घोषित कर देंगे।

पर हम अपना कर्तव्य निभायेंगे और सही बातों को आपके सामने रखते रहेंगे ।
बाकी का - सोई करहुँ जो तोहीं सुहाई ।


स्पष्टीकरण- यह पोस्ट जागरूकता फैलाने के उद्देश्य से साझा की गयी है। सहमत होना या ना होना आपका फ़ैसला है। बात सिर्फ़ इतनी है हमें उन मान्यताओं को अपनाना होगा जिससे सनातन संस्कृति की सही छवि दुनिया भर में फैले।

साभार

(शास्त्री अश्विनिकुमार पाण्डेय)

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2021-09-13 10:50:17 गणेश विसर्जन :- ( गोबर के गणेश )

यह यथार्थ है कि जितने लोग भी गणेश विसर्जन करते हैं उन्हें यह बिल्कुल पता नहीं होगा कि यह गणेश विसर्जन क्यों किया जाता है और इसका क्या लाभ है ??

हमारे देश में हिंदुओं की सबसे बड़ी विडंबना यही है कि देखा देखी में एक परंपरा चल पड़ती है जिसके पीछे का मर्म कोई नहीं जानता लेकिन भयवश वह चलती रहती है

आज जिस तरह गणेश जी की प्रतिमा के साथ दुराचार होता है , उसको देख कर अपने हिन्दू मतावलंबियों पर बहुत ही ज्यादा तरस आता है और दुःख भी होता है ।

शास्त्रों में एकमात्र गौ के गोबर से बने हुए गणेश जी या मिट्टी से बने हुए गणेश जी की मूर्ति के विसर्जन का ही विधान है ।

गोबर से गणेश एकमात्र प्रतीकात्मक है माता पार्वती द्वारा अपने शरीर के उबटन से गणेश जी को उत्पन्न करने का ।

चूंकि गाय का गोबर हमारे शास्त्रों में पवित्र माना गया है इसीलिए गणेश जी का आह्वान गोबर की प्रतिमा बनाकर ही किया जाता है ।

इसीलिए एक शब्द प्रचलन में चल पड़ा :- "गोबर गणेश"
इसिलिए पूजा , यज्ञ , हवन इत्यादि करते समय गोबर के गणेश का ही विधान है । जिसको बाद में नदी या पवित्र सरोवर या जलाशय में प्रवाहित करने का विधान बनाया गया ।

अब आईये समझते हैं कि गणेश जी के विसर्जन का क्या कारण है ????

भगवान वेदव्यास ने जब शास्त्रों की रचना प्रारम्भ की तो भगवान ने प्रेरणा कर प्रथम पूज्य बुद्धि निधान श्री गणेश जी को वेदव्यास जी की सहायता के लिए गणेश चतुर्थी के दिन भेजा।

वेदव्यास जी ने गणेश जी का आदर सत्कार किया और उन्हें एक आसन पर स्थापित एवं विराजमान किया ।
( जैसा कि आज लोग गणेश चतुर्थी के दिन गणपति की प्रतिमा को अपने घर लाते हैं )

वेदव्यास जी ने इसी दिन महाभारत की रचना प्रारम्भ की या "श्री गणेश" किया ।
वेदव्यास जी बोलते जाते थे और गणेश जी उसको लिपिबद्ध करते जाते थे । लगातार दस दिन तक लिखने के बाद अनंत चतुर्दशी के दिन इसका उपसंहार हुआ ।

भगवान की लीलाओं और गीता के रस पान करते करते गणेश जी को अष्टसात्विक भाव का आवेग हो चला था जिससे उनका पूरा शरीर गर्म हो गया था और गणेश जी अपनी स्थिति में नहीं थे ।

गणेश जी के शरीर की ऊष्मा का निष्कीलन या उनके शरीर की गर्मी को शांत करने के लिए वेदव्यास जी ने उनके शरीर पर गीली मिट्टी का लेप किया । इसके बाद उन्होंने गणेश जी को जलाशय में स्नान करवाया , जिसे विसर्जन का नाम दिया गया ।

बाल गंगाधर तिलक जी ने अच्छे उद्देश्य से यह शुरू करवाया पर उन्हें यह नहीं पता था कि इसका भविष्य बिगड़ जाएगा।

गणेश जी को घर में लाने तक तो बहुत अच्छा है , परंतु विसर्जन के दिन उनकी प्रतिमा के साथ जो दुर्गति होती है वह असहनीय बन जाती है ।

आजकल गणेश जी की प्रतिमा गोबर की न बना कर लोग अपने रुतबे , पैसे , दिखावे और अखबार में नाम छापने से बनाते हैं।

जिसके जितने बड़े गणेश जी , उसकी उतनी बड़ी ख्याति , उसके पंडाल में उतने ही बड़े लोग , और चढ़ावे का तांता।

