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सनातन धर्म • Sanatan Dharma

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The latest Messages 27

2021-02-06 13:21:39 शनि
छांगोपनिषद मैं एक आख्यान है कि कुरू देश में भयंकर अकाल पड़ा। क्षेत्र हाथियों के बाहुल्य के लिए प्रसिद्ध था एवं वहां पर उपस्थित ऋषि अपनी पत्नी के साथ रहते थे। शनि प्रकोप से पीड़ित उस क्षेत्र मैं निवास करने के कारण ऋषि एवं ऋषि पत्नी प्रायः भूखे ही सो जाते थे। 1 दिन भूख से पीड़ित ऋषि ने उड़द खा रहे महावत से अन्न के लिए याचना की महावत ने झूठी उड़द ऋषि को प्रदान कर दी दूसरे दिन पुनः भूख मिटाने के लिए ऋषि राज यज्ञ में सम्मिलित होने चल पड़े परंतु वहां पर ब्राह्मणों का चयन हो चुका था अतः प्रवेश नहीं पा सके। तभी उषिस्ति बोले हे ब्राह्मण देवता जिस देव विशेष कि तुम उपासना करने जा रहे हो उसके तत्व ज्ञान के बिना अगर तुमने स्तुति की तो तुम लोगों के सिर धड़ से उड़ जाएंगे। आज उषिस्त मे साक्षात शनिदेव प्रविष्ट हो गए थे एवं शनि वाणी बोल रहे थे। जगदंबा ने भी शनि तत्व को समझे बिना शनि से गणेश मुख्य दर्शन के लिए कहा था और गणपति का शिरोछेदन हो गया था।जब व्यक्ति पारंगतता के अभाव में तत्व चिंतन के अभाव में संपूर्ण ज्ञान के अभाव में दक्षता के अभाव में किसी कर्म विशेष को संपन्न करता है तो उसका पतन निश्चित है। तैरना नहीं आता जल से सामंजस्य नहीं है तो गहरे पानी में मत उतरो। खेलना नहीं आता तो पहले खेलना सीखो अन्यथा प्रतियोगिता में हार निश्चित है।सर्वप्रथम पूर्ण रूप से ज्योतिष को समझो तब जाकर ज्योतिषाचार्य बन पाओगे आधा अधूरा ज्ञान तुम्हें कहीं का नहीं छोड़ेगा। शनि सूर्य पुत्र हैं एवं एक तरह से सूर्य का ही विकास है इनके गुरु है शिव अब शिव के तो अनेकों रूप है वह महामृत्युंजय भी हैं महाकाल भी हैं कपालिक भी हैं शर्व भी है भव भी हैं सदाशिव भी हैं। शिव कह देने से तो काम नहीं चलेगा। समुद्र मंथन हो रहा था सब अमृत पान कर रहे थे सब अप्सराये प्राप्त कर रहे थे रत्नों को लूट रहे थे विष्णु के गले में महालक्ष्मी माला पहना रही थी परंतु शिव नीलकंठ बन धोर हलाहल पी रहे थे। विष को कंठ में ही रोक लिया और इस प्रकार नीलकंठेश्वर शिव अवतार का प्रादुर्भाव हुआ शनि देव को शिव की यह कला भाग गई बस भज बैठे नीलकंठेश्वर को नीले वस्त्र धारण कर लिए नीलम प्रिय हो गया नीले रंग में रंग गये। नीलवर्ण हो गए नीली छटा बिखेरने लगे। जैसे भगवान वैसे भक्त हो ही जाते हैं। नीलकंठेश्वर को अपना गुरु मान लिया और घनश्याम को अपना इष्ट। कृष्ण में भी तो नीली आभा है।अधिकांश लोग शनि को डर कर पूजते हैं उनसे दूर भागते हैं नीलकंठेश्वर से भी सब देवता दूर भाग रहे थे कि कहीं कंठ में विष धारण किया हुआ शिव हमें विषैला ना कर दे परंतु नीलकंठेश्वर तो जगत को विषैला होने से बचाने के लिए विष पान कर बैठे थे। और उनका शिष्य शनि देव भी मानव जाति को विषैली होने से बचाने के लिए विकृत होने से बचाने के लिए भ्रष्ट होने से बचाने के लिए अपनी महादशा के अंतर्गत जातकों की विष ग्रंथियों को फाड़ कर उन्हें निर्विष बनाते रहते हैं। हां विष ग्रंथि फोड़ने में थोड़ी तकलीफ जातक को होती है परंतु इससे क्या? चिकित्सक के अस्त्र रोगी का कल्याण ही करते हैं कड़वी दवाई निरोगी ही बनाती है इसलिए सनी को शनैश्वराय कहां गया है उनके कर्म निश्चित ही ईश्वर तुल्य है।
