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*गीताप्रेस संस्थापक श्रीसेठजी श्रीजयदयालजी गोयन्दकाका संक्षिप् | श्रीसेठजी - Shri Sethji - Shri Jaydayal Goyandkaji

*गीताप्रेस संस्थापक श्रीसेठजी श्रीजयदयालजी गोयन्दकाका संक्षिप्त जीवन–परिचय*

*प्रयाग–कुम्भके गीता–ज्ञान–यज्ञ में*

कुम्भके समय तीर्थराज प्रयागमें लाखों लोग दूर–दूरसे एकत्रित होते हैं। भगवान्नाम–प्रचारका सुन्दर अवसर समझकर श्रीसेठजीके परामर्शसे वहाँ गीता–ज्ञान–यज्ञका आयोजन किया गया। माघ सं. १९८६ में वे स्वयं भी पधारे तथा भाईजी श्रीहनुमान प्रसाद पोद्दार भी वहाँ पहुँचे हुए थे। दिनमें श्रीसेठजीका प्रवचन होता। गीता प्रदर्शनीका भी आयोजन किया गया था। पं. जवाहरलाल नेहरुकी माताजी श्रीमती स्वरूपरानी नियमित रूपसे सम्मिलित होती थीं। आयोजन सफल रहा।

भाईजीकी एकान्तमें गंगा–तटपर रहनेकी लालसा प्रबल थी। वे श्रीसेठजीको बराबर पत्र लिखकर अनुमति माँगा करते थे। उत्तरमें श्रीसेठजीने पौष शुक्ल ४, सं. १९८६ को बाँकुड़ासे लिखा–– "तुमने लिखा मेरे द्वारा अधिक दिन काम होना कठिन–सा है। ……तुम्हारे जानेके विषयमें क्या लिखूँ ? मुझे तो 'प्रेस' और 'कल्याण' से संसारमें बहुत लाभ दीख रहा है। मेरी बुद्धिके अनुसार तुम्हें तो ही एकान्तमें रहकर काम देखना चाहिये। …… यदि मेरा और तुम्हारा प्रयाग जाना हो जाय तो वहाँपर एकान्तमें सब बातें की जा सकती है।

प्रयागमें जब दोनों मिले तो सारी व्यवस्था ठीक करके माघ कृष्ण ३०, सं. १९८६ को जब श्रीसेठजी बाँकुड़ा जाने लगे तो भाईजीने एकान्तमें बात करके अपनी हार्दिक लालसा उनके सामने रखी। श्रीसेठजीने बहुत प्रेमसे कहा–– मुझे तो गोरखपुरके महान् कार्यको छोड़कर कहीं जानेकी बिल्कुल नहीं जँचती है। तुम्हारा इतना आग्रह है तो तुम्हारी प्रबल इच्छाको रोकना उचित न समझकर कुछ दिनोंके लिये तुम्हें छुट्टी दी जा सकती है। पर 'रामायणांक' के सम्पादनकी जिम्मेवारी तुम्हारी है, तुम चाहे जहाँ रहकर कर सकते हो। भाईजी उनकी बातका पूरा आदर करते थे और एकान्तकी बात टल गई।

पुस्तक
*श्रीभाईजी–– एक अलौकिक विभूति*
गीता वाटिका प्रकाशन