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* गीताप्रेस के संस्थापक श्रीसेठजी श्रीजयदयालजी गोयन्दकाका संक् | श्रीसेठजी - Shri Sethji - Shri Jaydayal Goyandkaji

* गीताप्रेस के संस्थापक श्रीसेठजी श्रीजयदयालजी गोयन्दकाका संक्षिप्त जीवन–परिचय*

*गीताप्रेसकी स्थापना*

स्वयं भगवान् की वाणी होनेसे पिताजी प्रारम्भसे ही श्रीसेठजीको बहुत प्रिय थी इसका स्वाध्याय वे बहुत मनपूर्वक करते। स्वाध्याय करते समय जब वे अध्याय १८ की श्लोक–संख्या ६८–६९का मनन करते, जिसमें भगवान्ने कहा है––जो पुरुष इस रहस्ययुक्त गीताशास्त्रका मेरे भक्तोंमें प्रचार करेगा उससे बढ़कर मेरा कोई मेरा प्रिय कार्य करनेवाला मनुष्योंमें न कोई है और न उससे बढ़कर कोई होगा–– तब इनके मनमें आता कि मैं भी ऐसा ही बनूँ। इन्होंने निश्चय किया कि स्वयं अपना जीवन गीताके अनुसार बनानेपर ही ऐसा संभव है। उन्होंने स्वयं तत्परतापूर्वक लगकर पहले अपना स्वयंका जीवन वैसा ही बनाया। थोड़े ही समयमें ये गीताजीके सिद्धान्तोंके ज्वलंत उदाहरण बन गये। उसके पश्चात् ये स्थान-स्थान घूमकर गीताके भावोंका प्रचार करने लगे। उसके लिए आवश्यकता थी शुद्ध पाठवाली गीता पुस्तककी, जो उस समय उपलब्ध नहीं थी। श्रीसेठजीने अपने भावानुसार उसकी व्याख्या लिखकर कलकत्ताके वणिक प्रेस से पाँचहजार पुस्तकोंका संस्करण छपवाया। सावधानी रखनेपर भी पुस्तकमें मुद्रणकी भूलोंको देखकर उनका मन खिन्न हो गया। दूसरे संस्करणमें भी चेष्टा करनेपर भी भूलोंका सर्वथा अभाव नहीं हो सका। तब इन्होंने सोचा, जबतक अपना प्रेस न हो तबतक यह काम सम्भव नहीं है। यद्यपि उनका व्यापार बांँकुड़ामें था, पर ये सत्संगके प्रचार हेतु घूमते रहनेके कारण किसी एक स्थानपर अधिक समय नहीं रह पाते थे। अतः समस्या थी कि प्रेसकी स्थापना कहाँकी जाय ? श्रीघनश्यामदासजीने सुझाव दिया कि यदि प्रेसकी स्थापना गोरखपुरमें की जाय तो उसकी व्यवस्थाका कार्य मैं अपनी व्यापारके साथ सँभाल सकता हूँ श्रीसेठजीको सुझाव ठीक लगा और गोरखपुरमें प्रेस खोलनेका निश्चय हो गया।