दुनिया को रुलाने वाले दारूण विलाप कराने वाले नाको चने चबवाने वाला दर-दर की ठोकरें खिलाने वाला हर जगह तिरसकार एवं विडम्बना उत्पन्न करने वाला शनि आज फूट फूट कर रो रहा था,चिल्ला चिल्ला कर विलाप कर रहा था,उसकी आंखों से अश्रु धारा रुक नहीं रही थी लोगों के सौभाग्य को दुर्भाग्य में बदलने वाला शनि आज अपने कुभाग्य पर रो रहा था स्वयं को कोस रहा था आज उसका तिरस्कार हो रहा था आज उसे भगा दिया गया था ऐसा कब हुआ? कब शनि को साढ़ेसाती लग गई? कब शनि का भाग्य भी दुर्भाग्य में परिवर्तित हो गया था वह समय था प्रभु श्री कृष्ण के जन्मोत्सव का।नंद ग्राम में प्रभु श्री कृष्ण के जन्म लेने के अवसर पर हर्ष और उल्लास चारों तरफ छाया हुआ था। कौन दुर्भाग्यशिली ऐसा दिव्य और दुर्लभ अवसर होना चाहेगा जिनके दर्शन के लिए सभी जप तब और धर्म में संलग्न रहते हैंफिर भी जिनके दर्शन स्वप्न में भी दुर्लभ है वह स्वयं शरीर धारण करने जा रहे हैं साक्षात चर्म चक्षुओं से दिखाई पढ़ने जा रहे हैं जिन्हें अब स्पर्श किया जा सकता है जिनसे अब संवाद किया जा सकता है। शनि के तो इष्ट ही प्रभु श्री कृष्ण है प्रभु श्रीकृष्ण के ध्यान में शनि सदैव खोए रहते हैं इतने ध्यान मग्न हो गए थे कि जब उनकी पत्नी रजोनिवृत्ति हुई तो पति सानिध्य प्राप्त करने हेतु शनि के सक्षम उपस्थित हुई। शनि प्रभु श्रीकृष्ण के ध्यान में इतने खोए हुए थे की दृष्टि ऊपर उठी ही नहीं पत्नी को देख ही नहीं पाए आखिरकार वह इंतजार करते करते थक गई और कुपित हो शाप दे बैठी कि तुम्हारी दृष्टि सदैव नीचे रहेगी अगर दृष्टि उठाई तो सामने वाला भस्म हो जाएगा। क्रमशः
@Sanatan
278 views𝑱𝒂𝒈𝒅𝒊𝒔𝒉 𝒑𝒓𝒂𝒔𝒂𝒅 , edited  10:21
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2021-02-06 13:11:28
।।ॐ कृष्णांगाय विद्महे रविपुत्राय धीमहि तन्न: शौरि: प्रचोदयात्।।
256 views𝑱𝒂𝒈𝒅𝒊𝒔𝒉 𝒑𝒓𝒂𝒔𝒂𝒅 , 10:11
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2021-02-06 03:17:22 देवी स्तुति
299 views𝑱𝒂𝒈𝒅𝒊𝒔𝒉 𝒑𝒓𝒂𝒔𝒂𝒅 , edited  00:17
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2021-02-05 18:09:23 ज्योतिष

आपने सांप सीढ़ी का खेल जरूरत खेला होगा जैसे कि सांप सीढ़ी के खेल में गोटी आगे बढ़ती है दो स्थितियां बनती है या तो साप डसेगा या फिर सिढी मिल जाने पर नैया पार हो जाएगी। जीवन सीधी लकीर से चलता है। वह अस्तित्वविहीन होते हैं जो पर्वत के अंतिम बिंदु पर पहुंचना चाहते हैं उसे ही गिरने का भी खतरा बना रहता है।कालसर्प योग उन्हीं की कुंडली में देखने को मिलता है जो कि बहुत ज्यादा क्रियाशील होते हैं। सर्प का मुख कभी अपयश बनकर आता है,शत्रु बनकर आता है,धोखे के रूप में आता है,दुर्घटना, रोग,अस्थिरता इत्यादि सभी के बीच से व्यक्ति जीवन में ग्रसित होता ही है। राहु अमृत प्राप्त किया हुआ ग्रह है एवं यह कभी नहीं मरता और धड़ विहीन है। राहु क्रूर ग्रह के नाम से जाना जाता है परंतु वास्तव में यह रहस्यमय ग्रह है एवं इसे छाया ग्रह भी कहते हैं। विशेषकर राजनीतिक,पारिवारिक और अध्यात्म की रहस्यमय श्रृंखलाओं मैं यही ग्रह उत्थान पतन करता रहता है। राहु की अंतर्दशा,महादशा इसकी विभिन्न ग्रहों के साथ यूती, कुंडली में इसका स्थान विभिन्न प्रकार के कालसर्प योगों का निर्माण करता है। आदि गुरु शंकराचार्य जी ने स्पष्ट लिखा है- त्रिदलं त्रिगुणाकारं त्रिनेत्रं च त्रयायुधम् ।
त्रिजन्मपाप संहारमेकबिल्वं शिवार्पणम्।।

