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*गीताप्रेस संस्थापक श्रीसेठजी श्रीजयदयालजी गोयन्दकाका संक्षिप् | श्रीसेठजी - Shri Sethji - Shri Jaydayal Goyandkaji

*गीताप्रेस संस्थापक श्रीसेठजी श्रीजयदयालजी गोयन्दकाका संक्षिप्त जीवन–परिचय*

*परिवार*
श्रीसेठजीके तीन भाई और तीन बहने थी श्रीसेठजीसे छोटे भाई श्रीहरिकृष्णदासजी बड़े ही धर्मनिष्ठ एवं विद्वान थे। उन्होंने धर्मग्रन्थोंका अच्छा अध्ययन किया था। संस्कृतका भी अच्छा ज्ञान था। संस्कृतके कई ग्रन्थोंका हिंदीमें अनुवाद किया, जो गीताप्रेससे प्रकाशित हुए। कुछ समय व्यापारके कार्योंमें लगाकर अधिक समय वे स्वाध्यायमें लगाते थे। इनसे छोटे श्रीशिवदयालजी थे। उनका देहावसान सं. २००० में चूरूमें हो गया। सबसे छोटे भाई श्रीमोहनलालजीका जन्म आषाढ़ शुक्ल ७ सं. १९६५ (६ जुलाई सन् १९०८) को चूरूमें हुआ। सभी भाइयोंको सादगी तथा सत्यपरायणताके संस्कार पिताजीसे प्राप्त हुए थे। श्रीसेठजीके कोई संतान न होनेसे तब मोहनलालजी ८ वर्षके थे तभी उन्होंने गोद ले लिया। इनका अध्ययन रतनगढ़के ऋषिकुल ब्रह्मचर्याश्रममें हुआ। सन् १९२६ में स्नातक बनकर चूरु आये। सन् १९२७ में विवाह हुआ। तीन – चार महीने बाद ही पत्नीका देहान्त हो गया। घरवालोंके विशेष दबाव होनेसे और गाँधीजीका संकेत मिलनेसे सन् १९२७के मध्यमें पुन: विवाह हो गया–– श्रीमोहनलालजी झुनझुनवालाकी पुत्री सावित्रीबाईके साथ। पहले ये खादीके व्यवसायमें लगे। गाँधीजीसे प्रभावित होकर ये बिना किसीको बताये घरसे निकल गये। गाँधीजीने घर लौटनेकी राय दी। कई महीने बाद घर आ गये। १९ वर्षकी उम्रमें बाँकुड़ा आकर अपने मामाजीकी अनाजकी दुकानमें व्यापार सँभालना शुरू किया। करीब तीन वर्ष अनाजका व्यापार करनेके बाद सन् १९३२ में भाइयोंको राजी करके 'जयदयाल हरिकृष्ण' के नामसे सूतका व्यापार शुरु किया। इस समय परिवारकी स्थिति साधारण थी। फिर सूत रँगनेका काम प्रारम्भ किया। थोड़े समय बाद एक बनियान बनानेकी फैक्टरी लगाई। सन् १९३७-३८ के करीब श्रीसेठजी व्यवसायसे पूर्ण अवकाश ग्रहण कर चुके थे। १९३८ में श्रीकृष्णदासजीकी लड़की शान्ता, जो केवल २२ वर्षकी थी, विधवा हो गई––परिवारमें शोककी लहर दौड़ गई। उसी वर्ष मोहनलालजीका दूसरा लड़का ईश्वर चला गया। इनका धैर्य देखने योग्य था, सबको धैर्य बँधाते थे। सन् १९४० में 'गोयनका ट्रस्ट' की स्थापनाकी तथा अधिकांश व्यापार ट्रस्टमें ही करने लगे। आयसे जनताकी सेवा करना ही लक्ष्य हो गया। व्यापारमें असत्यका प्रयोग इन्हें भी पसन्द नहीं था। सन् १९४९ के अन्तमें श्रीहरिकृष्णदासजीकी पत्नीका निधन हो गया। परिवारकी भलाई तथा आपसी प्रेम बना रहे, इस बातको ध्यानमें रखकर मोहनलालजीने अपने दोनों बड़े भाइयोंके सामने कुटुम्बके आर्थिक बँटवारेका प्रस्ताव रखा। बँटवारेके समय प्रमुख अर्थोपार्जन करनेवाले होनेपर भी उन्होंने अपने लिये कोई हिस्सा नहीं लिया। सब काम प्रेमपूर्वक इस प्रकार तय किया कि वर्षों बाद भी लोगोंको इसका पूरा पता नहीं लग पाया। लोकोपकारी कार्योंमें भी श्रीमोहनलालजी पूर्ण रुचि रखते थे। बाँकुड़ामें काफी रुपया खर्च करके 'गोयनका विद्यायतन' नामक एक उच्च श्रेणीके विद्यालयका निर्माण किया। बाँकुड़ा जिलेमें अन्य तीन स्थानोंपर भी उच्च श्रेणीके विद्यालय स्थापित किये। बाँकुड़ाके दक्षिणमें द्वारकेश्वर नामकी बड़ी नदी है, उसपर पुल न होनेसे वर्षा ऋतु तथा गर्मीमें जनताको बहुत असुविधाका सामना करना पड़ता था। बहुत ही बड़ी धनराशि व्यय करके इन्होंने कुमारघाट नामक स्थानपर एक उत्कृष्ट पुलका निर्माण करा दिया। चक्षुदानके केंद्रोंका आयोजन एवं दुर्भिक्षके समय प्रचुर सहायता आदि कार्य तो करते ही रहते थे।


पुस्तक
*श्रीभाईजी–– एक अलौकिक विभूति*
गीता वाटिका प्रकाशन