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*श्रीसेठजी श्रीजयदयालजी गोयन्दकाका संक्षिप्त जीवन–परिचय* *साध | श्रीसेठजी - Shri Sethji - Shri Jaydayal Goyandkaji

*श्रीसेठजी श्रीजयदयालजी गोयन्दकाका संक्षिप्त जीवन–परिचय*

*साधना और साक्षात्कार*

वैसे तो इनकी आध्यात्मिक साधना बचपनसे ही प्रारम्भ हो गयी थी पर चौदह-पंद्रह वर्षकी उम्रमें पूर्वजन्मके संस्कारोंके फलस्वरुप साधनामें दृढ़ता आने लगी। प्रारम्भमें इन्होंने हनुमानजीकी उपासनाकी थी। एक दिन स्वप्नमें श्रीहनुमानजीके बन्दरके रूपमें दर्शन हुए थे। ये डरने लगे। ये बोले––तुमने प्रसाद बाँटनेका संकल्प किया था, बाँटा क्यों नहीं ? उन्होंने कहा––अब बाँट दूँगा। इतना कहते ही वे अन्तर्ध्यान हो गये।

इसके पश्चात श्रीशिवजीकी उपासना की। फिर इन्होंने महाभारतमें सूर्य–उपासनाकी कथा पढ़ी तो सं. १९५६से सं. १९६६ तक सूर्य भगवान् की उपासना की। दस वर्षतक इनका कड़ा नियम था कि सूर्यके दर्शन करनेके पश्चात ही भोजन करते। इस अवधिमें कई बार इन्हें भूखा रहना पड़ा। ये सूर्यसे प्रार्थना करते हैं कि हे भगवान् ! यदि परस्त्रीसे मेरा किसी प्रकार भी सम्बन्ध हो जाय तो मेरा शरीर भस्म हो जाय। जब ये नेत्र बन्द करके सूर्यकी ओर देखते तो एक प्रकाशमय आनन्दका पुंज दिखाई देता। इससे उन्हें प्रकाशमय निराकार ब्रह्मके ध्यानमें सहायता मिली। महाभारतका स्वाध्याय बहुत श्रद्धा प्रेमसे करते थे। शिवजीके मन्दिर प्रतिदिन जाया करते थे। शिव-विष्णुमें भेद नहीं मानते थे। शिवजीने भी स्वप्नमें दर्शन दिये।
जब रामायण पढ़ने लगे तो उसमें ये बात मिलती कि शिवजी एवं हनुमानजी भगवान् रामके सेवक हैं तो रामजीके प्रति विशेष श्रद्धा होने लगी। रामजी साक्षात् परमेश्वर हैं–– ऐसा मानकर राम-नामका जप एवं उन्हींका ध्यान करने लगे। उनके ध्यानकी स्थिति सत्रह-अठारह वर्षकी आयुमें बहुत अच्छी हो गई थी। उस समय वृत्तीयाँ इतनी एकाग्र हो गयी थीं कि ध्यान तोड़ना चाहते तब भी नहीं टूटता। एक दिन घरमें छतपर बैठे भगवान् रामका ध्यान कर रहे थे। ऐसा दृढ़ विश्वास था कि भगवान् राम सामने खड़े हैं। मनकी आंखोंसे वे स्पष्ट दिखाई दे रहे थे।सायंकालका समय था। माताजीने भोजनके लिये आवाज दी। पहले तो ये बोले नहीं पर माताजीने कई बार आवाज दी तो ये बैठे-बैठे ही नीचे धीरे-धीरे जाने लगे कि ध्यानकी वृत्ति टूट न जाय। फिर जब भोजन करने लगे तो ध्यानकी गाढ़ता कम हो गई। उसके बाद तो रास्ता चलते हुए नामका जप और भगवान् के स्वरूपका ध्यान करने लगे। लोग उन्हें पागल हो जानेका भय दिखाते, पर ये उनकी बातकी ओर ध्यान नहीं देते। रामचन्द्रजीके भी स्वप्नमें दर्शन हुए तथा काफी देर तक बातें हुई।

उसके बाद योगवाशिष्ठका स्वाध्याय करने लगे। उसमें निराकार ब्रह्मकी अधिक महिमा मिलती तो मन निराकारकी उपासनाकी ओर अग्रसर होने लगा। वेदान्तकी पुस्तकका अधिक स्वाध्याय होने लगा। उस समय भी निराकार-साकारमें भेद नहीं मानते थे। फिर किसी कारणविशेषसे भगवान् विष्णुके स्वरूपका ध्यान करने लगे।

अब जीवनमें परिवर्तनका समय आया। नाथ-सम्प्रदायके बड़े ऊँचे सन्त श्रीमंगलनाथजी महाराज उस समय चुरू आये हुए थे। ये त्याग, वैराग्य एवं ज्ञानकी ज्वलन्तमूर्ति ही थे। सच्चे सन्तके एक क्षणका संग भी अमोघ होता है। श्रीजयदयालजीकी इनसे बहुत बातें हुई, सत्संग हुआ। इनके मनपर मंगलनाथजी महाराजके त्याग, वैराग्यकी गहरी छाप पड़ी और उसी समय मनमें निश्चय किया कि मैं भी ऐसा ही बनूँ। यह घटना सं. १९५६ की है। उसके पश्चात् साधनामें तत्परता बढ़ गई। कुछ समय बाद इनकी निराकार साधनाकी स्थिति बहुत अच्छी हो गई। एक बार इन्हें ऐसा भान हुआ कि मुझे ब्रह्मकी प्राप्ति हो गई। यह विचार आते ही मनमें तुरन्त स्फुरर्णा हुई कि जिसे ब्रह्मकी प्राप्ति हुई है उसे तो यह अनुभूति हो ही नहीं सकती कि "मैं ब्रह्म प्राप्त हूँ।" अत: मेरा भ्रम ही है। सं. १९६४ (सन१९०७) में ये चूरूमें अपने घरके चौबारेमें थे, उस समय सर्वथा जागृत अवस्थामें इन्हें प्रथम बार भगवान् विष्णुके साक्षात दर्शनोंका परम सौभाग्य प्राप्त हुआ। उस समय इनका मुँह चद्दरसे ढँका हुआ था। आनन्दातिरेकसे ऐसी मुग्धावस्था हुई जिसका वर्णन करना संभव नहीं है। उनके मनमें आया कि मैंने तो भगवान् को बुलाया नहीं था, कैसे पधारना हुआ। मनमें स्फूरणा हुई निष्काम भक्तिके प्रचारके लिये।

पुस्तक
*श्रीभाईजी–– एक अलौकिक विभूति*
गीता वाटिका प्रकाशन