अर्थात भगवान शिव को एक बिल्वं पत्र चढ़ाने से 3 जन्मों के पाप और ताप का सहार होता है और साथ ही जातक में शिवत्व की स्थापना होती है। सर्प शिव का प्रिय आभूषण है भगवान शिव का नाम ही नीलकंठेश्वर है जैसे-जैसे शिवत्व आत्मासात होता जाएगा नाना प्रकार के सर्पों का विष जातक पर असर नहीं करेगा। अब कालसर्प योग का ढोल बहुत ज्यादा पीटा जाने लगा है। इसे कहते हैं ज्योतिष कालसर्प योग, जब ज्योतिषी स्वयं सर्प बनकर जनमानस में कालसर्प योग का भय फैलाने लगे तो उसे कहते हैं ज्योतिष कालसर्प योग। निवारण अत्यंत ही सरल है आदि गुरु शंकराचार्य जी ने 2000 वर्ष पहले ही कालसर्प योग का निवारण बिल्वाष्टकम् मे लिख दिया है अर्थात शिवलिंग स्थापित करो प्रतिदिन उन पर बिल्वं पत्र अर्पित करते हुए ह्रीं ॐ नमः शिवाय ह्रीं का जाप करो परंतु लोगों को मानसिक संतुष्टि के लिए कई बार उल्टे-सीधे अनुष्ठानों की जरूरत पड़ती है। अब किसी से भी कहा जा सकता है सोने की बिल्व पत्र बना लोओ और शिव जी को एक टांग पर खड़े होकर अर्पित करो। बाद में दान दे देना, इस प्रकार की स्थितियां जातक स्वयं ही खड़ी करते हैं। कालसर्प योग के निवारण के लिए शिव मंत्र प्राप्ति और शिवलिंग स्थापना से ही निवारण हो जाता है। महीने में एक बार रुद्राभिषेक कर लेना चाहिए जिससे कि कालसर्प योग के अलावा बहुत सी विपरीत स्थितियों का समाधान हो जाता है।रुद्राभिषेक में शिव,गणेश,नंदी,भैरव,भैरवी,लक्ष्मी,सरस्वती,काली, चंडिका,यक्ष,किन्नर,योगिनीयाँ, ग्रह इत्यादि सभी का आवाहन पूजन तर्पण और पुष्टिकरण निहित है। शिव शक्ति से ही समस्त ब्रह्मांड रचित है। इसके अलावा पाशुपतास्त्र, कालिकास्त्र,गणेशास्त्र,अघोरास्त्र और अंत में नीलकंठास्त्र से तो सर्प रूपी समस्त पाशों का मर्दन हो जाता है। पाश से मुक्ति ही कालसर्प योग से मुक्ति है।
@Sanatan
338 views𝑱𝒂𝒈𝒅𝒊𝒔𝒉 𝒑𝒓𝒂𝒔𝒂𝒅 , edited  15:09
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2021-02-05 18:08:36
295 views𝑱𝒂𝒈𝒅𝒊𝒔𝒉 𝒑𝒓𝒂𝒔𝒂𝒅 , 15:08
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2021-02-05 14:35:48 सरस्वती कवच
ज्ञान की चोरी बहुतायत में होती है ज्ञान अत्यंत ही संवेदनशील तत्व है ना जाने कब मस्तिष्क से विस्मृत या उड़ जाए। कवच के दो कार्य हैं सर्वप्रथम जो ज्ञान हमने अर्जित किया है वह हमारे पास मौजूद रह सके उसका क्षय
ना हो एवं हमारे ज्ञान का उच्चाटन,कीलन,बंधन या हरण कोई दूसरा व्यक्ति किसी तंत्रोक्त या मंत्रोंक्त का विधान से संपन्न ना कर पाए। यह अत्यंत ही महत्वपूर्ण है। वाद विवाद प्रतियोगिता के समय मुख का स्तंभन कर दिया जाता है परीक्षा की जगह बांध दी जाती है अचानक कुछ समय के लिए परीक्षार्थी अर्जित ज्ञान भूल जाते हैं या उनकी एकाग्रता भी भंग की जा सकती है।इन विषम परिस्थितियों से बचने के लिए सरस्वती कवच का पाठ किया जाता है अनेकों बार भोजपत्र के ऊपर सरस्वती यंत्र को निर्मित कर उसे महासरस्वती मंत्र से अभिमंत्रित कर धारण भी किया जाता है विशेषकर 13 मुखी रुद्राक्ष में सरस्वती की स्थापना सबसे उपयुक्त तरीके से की जा सकती है।
सरस्वती कवच का पाठ प्रातः काल ही करना चाहिए पाठ करते समय प्रत्येक अंग का ध्यान कर लेना चाहिए।

श्रृणु शिष्य! प्रवकक्ष्यामि कवचम सर्वकामदम। धृत्वा सततं सर्वे: प्रपाठ्योऽयं स्तव: शुभ:।।
हाथ में जल लेकर बोले--
अस्य श्रीसरस्वती स्तोत्रकवचस्य प्रजापति ऋषि:, अनुष्टुपछंद:, शारदा देवता, सर्वतत्वपरिज्ञाने सर्वार्थ साधनेषु च। कवितासु च विनियोग: प्रकृतित:।
बोलकर जल भूमि पर छोड़ दें।
कवच--
ॐ श्रीं ह्रीं सरस्वत्यै स्वाहा शिरो मे पातु सर्वत:।
ॐ श्रीं वाग्देवतायै स्वाहा भालं मे सर्वदावतु।
ॐ सरस्वत्यै स्वाहेति श्रोत्र पातु निरन्तरम्।
ॐ श्रीं ह्रीं भारत्यै सरस्वत्यै स्वाहा नेत्रयुग्मं सदाऽवतु।