इसके बाद यश और नाम अखबारों में अलग ।

सबसे ज्यादा दुःख तब होता है जब customer attract करने के लिए लोग DJ पर फिल्मी अश्लील गाने और नचनियाँ को नचवाते हैं ।

आप विचार करके हृदय पर हाथ रखकर बतायें कि क्या यही उद्देश्य है गणेश चतुर्थी या अनंत चतुर्दशी का ?? क्या गणेश जी का यह सम्मान है ??
इसके बाद विसर्जन के दिन बड़े ही अभद्र तरीके से प्रतिमा की दुर्गति की जाती है।

वेदव्यास जी का तो एक कारण था विसर्जन करने का लेकिन हम लोग क्यों करते हैं यह बुद्धि से परे है ।
क्या हम भी वेदव्यास जी के समकक्ष हो गए ??? क्या हमने भी गणेश जी से कुछ लिखवाया ?
क्या हम गणेश जी के अष्टसात्विक भाव को शांत करने की हैसियत रखते हैं ??????????

गोबर गणेश मात्र अंगुष्ठ के बराबर बनाया जाता है और होना चाहिए , इससे बड़ी प्रतिमा या अन्य पदार्थ से बनी प्रतिमा के विसर्जन का शास्त्रों में निषेध है ।

और एक बात और गणेश जी का विसर्जन बिल्कुल शास्त्रीय नहीं है।

यह मात्र अपने स्वांत सुखाय के लिए बिना इसके पीछे का मर्म , अर्थ और अभिप्राय समझे लोगों ने बना दिया ।

एकमात्र हवन , यज्ञ , अग्निहोत्र के समय बनने वाले गोबर गणेश का ही विसर्जन शास्त्रीय विधान के अंतर्गत आता है ।

प्लास्टर ऑफ paris से बने , चॉकलेट से बने , chemical paint से बने गणेश प्रतिमा का विसर्जन एकमात्र अपने भविष्य और उन्नति के विसर्जन का मार्ग है।

इससे केवल प्रकृति के वातावरण , जलाशय , जलीय पारिस्थितिकीय तंत्र , भूमि , हवा , मृदा इत्यादि को नुकसान पहुँचता है ।

इस गणेश विसर्जन से किसी को एक अंश भी लाभ नहीं होने वाला ।
हाँ बाजारीकरण , सेल्फी पुरुष , सेल्फी स्त्रियों को अवश्य लाभ मिलता है लेकिन इससे आत्मिक उन्नति कभी नहीं मिलेगी ।

इसीलिए गणेश विसर्जन को रोकना ही एकमात्र शास्त्र अनुरूप है ।

चलिए माना कि आप अज्ञानतावश डर रहे हैं कि इतनी प्रख्यात परंपरा हम
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2021-09-13 10:49:41
गणेशजी की पूजा या अपमान?
274 views07:49
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2021-08-27 20:10:13 अवश्य सुनें

भक्तमाल कथा

https://youtube.com/playlist?list=PLXOx1nQKcemuSDBU93womNzPb0ZBW4KPA

Start at 25th minutes if want to skip the intro.
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2021-08-25 12:00:12 Gita Saroddhara is a Gem of a Book written by Swami Vishveshatirthiji of Pejavar Matth.
Anyone wants to know crux of Gita should read this.
602 views09:00
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2021-08-15 18:47:45 तुलसी के मत भेद प्रधान अभेद का है। श्रीराम ब्रह्म हैं उनके समान जीव कभी नहीं हो सकता। अतः भेद सत्य है। किन्तु यह भेद अभेद अर्थात् निमित्त और उपादान कारण की एकता का विघात न करके और शरीर-शरीरि-भाव में एकता को भी बनाए रखता है।

"माया बस परिच्छिन्न जड़ कि ईस समान?"
यह जड़ और जीव तो माया के वश होने से परिच्छिन्न हैं, वह कैसे ईश्वर के समान हैं?

श्रीराम का स्वरूप नारायण हैं जिनका पूरा चिदचिद् शरीर है। और राम उसके अन्तर्यामी। जीव भगवान् का अंश है। और माया से कल्पित नहीं, वास्तविक अंश है।

"ईश्वर अंश जीव अबिनासी चेतन अमल सहज सुखरासी।"

सामान्य धारणा में जीव अविद्या से कल्पित है। किन्तु यह तुलसी को न स्वीकार। अविद्या से कल्पित होने पर तो वह सहज सुखरासी न रहेगा। अतः जीव स्वतः सच्चिदानन्द है। और अमल यानि मल/अविद्या से रहित है।

भगवान् राम की दो नित्य शक्तियाँ हैं। विद्या और अविद्या। अधिक विस्तार के भय से वर्णन नहीं कर रहा। विद्या से जीव को मोक्ष और भक्ति मिलती है और अविद्या से वह संसार में रमण करता रहता है। विद्या और अविद्या दोनों ही सत्य हैं और भगवान् की शक्तियाँ हैं, अतः जगत् जैसे जो माया के कार्य हैं वे भी सत्य हैं।

