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*श्रीसेठजी श्रीजयदयालजी गोयन्दकाका संक्षिप्त जीवन–परिचय* *व्य | श्रीसेठजी - Shri Sethji - Shri Jaydayal Goyandkaji

*श्रीसेठजी श्रीजयदयालजी गोयन्दकाका संक्षिप्त जीवन–परिचय*

*व्यापार*
सं. १९६०में श्रीजयदयालजी अपने मामाके यहाँ काम करने चुरूसे बाँकुड़ा (बंगाल) आ गये। उनके यहाँ कुछ दिन काम सीखा, फिर अपना अलग व्यापार कर लिया। सं. १९६७ से सं. १९७७ तक, दस वर्ष चक्रधरपुरमें व्यापारकी दृष्टिसे रहना हुआ। सत्यवादिता की दृष्टिसे व्यापारमें इनका और पिताजीका मतभेद रहा। पिताजीका मोल-भाव जब ग्राहकोंको करते देखते तो उन्हें जितनेमें बेचना होता उससे कुछ अधिक दाम बताते और जो ग्राहक एक दाम पूछता उसे एक दाम बताते। एक दाम बतानेके बाद एक पैसा भी कम न लेते। मोल–भाववाला यदि अधिक मुनाफा दे देता तो हँसकर अधिक रकम वापस दे देते। श्रीजयदयालजी ग्राहकोंसे एक ही दाम बताते। उचित मुनाफा रखकर एक दाम बतानेके बाद उसमें जरा भी परिवर्तन न करते। पिता–पुत्र दोनों ही अपने–अपने विचारोंपर दृढ़ रहे। इससे व्यापारमें इनकी साथ बहुत बढ़ गयी। इनके श्रद्धालुजन इन्हें 'सेठजी' के उपनामसे पुकारते थे। इनका व्यापार तो बाँकुड़ामें ही रहा, पर कुछ वर्षों बाद व्यापारका कार्य घरवालोंपर छोड़कर ये अपना अधिकांश समय भगवद्भावोंके प्रचारमें ही लगाते थे।

*सत्संग–प्रवचन*
जब श्रीसेठजीकी उम्र बाईस वर्षकी थी तभीसे सत्संग–व्याख्यान देने लगे। धीरे-धीरे जैसे लोगोंकी सुननेमें रुचि बढ़ी ये अपना अधिक समय प्रवचनमें लगाने लगे। जहाँ भी रहते वहीं सत्संगका आयोजन होने लगा और उपस्थिति भी बढ़ने लगी। सं. १९६७ से जब ये चक्रधरपुर रहने लगे तो वहाँसे ये शामको खड़गपुर आ जाते तथा सत्संग सुननेवाले कलकत्तासे खड़गपुर पहुँच जाते। फिर वहाँ सत्संगकी चर्चा होती। फिर सब अपने-अपने स्थानोंको चले जाते। कलकत्तामें प्रारम्भमें इनका प्रवचन १७४, हरिसन रोडमें होता। श्रीआत्मारामजी खेमकाकी गद्दीमें श्रीसेठजी सोया करते, वही सत्संग कराते। श्रीहीरालालजी गोयन्दकाके पिताजी श्रीसूरजमलकी दुकान मनोहरदास कटरामें थी, वहाँ भी सत्संग होता था। प्रारम्भमें बीस-तीस व्यक्तियोंकी उपस्थिति रहती। रातमें आत्मारामजीकी गद्दीमें चार-पाँच प्रेमीजन सोते थे, ये रात्रिमें जगकर सबसे दो-दो घंटे अकेलेमें बात करते थे। इस तरह उस समय कलकत्ता जाते तो कई यात्रियोंमें रातभर जागकर सत्संगकी बातें करते थे। दिनमें लोगोंके घरोंमें जाकर सत्संगकी बातें सुनाते। धीरे-धीरे सत्संगियोंकी संख्या बढ़ने लगी और इसके लिये अन्य व्यवस्थाकी आवश्यकता हुई, तब बाँसतल्ला गलीमें 'गोविन्द-भवन' के नामसे एक स्थान किराये पर लिया गया। कलकत्तामें यह स्थान श्रीसेठजीके सत्संगका प्रधान केंद्र हो गया। उस समय हनुमानदासजी गोयन्दका श्रीआत्मारामजीके यहाँ नौकरी करते थे। जब श्रीसेठजी कलकत्ता जाते तो वे प्राय: दिन भर साथ रहते। उन्होंने आत्मारामजीको कह रखा था कि श्रीसेठजी जब कलकत्ता रहेंगे तो मैं काम नहीं करुँगा, उनके साथ ही रहूँगा।

उस समय ये साधकोंके पत्रोंका उत्तर अपने हाथसे लिखकर दिया करते थे। कई साधक इकट्ठे होकर उन पत्रोंके भावोंपर विचार–विमर्श करते। जैसे गीताजीके श्लोकोंके अर्थ निकाले जाते हैं, वैसे ही इनके लिखे शब्दोंके अर्थ निकालते। अधिक पत्र–व्यवहार श्रीहनुमानदासजी गोयन्दका, श्रीबद्रीदासजी गोयन्दकाका श्रीआत्मारामजी खेमका तथा श्रीज्वालाप्रसादजी कनोडिया आदिसे होता था। इनके पत्र लोग एक–दूसरेको रजिस्ट्रीसे पढ़नेके लिये भेजते तथा फिर वापस मँगा लेते। उस समय लोगोंकी श्रद्धा बहुत थी।



पुस्तक
*श्रीभाईजी–– एक अलौकिक विभूति*
गीता वाटिका प्रकाशन