ॐ ऐं ह्रीं वाग्वादिन्यै स्वाहा नासां मे सर्वदाऽवतु।
ॐ ह्रीं विद्याऽधिष्ठातृदेव्यै स्वाहा चोष्ठं सदाऽवतु।
ॐ श्रीं ह्रीं ब्राह्मयै स्वाहेति दन्तपंङ्क्ती: सदाऽवतु।
ॐ ऐं इत्येकाक्षरो मन्त्रो मम कण्ठं सदाऽवतु।
ॐ श्रीं ह्रीं पातु मे ग्रीवां स्कन्धौ मे श्रो: सदाऽवतु।
ॐ ह्रीं विद्याऽधिष्ठातृदेव्यै स्वाहा वक्ष: सदाऽवतु।
ॐ ह्रीं विद्याऽधिस्वरुपायै स्वाहा मे पातु नाभिकाम्।
ॐ ह्रीं क्लीं वाण्यै स्वाहेति मम हस्तौ सदाऽवतु।
ॐ सर्ववर्णात्मिकायै पादयुग्मं सदाऽवतु।
ॐ वागधिष्ठातृदेव्यै स्वाहा सवं सदाऽवतु।
तत्पश्चात दिशाबंधनं कुर्यात-
ॐ सर्वकण्ठवासिन्यै स्वाहा प्राच्यां सदाऽवतु।
ॐ सर्व जिह्वाऽग्रवासिन्यै स्वाहाऽग्निदिशि रक्षतु।
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं क्लीं सरस्वत्यै बुधजनन्यै स्वाहा।
ॐ सततं मन्त्रराजोऽयं दक्षिणे मां सदाऽवतु।
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं त्र्यक्षरो मन्त्रो नैर्ऋत्ये मे सर्वदाऽवतु।
ॐ ऐं ह्रीं जिह्वाऽग्रवासिन्यै स्वाहा प्रतिच्यां मां सर्वदाऽवतु।
ॐ सर्वाऽम्बिकायै स्वाहा वायव्ये मां सदावतु।
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं गद्य-पद्य वासिन्यै स्वाहा मामुत्तरे सदाऽवतु।
ॐ ऐं सर्वशास्त्रवादिन्यै स्वाहैशान्ये सदाऽवतु।
ॐ ह्रीं सर्वपूजितायै स्वाहा चोध्र्वं सदाऽवतु।
ॐ ह्रीं पुस्तकवासिन्यै सदाऽधो मां सदाऽवतु।
ऊँ ग्रन्थबीजरुपायै स्वाहा मां सर्वतोऽवतु।
इति ते कथितं शिष्य! ब्रह्म-मंत्रौध-विग्रहम्।
इदं विश्वजयं नाम कवचं ब्रह्मरूपकम्।।
।। इति श्री सरस्वती कवचं समाप्तम्।।

@Sanatan
314 views𝑱𝒂𝒈𝒅𝒊𝒔𝒉 𝒑𝒓𝒂𝒔𝒂𝒅 , 11:35
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2021-02-05 05:59:50 विद्याअध्ययन (४)
ज्ञान तो पुस्तकों में ढेरो लिखा है,ढेरो ज्ञानवान मस्तिष्क पृथ्वी पर विराजमान है। संभव नहीं है कि एक जीवन में असंख्य काल के असंख्य मस्तिष्कों को द्वारा उत्पादित अनंत ज्ञान हम आत्मसात कर ले। अत: स्व पर व्यक्ति को आना ही पड़ता है स्व ज्ञान महा ज्ञान है। वास्तविक सरस्वती उपासना स्व ज्ञान में ही निहित है दूसरों के ज्ञान की बैसाखीयाँ मस्तिष्क को विकलांग बना देती है। दूसरों का ज्ञान बहुत ज्यादा दूरी तक ले जाने में सक्षम नहीं है इसलिए स्व अनुभूत ज्ञान को ही श्रेष्ठतम माना गया है।मनुष्य ज्ञान को विभिन्न रूपों में संजोकर रखता है यह अच्छा अविष्कार है। इसे आने वाले भविष्य के मनुष्यों को एक मार्गदर्शन और दिशा निर्देश प्राप्त होता है। बस यहीं तक इसके महत्व को रखना चाहिए एवं स्व अर्जन की तरफ निरंतर कदम बढ़ाते रहना चाहिए। हमारे देश में वेद सिर्फ पूजा पाठ के लिए नहीं बने हैं।आजकल के तथाकथित पढ़े-लिखे इन्हें पुरातन कर्मकांड का प्रतीक मानते हैं एवं इन्हें पूजा-पाठ की सामग्री कहकर अपने अल्प ज्ञान का तुष्टिकरण कर लेते हैं। इसमें से एक को भी वेदांत दर्शन के कर्मकांड का क,ख,ग भी नहीं मालूम है।आज जब समस्त संसार उलट बुद्धि,उलट सोच और हिंसक प्रवृत्ति के मनुष्यों से व्यथित है तब वह सोच रहा है। कि क्या कोई ऐसा महाविद्या नहीं है जिससे कि इस प्रकार के आसुरी मनुष्यों का प्रजनन रुक जाए। पृथ्वी पर राक्षसी प्रवृत्तियों के हिंसक मनुष्यों का उत्पादन अल्पतम हो जाए वास्तव में कर्मकांड एवं वेद दर्शन इसलिए ऋषियों ने ब्रह्मांड से प्राप्त किए थे। ब्रह्मा ने वेद मनुष्य को प्रदान किए हैं ब्रह्मा ने मनुष्य को सृजन की शक्ति दी है सृजन की शक्ति तो दुधारू तलवार है सृजन की शक्ति देते समय ब्रह्मा ने अपनी ब्राह्मी शक्ति एवं ब्रह्म विद्या वेदांत दर्शन के रूप में मनुष्य को प्रदान की थी जिससे कि उच्च श्रेणी के सृजनशील गंभीर देवीय विलक्षणताओं से युक्त सकारात्मक सोच वाली अत्यंत ही प्रज्ञावान मानव प्रजाति का उत्पादन हो सके।