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शंकरं प्रेमपिण्डम् (२) ------------------- महागण | सनातन धर्म • Sanatan Dharma

शंकरं प्रेमपिण्डम् (२)
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महागणपति का पूजन भगवती त्रिपुरसुन्दरी के साथ सम्पन्न किया जाता है, भंडासुर युद्ध के समय शायद भगवती त्रिपुरसुन्दरी ने भी गलती कर दी थी वे गणपति को केवल पुत्र समझ बैठी थीं जबकि वे अलख निरंजन हैं,पूर्ण हैं । त्रिपुर वध के समय शिव से भी भूल हो गई वे भी गणपति का पूजन करना भूल गये थे इसलिए उनका पाशुपतास्त्र लक्ष्य को निर्मूल नहीं कर पा रहा था एवं उनकी सेना पराजित हो रही थी,उनका दिव्य रथ भी कि समस्त देवता के अंशों से बना था,जिसमें कि समस्त देवता पशु रूप में विद्यमान थे चल ही नहीं पा रहा था। शिव का एक नाम पशुपति भी है अर्थात सभी पशुओं के पति,पशु बने देवगणों से सुसज्जित रथ की कभी कील निकल जाती थी, पहिया अलग हो जाते थे,कभी वह उनके भार को सहन नहीं कर पाता था आखिरकार शिव को अपनी गलती का एहसास हुआ उन्होंने अलख निरंजन से उत्पन्न परम पशु स्वरूप धारण किए हुए गणपति के सामने दोर्भिकर्ण उपासना सम्पन्न की तब जाकर वे महापाशुपत अनुसंधान में सफल हुए और पशुपति के रूप में सुपूजित हुए।

कितनी रहस्यमय स्थिति है पशुओं का पति बनने के लिए पशु मुख धारण किए हुए अलख निरंजन की उपासना । पशुत्व भी सिद्ध नहीं होता गणेशोपासना के अभाव में समुद्र मंथन चल रहा था पर देवता गणपति उपासना भूल गये अतः विघ्न आ गया। मंदराचल पर्वत को उखाड़ने में ही अनेकों देवता लहूलुहान हो गये जैसे ही उसे समुद्र में रखा वह डूबने लगा एवं अनेकों देवता दब गये। वासुकी सर्प भी विष उगल रहा था, विष्णु ने पुनः कच्छप रूपी पशु बन मंदराचल पर्वत को सहारा दिया। विष्णु के कच्छप रूपी पशु स्वरूप में ही दोर्भिकर्ण उपासना सम्पन्न हो गई। देवताओं को अपनी गलती का एहसास हुआ तब जाकर उन्होंने गणपति उपासना की तब समुद्र मंथन सम्पन्न हुआ। सबने गणपति के श्रीविग्रह के सामने उठक-बैठक लगाई। वामन स्वरूप में श्री विष्णु बलि से पराजित हो रहे थे पुनः एक बार उन्हें दोर्भिकर्ण उपासना करनी पड़ी।

गणेश आदि हैं, अनंत हैं,वे प्रम नाथ हैं, प्रथम के भी प्रथम अलख निरंजन हैं उन्हीं से प्रारम्भ और उन्हीं में अंत यही सृष्टि का सिद्धांत है। अतः प्रत्येक काल प्रारम्भ होने से पूर्व, एक नई सृष्टि होने से पूर्व, एक नया युग प्रारम्भ होने से पूर्व, एक नई कर्म श्रृंखला प्रारम्भ होने से पूर्व मूल का ध्यान आवश्यक है,मूलोपासना आवश्यक है। श्रीहरि ने मात्र सुदर्शन चक्र प्राप्ति हेतु अनेक वर्षों तक शिव की घोर उपासना की, अनेक विधियों से शिवोपासना की पर हर बार कुछ न कुछ विघ्न आ जाता था। एक बार उन्होंने शिव जी को प्रसन्न करने हेतु एक हजार कमल पुष्पों से पूजा करने का संकल्प लिया परन्तु उसमें भी विघ्न आ गया। विघ्नेश्वर ने एक कमल पुष्प गायब कर दिया,श्रीहरि ने अपने कमल नयन निकाल कर ही शिव को अर्पित कर दिए। दोनों कान पकड़कर श्रीगणेश के सामने दोर्भिकर्ण उपासना की अपनी गलती के लिए क्षमा मांगी तब जाकर उन्हें सुदर्शन चक्र प्राप्त हुआ। मधु-कैटभ वध में असफल होने के बाद श्रीहरि को दोर्भिकर्ण उपासना सम्पन्न करनी पड़ी तब जाकर महामाया उनके साथ क्रियाशील हुईं। चण्ड-मुण्ड वध के समय, शुम्भ-निशुम्भ वध के समय शक्तियों को भी श्रीगणेश उपासना सम्पन्न करनी पड़ी तभी उन्हें सफलता मिली।

ब्रह्मा जी अचानक स्वप्न अवस्था में आ गये स्वप्न में उन्होंने महाप्रलय होते देखा । उनकी बनाई हुई सृष्टि प्रलय को प्राप्त हो रही थी, चारों तरफ अथाह जल ही जल था परन्तु तभी उन्हें वटवृक्ष के पत्ते के ऊपर बाल्य गणेश दिखाई दिए एवं उन्होंने अपने शुण्डाग्र में समुद्र का जल भरकर ब्रह्मा जी के ऊपर उछाल दिया और ब्रह्मा जी अचानक चैतन्यवान हो उठे और मुस्कुरा दिए। वे समझ गये कि श्रीगणेश प्रलय से भी परे हैं। प्रलय के समय गणपति सूक्ष्म हो जाते हैं और प्रलय उपरांत पुनः क्रियाशील हो उठते हैं। विघ्न, गणेश के साथ चलते हैं। दिव्य कैलाश पर शिव ध्यानस्थ थे अलख निरंजन की दिव्य ज्योति में तभी सभी देवताओं ने दिव्य कैलाश पर आकर गुहार लगानी शुरु की कि हे शिव कुछ उत्पन्न कीजिए,ऐसा कुछ जो कि असुरों की गति को रोक सके,उनके बल को क्षीण कर सके,हम उनसे पीड़ित हैं, प्रताड़ित हैं।अचानक शिव के हृदय में स्फूरणा हुई और देखते ही देखते एक सुन्दर बालक उनकी गोद में आ बैठा सीधे अलख निरंजन से निकलकर तभी आद्या आ गईं।

बाला ने बालक नहीं देखा था, ये कौन तीसरा आ गया हम दोनों के बीच ? बस विघ्न उत्पन्न हो गया शिव और शिवा के बीच। शिव की गोद में तो मैं ही बैठती हूँ शिवांगी बनकर, शिव की अर्धांगिनी तो मैं ही हूँ, ये कौन उनके अंग में विराजित हो गया ? जब मैं त्रिपुर सुन्दरी होती हूँ तो उनकी नाभि से निकले कमल पर स्थापित हो जाती जब मैं महाकाली होती हूँ तो इनकी छाती पर सवार होती हूँ,जब मैं त्रिपुरा होती हूँ तो इनके

(क्रमशः)

@Sanatan