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*ॐ श्री परमात्मने नमः* *अभिमान छोड़कर भगवान्‌की शरण हो जाये | श्रीसेठजी - Shri Sethji - Shri Jaydayal Goyandkaji

*ॐ श्री परमात्मने नमः*

*अभिमान छोड़कर भगवान्‌की शरण हो जायें । अपना कुछ अलग न रखें । अन्य किसीका आश्रय न रखें । शरणागति नींद लेनेकी तरह बहुत सुगम है, पर अभिमानीके लिये कठिन है । जीव स्वतः परमात्माका है, अतः आश्रय लेना इसका स्वभाव है ।*

*भक्तोंपर भगवान्‌का विशेष प्रेम है । भक्तको भगवान्‌की सेवामें आनन्द आता है और भगवान्‌को भक्तकी सेवामें आनन्द आता है ।*

*भगवान् हमारेसे दूर नहीं रह सकते । वे सदा हमारे साथ हैं और सदा हमारे साथ रहेंगे‒यह बात आप आज ही स्वीकार कर लें । भगवान् हमारे भीतर हैं‒यह हमारे पास सबसे बड़ा गुप्‍त खजाना है । हमारे कण-कणमें भगवान् विराजमान हैं । यदि इस बातको आप भूल जाते हैं तो इसे भगवान्‌के कोषमें जमा कर दो कि ‘हे नाथ ! मैं इस बातको भूल जाऊँ तो आप याद करा देना ।’*

*कोई काम करना हो तो मनसे भगवान्‌को देखो । भगवान् प्रसन्‍न दीखें तो वह काम करो और प्रसन्‍न न दीखें तो वह काम मत करो । यह एक गुप्‍त साधन है । एक-दो दिन करोगे तो पता चलने लगेगा ।*

*परमात्माकी प्राप्‍तिके बिना मनुष्यशरीर किसी कामका नहीं है ।*

*मनुष्यशरीरकी उम्र श्‍वासोंपर निर्भर है, वर्षोंपर नहीं । जैसे, घड़ी चाबीपर निर्भर होती है । श्‍वासोंकी गिनती पूरी होते ही मरना पड़ेगा । भोग भोगते समय श्‍वास तेजीसे चलते हैं, जिससे आयु जल्दी समाप्‍त हो जाती है । भोग भोगनेसे शरीर जल्दी मरता है । एक दिनमें २१,६०० श्‍वास नष्‍ट हो रहे हैं, रोज कितना घाटा लग रहा है, पर इस घाटेकी पूर्ति नहीं हो सकती । वास्तवमें हम जी नहीं रहे हैं, प्रत्युत मर रहे हैं । जिस मौतसे सभी डरते हैं, वह मौत प्रतिक्षण समीप आ रही है । कहते हैं कि रुपयोंसे सब कुछ मिलता है, पर उम्र भी मिलती है क्या ?*

*कल्याण करनेवाली तात्त्विक बातें मुझे पुस्तकोंसे नहीं मिली हैं, सन्तोंसे मिली हैं । सन्तोंसे मिलनेके बाद फिर पुस्तकोंसे मिली हैं ।*

*इस समय पापोंकी लहर चली है । पतनका मौका आया है, अतः सावधान रहकर इससे बचो ।*

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*श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज*
_(‘सागरके मोती’ पुस्तकसे)_

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*संतवाणी*
*श्रद्धेय स्वामीजी श्रीशरणानन्दजी महाराज*
_(‘मंगलमय विधान’ पुस्तकसे)_

*जो नहीं करना चाहिए तथा जिसे नहीं कर सकते, इसका ज्ञान मानवको विधानसे प्राप्त है । इस विधानका आदर करनेपर अशुद्ध तथा अनावश्यक कर्म मिट जाते हैं कारण कि जो नहीं करना चाहिए उसके नहीं करनेपर अशुद्ध कर्म नहीं रहते और जो नहीं कर सकते उन संकल्पोंका त्याग करनेपर अनावश्यक कार्य जमा नहीं रहते । उसका परिणाम यह होता है कि जो कर सकते हैं और जो करने योग्य है वह कार्य पूरा हो जाता है । कार्यकी पूर्ति होनेपर यदि कर्तामें कर्मकी फलासक्ति नहीं है तो अपने-आप विश्रामकी अभिव्यक्ति होती है । अनावश्यक कार्यका जमा रखना, न करने योग्य कार्य करना तथा कर्त्तव्य-कर्ममें फलासक्ति रखना विश्राममें बाधक है । विश्राम ही में आवश्यक सामर्थ्यकी अभिव्यक्ति, विचारका उदय एवं प्रीतिकी जागृति स्वतः होती है, जो विकासका मूल है । विश्रामके सम्पादनमें मानव असमर्थ तथा पराधीन नहीं है । विश्रामके सम्पादनकी स्वाधीनता मानवको विधानसे मिली है । पर विधानके अनादरसे ही आज मानव विश्राम-प्राप्तिमें भी अपनेको असमर्थ तथा परतन्त्र मान बैठा है ।*

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