जब तक पृथ्वी का विशेषकर भारत भूमि का वायुमंडल वेदमय रहा एक से एक महामानव ज्ञानी, विज्ञानी, गणितज्ञ, दानसील, दयालु, दीर्घजीवि मनुष्य उत्पन्न होते रहे हैं, अब तो पाश्चात्य देशों ने वेदांत के परा विज्ञान को समझ लिया है इसलिए वे उच्चतम श्रेणी की मानव नस्ल उत्पन्न करने के लिए वेदांत का सहारा ले रहे है।अपने देश के हिंसक कामुक और भोगी वातावरण को नियंत्रित करने के लिए भारत की प्राचीन विज्ञान एवं पांडित्य को आयात किया जा रहा है। ज्ञान का पथ ही ऐसा है इसे समझते समझते इसे आत्मसात करते करते ही अनेकों पीढ़ियां बीत जाती हैं।पिछले 500 वर्षों का इतिहास उठाकर देख लो अगर विश्व के किसी राष्ट्र रुपी मानव समुदाय ने ज्ञान की उच्चतम आवृत्तियों तक पहुंचने की कोशिश की है तो उसने मुक्त कंठ से वेदांत दर्शन को अपना लिया है और जो अपने तथाकथित विचारों और ओछे ज्ञान के कारण विरोध करते हैं वे कहीं के नहीं रहते। उन समुदायों के मनुष्य को हर तल पर पतन हीं पतंन दृष्टिगोचर हो रहा है।मनुष्य के साथ दिक्कत यह है कि वह अपने विचारों को नहीं छोड़ना चाहता यही ज्ञान के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है।स्वयं के सिद्धांतों स्वयं के विचारों का जब खंडन होने लगे तभी मनुष्य को समझना चाहिए कि वह ज्ञान के सही मार्ग पर है। शास्वत ज्ञान ही वेदांत दर्शन है। ब्रह्मांडीय ज्ञान ही ब्रह्म ज्ञान है।विद्या अध्ययन करने वाले छात्र प्रतिदिन एक चम्मच शहद अवश्य ग्रहण करें। मधु मे ही अमृत निहित है मधु ही मधुरता देती है।
@Sanatan
321 views𝑱𝒂𝒈𝒅𝒊𝒔𝒉 𝒑𝒓𝒂𝒔𝒂𝒅 , 02:59
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2021-02-04 19:43:59 विद्याअध्ययन। (३)
घंटों बिना बोले बिना खाए बिना मल मूत्र विसर्जन किए साधनारत रहते थे। हाथ सूत कातता रहता था और हृदय ईश्वरी चेतना में पूरी तरह लीन रहता था। जिन्हें आत्मचिंतन आप मनन और ज्ञान की पिपासा रहती है वह हर पल हर हाल में इसे पूर्ण करते हैं फिर भी समाज को परिवार को राष्ट्र को ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए कि ज्ञानार्थीयों को उचित माहौल सुविधा एवं प्रर्क्षय मिल सके। समस्याएं विपत्तियां आपदाएं तो सृष्टि का अंग है आती रहती है परंतु इनका हल इन का निदान इन का निवारण केवल ज्ञानार्थी ही कर सकते हैं।समस्याएं नित नए रूप में परिष्कृत होकर मानव समुदाय के सामने खड़ी हो जाती हैं हर युग हर काल समस्या विशेष से ग्रसित होता है और उस युग और काल विशेष के मनुष्यों को कड़ी परीक्षा देनी पड़ती है अपने ज्ञान की। ज्ञान के माध्यम से प्रज्ञा शक्ति की प्रबलता से समस्या का निवारण करना ही पड़ता है।प्रत्येक काल मानव समुदाय को अपने अंदर प्रविष्ट होने देने से पहले उसके ज्ञान की कड़ी परीक्षा लेता है तदुपरांत मानव समुदाय उस काल विशेष में प्रविष्ट हो उचित तरीके से जी पाता है अन्यथा वह नष्ट कर दिया जाता है या इतिहास की गर्त में समा जाता है। अनेक वंश अनेकों जातियां अनेकों मानव समुदाय रूपी राष्ट्र नष्ट हो गए बिखर गए नष्ट हो गई उनका कहीं कोई ठिकाना नहीं है। जिनके पास ज्ञान होगा तकलीफ होगी वही श्रेष्ठतम कहलाएंगे वही परिवर्तनशील होंगे वही भविष्य में प्रविष्ट होने के योग्य होंगे यह सीधा सा नियम है जो इस पर चलेगा वहीं जी पाएगा। अपरिवर्तनशील और अज्ञानी काल का ग्रास बनते हैं।