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*श्रीसेठजी श्रीजयदयालजी गोयन्दकाका संक्षिप्त जीवन–परिचय* *अन् | श्रीसेठजी - Shri Sethji - Shri Jaydayal Goyandkaji

*श्रीसेठजी श्रीजयदयालजी गोयन्दकाका संक्षिप्त जीवन–परिचय*

*अन्तरंग मित्र*

जयदयालजीके प्रति हनुमानदासजीकी तो श्रद्धा थी, पर उनके घरवालोंकी नहीं थी। एक बार उन्होंने अपनी स्त्रीसे कहा कि जयदयालजी दूसरेकी मनकी बात बता देता है, पर उनकी स्त्रीको इस बातपर विश्वास नहीं हुआ और उसने कहा कि यदि मेरे मनकी बात बता दे तो मैं सच मानूँ। परीक्षाके लिये उसने मनमें किसी विशेष बातका चिन्तन किया तथा जयदयालजी ने वह बात ज्योंकि त्यों बता दी। तबसे उनकी स्त्रीकी भी श्रद्धा हो गई।

सत्संगके प्रसंगमें एक दिन जयदयालजीने उनकी पत्नीसे कहा कि भगवान् का ध्यान करना चाहिये। वह बोली–– उसका ध्यान करना तो संभव है, जिसे पहले देखा हो। भगवान् को तो मैंने पहले कभी देखा नहीं, तब उनका ध्यान कैसे करुँ ? जयदयालजीने उसे समझानेकी चेष्टा की कि ऐसी धारणा रखनेसे भगवान् के दर्शन होने बड़े कठिन है। पर वह अपने बातका समर्थन करती हुई बोली कि प्रत्यक्ष न सही स्वप्नमें दर्शन हो जायँ तो उसके अनुसार ध्यान किया जा सकता है। जयदयालजीने अन्तमें कहा––अच्छी बात है, यदि स्वप्नमें तुम्हें भगवान् के दर्शन हो जायँ तो फिर ध्यान करोगी ? उसने तुरंत उत्तर दिया है फिर तो अवश्य करुँगी। कहना नहीं होगा कि उसी दिन रात्रिमें उनको स्वप्नमें भगवान् विष्णुके दर्शन हुए।
जयदयालजीकी उम्र बीस–बाईस सालकी थी तब ध्यानमें वृत्ति इतनी तल्लीन रहती कि कई बार रास्तेमें बैठ जाते या किसीका कंधा पकड़कर चलते। एक दिन हनुमानदासजीका कंधा पकड़कर रास्तेमें चल रहे थे और उनसे कह रखा था तुम ध्यान रखना, मेरी वृत्तियाँ ध्यानमें एकाग्र हो रही है। रास्तेमें इसी तरह जाते हुए श्रीलालजी गोयन्दका पिताजी स्नान करके आ रहे थे। उनसे सिरसे सिर भिड़ गया। उन्होंने कहा––देखकर नहीं चलता? उन्होंने कहा––गलती हो गई, क्षमा चाहता हूँ। फिर हनुमानदासजीसे बोले––मैंने तुम्हें पहले ही कह दिया था कि मेरी वृत्तियाँ ध्यानमें एकाग्र हो रही है, तुम ध्यान रखना, परन्तु फिर भी तुमने ध्यान नहीं दिया।


पुस्तक
*श्रीभाईजी–– एक अलौकिक विभूति*
गीता वाटिका प्रकाशन