मङ्गल श्लोक में तुलसी कहते हैं "यत्सत्त्वादमृषैव भाति सकलं रज्जौ यथाहेर्भ्रमः" जिस माया के होने से यह सकल सत्य जगत् भी उस तरह मिथ्या प्रतीत होता है जैसे किसी को रस्सी में सर्प दीखता है।" भगवान् माया से सत्य जगत् भी मिथ्या लगने लगता है।

सङ्क्षेप में कहें तो तुलसीदासजी भक्तिमार्गी आचार्य थे। उन्होंने ज्ञान और कर्म को भक्ति का अङ्ग माना, श्रीराम को पूर्ण शुद्ध साकार ब्रह्म और सकल जड़ जीव को राम के माया के अधीन माना।

जय श्रीराम ।


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2021-08-15 18:46:42 .
तुलसीदासजी नाना पुराण निगम और आगम से सम्मत बात कहने की प्रतिज्ञा करते हैं। तुलसीदासजी शुद्ध साकार ब्रह्म में मानने वाले हैं। वे परम वैष्णव हैं और श्रीरामानन्दाचार्य के शिष्य श्रीनरहरिदासजी से दीक्षित हैं।

सभी वैष्णवों की तरह तुलसीदासजी भी साकार-ब्रह्मवादी हैं और उनके परम्ब्रह्म धनुर्धारी जानकी पति सच्चिदानन्द आकार वाले श्रीराम हैं।

तुलसी देवताओं के मुखसे कहलवाते हैं

अज ब्यापकमेकमनादि सदा। करुनाकर राम नमामि मुदा।।

राम (सगुन साकार) अजन्मा व्यापक और अनादि और सदा रहने वाले करुणा से आकर को मैं नमन करता हूँ।

सामान्य और प्रचलित मान्यता में श्रीराम विष्णु के अवतार हैं किन्तु तुलसी के राम अवतार नहीं साक्षात् ब्रह्म हैं, अवतारी हैं। तुलसी ब्रह्म को निर्गुण निराकार नहीं मानते। वे समझाते हैं कि सगुण साकार ही व्याप्त रूप से निर्गुण निराकार है।

जो गुन रहित सगुन सोई कैसे
जलु हिम उपल बिलग नही जैसे।

जो निर्गुण है वो सगुण कैसे?
जैसे जल और ओले में या बर्फ में भेद नहीं। दोनों जल ही है ऐसे ही सगुण और निर्गुण एक ही हैं।

जैसे सूर्य तेजःपुञ्ज का घन है वही तेज तो रश्मि रूपसे व्याप्त हो रहा वैसे ब्रह्म सच्चिदानन्द धनुर्धारी नीलवर्ण श्रीराम हैं, किन्तु अपने तेज और गुणों से वही राम सर्वव्यापी हैं।

तुलसी के राम सर्वश्रेष्ठ

सुनु सेवक सुरतरु सुरधेनू । बिधि हरि हर बंदित पद रेनू॥

हे प्रभो! सुनिए, आप सेवकों के लिए कल्पवृक्ष और कामधेनु हैं। आपके चरण की धूल का ब्रह्मा, विष्णु और शिव भी वन्दन करते हैं।

मा सीता ही जगदम्बा
उमा रमा ब्रह्माणि बन्दिता। जगदम्बा संततमनिन्दिता॥5॥

(शिव जी कहते हैं-) जगज्जननी सीता जी, उमा रमा और ब्रह्माणी (सरस्वती) आदि देवियों से सदा वन्दित और सदा अनिन्दित (सर्वगुण सम्पन्न हैं) ॥5॥

श्रीराम के अंश ही त्रिमूर्ति हैं।

सम्भु बिरञ्चि बिष्णु भगवाना । उपजहिं जासु अंस तें नाना ।।

जिनके (श्रीरामके) एक अंश से नाना अनेक ब्रह्मा विष्णु और महेश उत्पन्न होते हैं।

जासु अंस उपजहिं गुनखानी । अगनित रमा उमा ब्रह्माणी ।।
भृकुटि बिलास जासु जग होई।
राम बाम दिसि सीता सोई ।।

जिनके अंश से गुणों की खान अगणित लक्ष्मी, पार्वती और ब्रह्माणी (त्रिदेवों की शक्तियाँ) उत्पन्न होती हैं तथा जिनकी भौंह के इशारे से ही जगत् की रचना हो जाती है, वही (भगवान् की स्वरूपा-शक्ति) सीता राम की बाईं ओर स्थित हैं।

इस प्रकार साकेतलोक निवासी जगदम्बा सीताजी सहित राम ही पूर्ण ब्रह्म, साकार और अनन्तगुणभूषित हैं। निराकार ब्रह्म और त्रिदेव भी इन्हीं सीता-राम के अंश हैं। निराकार ब्रह्म श्रीराम की अव्यक्त रूपसे सर्वव्यापिता का दूसरा नाम है।
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