महासरस्वती उपासना का तात्पर्य केवल पुस्तक या ग्रंथ का अध्ययन ही नहीं है इसके अंतर्गत समस्त मानव संवेदनाएं प्रदर्शित करने का विधान है। नृत्य, नाट्य,लेखन,संगीत,वाद्य,रचना,सृजन सभी कुछ महासरस्वती उपासना के अंतर्गत आते हैं। जिस समाज में महासरस्वती के समग्र विधान अनुसंधानित किए जाते हैं वही प्रबुद्ध समाज कहलाता है।सरस्वती की विशेषता क्या है? मस्तिष्क को शांति और पुष्टि दोनों सरस्वती प्रदान करती है मस्तिष्क से संगीत निकलता है और मस्तिष्क को संगीत आल्हादित करता है। मस्तिष्क की खुराक है संगीत।मस्तिष्क से प्रवचन फुतते हैं और मस्तिष्क को ही विकसित करते हैं प्रवचन। यही सरस्वती का परम महत्व है। स्व के लिए स्व का उत्पादन। दो स्व से मिलकर बनी है सरस्वती। स्व का उत्पादन,स्व का मंथन,स्व का चिंतन से ही स्व अस्तित्ववान बनता है। क्रमशः
@Sanatan
328 views𝑱𝒂𝒈𝒅𝒊𝒔𝒉 𝒑𝒓𝒂𝒔𝒂𝒅 , 16:43
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2021-02-04 19:42:58 विद्याअध्ययन (२)
प्राचीन काल में गुरुकुल पद्धति थी ज्ञानार्जन के समय राजा का पुत्र हो या गरीब का उसे कनक और कांता से दूर रखा जाता था। तभी वह नै: सर्गिक वातावरण में रहकर ज्ञान की उच्चतम आवृत्तियों को संस्पर्शित कर पाता था।
दोनों चीजें एक साथ नहीं चल सकती। ज्ञानार्जन स्व की खोज स्वयं के अंदर उतरने की प्रक्रिया है। इस क्रिया में स्वयं की निकटता अत्यधिक आवश्यक है। काम जाग गया तो क्या खाक विद्याधन होगा दुनियादारी में मन उलझ गया तो ब्रह्मविद्या पास खड़ी होगी तो भी ध्यान नहीं जाएगा। आज भी ब्रह्मविद्या के साधक अत्यंत ही कठोर नियम अपनाते हैं जैन मुनि,बौद्ध भिक्षु,साधु संत एकांतवास इसलिए धारण करते हैं।जब आध्यात्मिक ग्रंथों की रचना की जाती है तब 2 वर्ष पूर्व ही स्त्री तो क्या स्त्री का चित्र भी नहीं देखा जाता है तब जाकर ज्ञान की शुद्धता आवृत्तियों को ग्रंथ के रूप में प्रदर्शित करने की शक्ति साधक के अंदर विकसित होती है। चित एकदम निर्मल और साफ होना चाहिए।ज्ञानार्जन बहुत सरल भी है और बहुत कठिन भी जो स्वयं को ज्ञान की आवृत्तियों के योग्य बना लेते हैं उनके लिए तो ज्ञानार्जन अत्यधिक सरल हैं अन्यथा दिमाग में कुछ प्रविष्ट ही नहीं होगा।ज्ञान आपके हिसाब से नहीं ढलता बल्कि आपको ज्ञान के अनुसार स्वयं ही ढालना होगा?क्या आपके मस्तिष्क की पाचन क्षमता इस योग्य है? कि गुरु गुढ़ ज्ञान आपको दे सके ऐसा ना हो कि आप उसे पचा भी ना पाए या आपके मस्तिष्क का हाजमा बिगड़ जाए। यह मुख्य सवाल है कभी-कभी अत्यधिक गूढ़ ज्ञान देने की कोशिश गुरु करता है पर पता चलता है कि सामने गधे बैठे हैं। आदि गुरु शंकराचार्य जी भी अपने चर्पट स्तोत्र में जो कि उन्होंने शिष्यों के लिए लिखा था शिष्यों को स्त्री और धन की लालसा से दूर रखने के लिए कड़ी फटकार लगाई है। ज्ञान संवेदनशीलता का विषय है। गुरु जितना संवेदनशील हो शिष्य को भी उतना ही संवेदनशील होना पड़ेगा।संवाद संवेदना आधारित होता है।संपूर्ण एवं सक्षम ज्ञान को ग्रहण करने के लिए संवेदना का क्रम नहीं टूटना चाहिए। संवेदनशीलता के हिसाब से ही ज्ञान आत्मसात हो पाता है अधिकांशत: लोग 40 से 60% ज्ञान ही ग्रहण कर पाते हैं।