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*श्रीसेठजी श्रीजयदयालजी गोयन्दकाका संक्षिप्त जीवन–परिचय* *अन् | श्रीसेठजी - Shri Sethji - Shri Jaydayal Goyandkaji

*श्रीसेठजी श्रीजयदयालजी गोयन्दकाका संक्षिप्त जीवन–परिचय*

*अन्तरंग मित्र*

जब इनकी उम्र बारह वर्षकी थी तभी इनकी मित्रता श्रीहनुमानदास गोयन्दकासे हुई, जिनकी उम्र चौदह वर्षकी थी। इनका जन्म चूरूमें चैत्र शुक्ल १ सं. १९४० को हुआ था। बचपनकी मित्रता धीरे-धीरे गाढ मैत्रीमें परिवर्तित हो गई तथा साधनाकी प्रगतिके साथ-साथ अन्तरंग होती गई। दो–चार वर्षों बाद ही आपसमें आध्यात्मिक चर्चा करते थे। चर्चा ही प्रधान हो गयी दूर भी रहते तो बीच-बीचमें परस्पर मिलकर गहरी अध्यात्मिक चर्चा करते थे। सं. १९६३ में हनुमानदासजीकी भी साधनामें तत्परता आ गई एवं उन्हें जगत् स्वप्नवत प्रतीत होने लगा। उन्होंने सारी बातें श्रीजयदयालजीको पत्रमें लिखीं। उत्तरमें जयदयालजीने लिखा कि एक बार तुमसे मिलना है। या तो तुम आ जाओ या मैं आ जाऊँ। इस समय तुमसे जितना प्रेम है, उतना घरमें या बाहर किसीसे भी नहीं है। श्रीहनुमानदासजी उस समय कलकत्तामें थे। वे पत्र मिलते ही बहुत प्रभावित हुए तथा मिलने चुरू आ गये। मिलनेपर उन्होंने पूछा––मुझे क्यों बुलाया है ? उन्होंने कहा––देखो, संसारमें जिस कामके लिये आना हुआ है, वह काम पहले कर लेना चाहिये। वह काम है–– श्रीभगवान् के दर्शन कर लेना। उन दिनों इन दोनों मित्रोंमें भगवान् के प्रेम–प्रभावकी बहुत बातें होती थी। दिन–रात दोनों मित्र अधिक–से–अधिक एकान्तमें रहते। अध्यात्मिक विषयकी परम मार्मिक बातें होती। भगवान् के दर्शनोंके सम्बन्धमें भी बहुत रहस्यमय बातें होती थीं, किन्तु श्रीजयदयालजीने इन्हें वे सभी बातें गुप्त रखनेका कड़ाईसे आदेश दे रखा था। वेदान्तकी चर्चा भी होती। ज्ञानकी प्रथम, दितीय, तृतीय, चतुर्थ भूमिकामें ज्ञानीके क्या लक्षण होते–– ये बातें भी जयदयालजीने इन्हें बताईं। इन बातोंको तथा भगवान् के दर्शनोंकी बातें सुननेसे श्रीहनुमानदासजीके मनमें एकान्तमें रहनेकी प्रबल इच्छा जागृत हुई। वे बार-बार घर छोड़कर सन्यासके लिये इनसे आग्रह करने लगे। इनका प्रबल आग्रह देखकर श्रीजयदयालजीने कहा––कि चार–छ: महीने यहीं रहकर निरन्तर भजन–स्मरण करके अपनी स्थिति दृढ़ कर लेनी चाहिये, इससे सन्यास लेनेमें बड़ी सहायता मिलेगी। चार महीने तीव्र साधनाके साथ भगवच्चर्चा होती रही। चार महीने पूरे होते ही है फिर सन्यासके लिये आग्रह करने लगे।

श्रीजयदयालजी थोड़ी देर सोचते रहे, फिर बोले––तुम्हारे भविष्यकी बातों की स्फूरणा मेरे मनमें हो रही है। तुम्हारे लिये सन्यास लेना ठीक नहीं है। तुम इसे निभा नहीं सकोगे, क्योंकि तुम्हारा वैराग्य स्थायी नहीं है परन्तु उनका आग्रह चालू रहा। आग्रहके उत्तरमें श्रीजयदयालजीने कहा––देखो, मैं तुम्हारे साथ चलनेका वचन दे चुका हूँ और तुम कहोगे तो मैं चलूँगा,पर तुम्हें अभी भोग भोग ना अनिवार्य है। यदि तुम सन्यास लोगे तो फिर तुम्हें अपनी गृहस्थीमें आना पड़ेगा और मैंने यदि सन्यास ग्रहण किया तो मैं वापस लौटूँगा नहीं। मैं तो यदि बना तो कानोंसे बहरा, मुँहसे गूँगा और पैरोंसे पंगु सन्यासी बनूँगा। मेरे मनमें अपने एवं तुम्हारे पूर्वजन्मकी बातें स्फुरित हो आई है। लगभग दो हजार वर्ष पहले तुम राजा थे, मैं तुम्हारा मंत्री था। उस समय भी हम दोनोंने राज्य छोड़कर सन्यास लिया था। संन्यासके बाद हम लोगोंके पास बहुत लोग सत्संग करने आते थे। वृक्षोंके नीचे सत्संग होता का। कुछ समय बाद मेरा शरीर छूट गया। तुम अकेले रह गये। लोग तेरा अत्यधिक सम्मान करते थे। मैं जब जीवित था तो सम्मान मेरा भी बहुत होता था, परन्तु मैं मनसे स्वीकार नहीं करता था। मेरी मृत्युके पश्चात तुमने सम्मान स्वीकार करना आरम्भ कर दिया अर्थात पूर्व प्रकृतिके अनुसार उस त्यागाश्रममें भी गद्दे, तकिये एवं बढ़िया खान-पान आदि भोग तुम भोगने लगे, जिससे तुम्हारी बड़ी हानि हुई। तेरा पतन हो गया। समयपर तुम्हारी मृत्यु हुई। मृत्युके बाद तबसे अबतक तुम्हें मनुष्य–जन्म नहीं मिला। तुम पशु–पक्षी आदि योनियोंमें भ्रमण करते रहे, परन्तु मैं इतने दिनोंतक ऊपरके लोकमें ही रहा। अब इतने दिनों बाद दैवयोगसे तुम्हारे शुभ कर्म प्रकट हुए और तुम्हें मनुष्य–जन्म मिला और मेरा भी आना हुआ। यदि अब तुम हठ करोगे तो वचनबद्ध होनेसे मैं तुम्हारे साथ सन्यास ग्रहण कर लूँगा,पर निश्चय मानो कि तुम्हें लौटना होगा और मैं लौटूँगा नहीं। मेरा–तुम्हारा संग छूट जायगा। इन बातोंको लेकर बहुत देर विचार होता रहा। अन्तमें सन्यासका विचार त्याग दिया गया। यह निश्चय हुआ कि जयदयालजी बाँकुड़ा रहे तथा हनुमानदासजी कलकत्तामें। समय-समयपर दोनों मिलते रहे। यह क्रम कई वर्षोंतक चलता रहा। जब मिलते तो कई बार सारी–सारी रात भगवत्-चर्चा करते बीत जाती, फिर भी बातें समाप्त नहीं होती। चूरु भी प्राय: साथ ही जाया करते थे।


पुस्तक
*श्रीभाईजी–– एक अलौकिक विभूति*
गीता वाटिका प्रकाशन