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*गीताप्रेस संस्थापक सेठजी श्रीजयदयालजी गोयन्दका* *हरिजन बस्ती | श्रीसेठजी - Shri Sethji - Shri Jaydayal Goyandkaji

*गीताप्रेस संस्थापक सेठजी श्रीजयदयालजी गोयन्दका*

*हरिजन बस्तीमें आग*

श्रीसेठजी प्राय: प्रतिवर्ष चूरू जाया करते थे। एक बारकी बात है, वे चूरूमें थे, तभी हरिजनोंकी बस्तीमें आग लग गई। हरिजनोंके सारे झोपड़ें जलकर भस्म हो गये। अपने बाल–बच्चोंको आश्रय देना भी हरिजनोंके लिये विकट प्रश्न बन गया। इस विपन्नवस्थाकी जानकारी श्रीसेठजीको मिली। उनका नवनीत–सा हृदय द्रवित हो गया। उन्होंने तुरन्त हरिजनोंके लिये नये झोपड़ें बनवानेकी व्यवस्था कर दी। नवीन झोपड़ियोंके बन जानेपर हरिजन पुन: सुखपूर्वक अपना जीवन व्यतीत करने लगे।

ऐसा कहा जाता है कि जब दु:खके दिन आरम्भ होते हैं तो उनकी श्रृंखला शीघ्र समाप्त नहीं होती। हरिजनोंके दुर्भाग्यकी बात क्या कही जाय ? श्रीसेठजीने जिन नवीन झोपड़ियोंको बनवाया था उनमें फिर आग लग गई। वे हरिजन पुन: आश्रय–विहीन हो गये। ज्योंहि श्रीसेठजीको यह ज्ञात हुआ कि आग लग जानेसे हरिजन पुन: घरबार–रहित हो गये हैं, श्रीसेठजीने असीम उदारतासे पुन: झोपड़ियां बनवा दी। हरिजनोंका हृदय अत्यधिक कृतज्ञतासे भर गया।
पर हाय रे दुर्भाग्यकी श्रृंखला ! झोपड़ियोंमें फिर आग लग गई और हरिजन फिर आश्रय–विहीन हो गये। अब वे किस मुँहसे श्रीसेठजीको अपना दु:ख–दर्द सुनायें ? हरिजन भले ही न कहें,पर श्रीसेठजी तक उनके दु:खकी गाथा पहुँच गयी। श्रीसेठजीने अपनी असीम उदारतावश सहज ही कहा कि उन हरिजनोंके लिये फिरसे नवीन झोपड़ियाँ बनवा देनी चाहिये। ऐसा कहते ही किसी स्वजनने कहा कि भगवान् को यह स्वीकार नहीं है कि हरिजन किसी आवास–आश्रयमें रहे, इसलिये तो उनके लिये बनी झोपड़ियोंमें बार–बार आग लग जाती है। अत: हरिजनोंके लिये नवीन झोपड़ियोंको नहीं बनवाना चाहिये।
इसपर परम भक्त श्रीसेठजीने उत्तर दिया––भगवान् क्या चाहते हैं और क्या करते हैं, इसे देखना हमारा काम नहीं है। हमारा कर्तव्य है कि अपनी दृष्टि ठीक लक्ष्यपर रखें तथा संकटग्रस्त हों उनकी यथाशक्ति उत्साहपूर्वक सहायता करें। यह तो भगवान् हमें सेवाका अवसर प्रदान कर रहे हैं, ऐसा मानना चाहिये।

स्वजन आगे कुछ नहीं बोल सके। अपने निश्चयानुसार श्रीसेठजीने हरिजनोंके लिये पुन: झोपड़ियाँ बनवा दी। इस बार उनके आवासोंमें आग नहीं लगी और वे श्रीसेठजीके उपकारको न भूलकर सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करने लगे।

*अहिंसा प्रचार*

जब श्रीसेठजीको पता लगा कि चमड़ेके जूते बनानेके लिये गाय–बछड़ोंकी हिंसाकी जाती है तो उन्होंने चमड़ेके जूते न पहननेका व्रत ले लिया। पहने हुए जूते भी वहीं छोड़ दिये। उन दिनों बिना चमड़ेके जूते सरलतासे मिलते नहीं थे अतः काफी दिनों तक श्रीसेठजी नंगे पैर ही घूमते रहे। फिर बड़ा प्रयत्न करके ऐसे जूतोंके निर्माणकी व्यवस्थाकी जिनमें चमड़ेका प्रयोग न हो।
इसी प्रकार पहले लाखकी चूड़ियाँ बनती थी, जिनके उत्पादनमें कीड़ोंकी हत्या होती थी। श्रीसेठजीका अहिंसक हृदय इस बातको सहन नहीं कर सका। उन दिनों मारवाड़ी समाजमें लाखकी चूड़ियाँ पहनना सौभाग्य–रक्षाका प्रतीक माना जाता था। श्रीसेठजीने अपने प्रवचनोंसे इस धारणाका उन्मूलन किया उसके स्थानपर जहाँ काँचकी चूड़ियाँ बनती थी, उन स्थानोंसे चूड़ियाँ प्राप्त करनेका प्रयास किया गया। कुछ समय बाद कलकत्तेमें गोविन्द–भवनकी दुकानमें चर्म रहित जूते–चप्पल तथा काँचकी चूड़ियोंके विक्रयकी व्यवस्था हो गई।

पुस्तक
*श्रीभाईजी–– एक अलौकिक विभूति*
गीता वाटिका प्रकाशन