गुरु के मुख से निकला ग्रंथ में लिखित या किसी लेख में वर्णित ज्ञान तत्वों को 100% आत्मसात करने के लिए उतनी ही प्रबल संवेदनशीलता चाहिए। संवेदनशीलता केवल पवित्रता और शुद्धता से ही निर्मित होती है। ब्रह्मांण्ड तो पारदर्शी है शीशे से भी ज्यादा पारदर्शी है ब्रह्मांण्ड। करोड़ों मील दूर सूर्य हमें बिल्कुल आंखों के सामने दिखाई पड़ता है ईश्वर ने पारदर्शिता ही निर्मित की है। ईश्वर स्वयं पारदर्शी है वह निश्चल और सरल है। एवं उसके अंदर और बाहर सभी जगह दृष्टि दौड़ाई जा सकती है ज्ञान भी पारदर्शी है। बस शुद्धता मलिनता और विकृतियां तो जिव की दृष्टि में है न्यूनता तो इंद्रियों में है इंद्रियों को शुद्ध कर लो उन्हें पारदर्शी बना लो उन्हें स्पंदनमयी बना लो उन्हें सक्रिय और चैतन्य कर लो ज्ञान उसमें स्वता ही बहने लगेगा। इससे ज्यादा कुछ नहीं करना है सूर्य की किरणें तो बादल को भी भेद कर निकल आती है परंतु तुम्हें घर की चारदीवारी से कम से कम खुद तो निकलना ही पड़ेगा और सूर्य तुम्हें सामने खड़ा मिलेगा। यही ज्ञानी और अज्ञानी बनने के बीच का फर्क है। एक संत ने गड्ढा खोदा उस में उतर गया उसने कहा ज्ञान अर्जन करने जा रहा हूं ऊपर से गड्ढा ढक दिया गया 5 दिन बाद वह गड्ढे से बाहर निकला बिल्कुल स्फूर्ति वान नवीन चेतना और ज्ञान से युक्त एवं चेहरे पर अद्भुत तेज यह है भारतीय मनीषियों के ज्ञान अर्जन की महाविद्या। ज्ञान ऊपर के चक्रों का विषय है हृदय,कंठ,आज्ञा चक्र और सहस्त्रार इन्हीं चक्रों को ज्ञान की आवृत्तियाँ संस्पर्शित करती है। यह समाधि स्थित होने की कला अर्थात मल-मूत्र,काम,भूख,स्नान, प्रवचन,श्रवण,दर्शन में लगी हुई सभी इंद्रियों अंगों ग्रंथियों को सूक्ष्मातीत कर देना अक्रियाशील कर देना और सिर्फ परम चेतनामयी कोषो को प्राणशक्ति से क्रियाशील कर ईश्वर की परम चेतना से साक्षात्कार करना। दुनिया में क्या चल रहा है इससे अपने आप को विमुख कर लेना। ऊपरी दुनिया में तो सिर्फ कुछ ही धिसी-पीटी क्रियाएं ही चलती है वही छीना झपटी वही कामुकता वही तथाकथित संबंधों का रोना-धोना जीना मरना और युद्ध। यह सब अनंत काल से पशु रूपी मनुष्यों के मानस को ग्रसित किए हुए हैं कुछ भी नया नहीं है। केवल जमीन में गड्ढा खोदकर ध्यान मस्त होना ही एकमात्र तरीका नहीं है समाधि की स्थिति को प्राप्त करने का निश्चित ही यह प्रबलतम विधान है परंतु 10 वर्ष के बालक भी समाधि स्थित होते हैं वह भी कमरे में एक कोने में पुस्तक हाथ में लेकर ज्ञान की चेतना से एकाकार कर लेते हैं भीड़ में रहते हुए भी बहुत से लोग आत्मचिंतन में खोए रहते हैं कबीर जुलाहे थे सूत कातते-कातते ही आत्म चिंतन में लगे रहे थे। क्रमशः
@Sanatan
294 views𝑱𝒂𝒈𝒅𝒊𝒔𝒉 𝒑𝒓𝒂𝒔𝒂𝒅 , 16:42
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2021-02-04 19:41:45 विद्याअध्ययन
अधिकांश तो ऐसे लोग हैं जिनकी तीन पीढ़ी में किसी का कोई आध्यात्मिक गुरु नहीं रहा है।बीते हुए 5 वर्षों में सिर्फ सत्यनारायण की कथा के अलावा उन्हें सनातन संस्कृति के बारे में कुछ नहीं मालूम है।आज के युग में तो अब यह हाल हो रहा है कि कुछ दिनों बाद लोग कहेंगे कि शिव जी के पिता गणेश जी हैं। अतः जिम्मेदारी विकट है एवं इस तरह की स्थिति में वेद के गूढ़ रहस्य की बात करना लोगों से साधनाएं उपासना करवाना देव संस्कृति की तरफ ले जाना निश्चित ही कठिन कार्य हो गया है। पूरे एक अंतरराष्ट्रीय षड्यंत्र के माध्यम से सनातन धर्म की साधनात्मक पद्धति का नाश कर दिया गया है। जब बगलामुखी देवी के बारे में जानकारी ही नहीं होगी तो बगलामुखी उपासना कैसे होगी। अब देश में कितने लोग हैं जो कि घंटाकर्ण महावीर के बारे में जानते हैं। यह साधना अत्यंत ही कम समय में शत्रु बाधा निवारण परिणाम उपलब्ध करा देती है। अगर इनकी उपासना नहीं कराई गई अगर भैरव उपासना नहीं करवाई गई तो आने वाले 20 वर्षों में लोगो में इन देवों की उपासना लुप्त हो जाएगी।