सन १९२२में श्रीसेठजीने सत्संग प्रचार हेतु गोविंद भवन कार्यालयके नामसे एक ट्रस्ट सोसायटी रजिस्ट्रेशन एक्टके अंतर्गत पंजीकृत कराया। इसी ट्रस्टके अंतर्गत गीताप्रेसकी स्थापना मई सन् १९२३में गोरखपुरमें हुई। प्रारम्भमें उर्दू बाजारमें दस रुपये मासिक किरायेपर मकान लेकर उसमें सर्वप्रथम हैंड प्रेस प्रिंटिंग मशीन खरीदकर सितंबर सन् १९२३ में कार्य आरम्भ हुआ। इससे मुद्रण सुन्दर न होनेपर २२ अक्टूबर सन् १९२३ को सबसे पहले एक ट्रेडिल मशीन दो हजार रुपयेमें खरीदी गई और उसी मकानमें लगायी गयी। इससे भी कार्यमें समुचित प्रगति न होनेपर १० जनवरी १९२४ को सात हजारमें २०-३० इंच साइजकी पैन–फ्लेट–बेड सिलिंडर मशीन खरीदी गयी। इससे गीताके मुद्रणमें सुविधा हो गई और गीताके छोटे-बड़े कई संस्करण प्रकाशित होने लगे। किरायेका स्थान बहुत छोटा होनेसे अपना मकान खरीदनेकी आवश्यकता प्रतीत हुई एवं वर्तमान गीताप्रेसका पूर्वी खण्ड दस हजार रुपयेमें १२ जुलाई १९२६ को खरीदा गया। उस समय तो वह मकान आवश्यकतासे अधिक बड़ा लगता था, पर कार्यका विस्तार होनेसे थोड़े समय बाद वह स्थान भी छोटा लगने लगा। अतः आवश्यकतानुसार उसी मकानके बगलमें क्रमशः और भी जमीन खरीदी गयी और विस्तार होता गया। गीताजीके अतिरिक्त श्रीसेठजी भाईजी द्वारा लिखित पुस्तकें, रामचरितमानसके विभिन्न संस्करण, 'कल्याण' अन्य संतोंकी पुस्तकें भी प्रकाशित होने लगी। श्रीसेठजीके जीवन –कालमें लगभग पाँच सौ विभिन्न आकार–प्रकारकी पुस्तकें प्रकाशित होकर दैवी–सम्पदाका प्रचार–प्रसार करने लगी थी। धीरे-धीरे विस्तार करते हुए विभिन्न आकारोंकी बीस स्वचालित मशीनें लग गई थीं। इसके अतिरिक्त फोल्डिंग मशीनें, सिलाई मशीनें, कटिंग मशीनें अलग थीं। इतने बड़े कार्यके सम्यक संचालनके लिये अर्थकी समुचित व्यवस्था होना परमावश्यक था। इस दृष्टिसे श्रीसेठजीकी सूझ-बूझ तथा दूरदर्शिताकी जितनी प्रशंसाकी जाय वह कम ही होगी। श्रीभाईजी जैसे अभिन्न सहयोगीके मिल जानेसे कार्यकी प्रगतिमें चार चाँद लग गये। श्रीसेठजीने प्रारम्भसे ही अनुभव किया कि चन्दे या दानपर चलने वाली संस्थाओंका जीवन सुदीर्ध नहीं होता। चन्देपर निर्भर रहनेसे न तो आयका स्थायी स्त्रोत रहता है, न उनके सिद्धान्त सदैव स्थिर रहते हैं। दानदाता अर्थके बलपर संस्थाकी नीतिको प्रभावित करते हैं। इसलिये इन विभूतिद्वयने प्रारम्भसे ही ऐसी नीति अपनायीकि अर्थकी दृष्टिसे गीताप्रेसकी आधारशिला दृढ़ रहे। साथ ही पुस्तकोंको लागतसे भी कम मूल्यपर उपलब्ध कराना था, जिससे वे सस्ती रहनेसे प्रचार अधिकाधिक होता रहे। इन सपनोंको साकार करनेके लिये टीटागढ़ पेपर मिलसे कागजकी एजेंसी ली गई। साथ ही अहिंसाके व्यवहारिक प्रचारके लिये चर्मरहित जूतोंकी दुकान, लाखरहित चूड़ियोंकी दुकान तथा आयुर्वेदिक औषधियोंकी दुकान कलकत्तेमें गोविन्द–भवनमें खोली गयी। इस अर्थनीतिका परिणाम था कि गीताप्रेसकी प्रगतिके लिये कभी किसीके सामने हाथ नहीं फैलाया गया। 'न लाभ, न हानि' के सिद्धान्तको स्वीकार करनेपर जब कार्यका विस्तार हुआ तो घाटा