महासरस्वती का मतलब केवल पढ़ाई में अच्छे नंबर लाना ही नहीं है। महासरस्वती उपासना के अंतर्गत तो सब कुछ आता है। इसके अंतर्गत भारत का समस्त प्राच्य ज्ञान निहित है। चाहे ज्योतिष संबंधी ज्ञान हो, कुंडली विवेचन हो, देव पूजन पद्धति का ज्ञान हो या फिर कर्मकांडों की श्रृंखला हो। एक साधना है नील सरस्वती साधना अगर स्त्री गर्भ धारण किए हुए हैं और गर्भावस्था के दौरान जबकि गर्भ दो या तीन माह का हो वह यह साधना संपन्न कर लेती है तो आने वाला शिशु प्रखर बुद्धि से युक्त होगा। शिशु का गर्भकाल ज्ञान अर्जन का काल बन जाएगा। लोग कहते हैं हम दूध पीते हैं। दुग्ध की विशेष कर गौ दुग्ध कि हर ग्रंथो में अत्यंत ही तारीफ की गई है। प्राचीन काल में शिशुओं को गौ दूध पिलाया जाता था वास्तव में दूध कोई पी ही नहीं पाता सामान्यतः माता का दूध ही एकमात्र ऐसा दूध है जो कि मुश्किल से 8 माह तक बालक सीधे अपने उदर में उतार सकता हैं। कभी-कभी तो यह क्षमता शिशु में तीन या चार माह तक ही रह पाती है। अब तो माताएं दूध पिला ही नहीं रही है अतः बुद्धि पक्ष कमजोर होता जा रहा है।जैसे ही शिशु अन्न चखता है शिशु के शरीर में तुरंत ही रासायनिक परिवर्तन इस प्रकार से हो जाता है कि कंण्ठ में लगी ग्रंथियों से स्पर्श होते ही दूध फट जाता है और उदर के अंदर केवल फटा हुआ दूध ही रह जाता है। यह बहुत बड़ा रहस्य है माता के दूध के पश्चात केवल गौ दूध में इतनी शक्ति है कि वह सीधे उदर में बिना फटे उतर सकता है। कृष्ण गौ दूध ही पान करते थे, योगी लोग योग विद्या के माध्यम से एवं विशेष जड़ी-बूटी के सेवन के पश्चात दूध कल्प करते थे। जिससे कि चरमोत्कर्ष में मस्तिष्क का विकास हो जाता था।पूर्व काल में पारद का एक विशेष गिलास बनाया जाता था और इस गिलास के माध्यम से राजा महाराजा दूध पीते थे। इस प्रकार दूध बिना फटे सीधे उदर मैं उतर जाता था और इन्हें अपूर्व बल और बुद्धि प्रदान करता था। जिन राजाओं की सौ सौ रानियां होती थी वह दूध के माध्यम से ही अपने आप को यौवनवान बनाए रखते थे।मानसिक शारीरिक और आध्यात्मिक बल का विकास करना। इस देश में एक से एक विद्यायें रही हैं जो कि कालांतर लुप्त होती जा रही हैं। फिर भी विद्यार्थियों को दूध का सेवन करना ही चाहिए भले ही वह कंठ में स्पर्श होते ही विभिन्न घटकों में बट क्यों ना जाता हो।
महाराष्ट्र के एक बहुत बड़े संत हुए हैं श्रीधर विष्णु महाराज इन्होंने संस्कृत एवं मराठी में अद्भुत ग्रंथ लिखे हैं। ग्रंथों का तात्पर्य है ब्रह्म ज्ञान का संकलन। आध्यात्मिक ग्रंथ ब्रह्म विद्या की तकनीक ब्रह्मा अनुभूतियां एवं शास्वत रहस्यों से ओतप्रोत होते हैं। आध्यात्मिक ग्रंथ परम विशुद्धात्मक ब्रह्म ज्ञान की आवृत्तिओं को उत्सर्जित करते हैं। भारत के अधिकांशत: आध्यात्मिक ग्रंथ चाहे वह किसी भी संप्रदाय या धारा के क्यों ना हो इनमें मानवीय विकृतियां एवं त्रुटियां लगभग नगण्य होती हैं। क्योंकि इन ग्रंथों के रचयिता स्वयं के शरीर मानस चिंतन सोच और आसपास के वातावरण को मानवीय कमजोरियों एवं दोषों से कडाई के साथ दृढ़ता पूर्वक दूर रखते हैं। कनक और कांता विद्या अध्ययन करने वालों के लिए पूरी तरह निषिद्ध है। कनक का तात्पर्य है धन,भोग,वैभव इत्यादि तो कांता का तात्पर्य है स्त्री।इन दोनों के सानिध्य में विशुद्ध आध्यात्मिक ज्ञान को ब्रह्मांड से ग्रहण करना संभव नहीं है। क्रमशः
@Sanatan
311 views𝑱𝒂𝒈𝒅𝒊𝒔𝒉 𝒑𝒓𝒂𝒔𝒂𝒅 , edited  16:41
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