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*गीताप्रेस संस्थापक श्रीसेठजी श्रीजयदयालजी गोयन्दकाका संक्षिप् | श्रीसेठजी - Shri Sethji - Shri Jaydayal Goyandkaji

*गीताप्रेस संस्थापक श्रीसेठजी श्रीजयदयालजी गोयन्दकाका संक्षिप्त जीवन–परिचय*

*गीताकी तत्व–विवेचना टीका*
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराज वैसे तो सर्वप्रथम श्रीसेठजीसे श्रीगम्भीरचन्दजी दुजारीकी प्रेरणासे मार्गशीर्ष कृष्ण २ सं. १९९१ को चुरूमें मिले थे। पर इनका विशेष आकर्षण श्रीसेठजीके प्रति सं. १९९३ के चतुर्माससे हुआ। सन् १९३६ में स्वामीजी श्रीचक्रधरजी महाराज(श्री राधा बाबा), स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजके पास गोविन्द–भवन कलकत्तामें जाया करते थे। गोविन्द–भवन उन दिनों बाँसतत्ला गलीमें था। एक दिन श्रीरामसुखदासजी महाराज श्रीसेठजीके कुछ पत्र एक साधकको सुना रहे थे। श्रीराधा बाबा भी वहीं बैठे सुन रहे थे। एक पत्र सुनकर बाबाके मनमें आया कि बिना स्वरूपानुभूति कि ऐसा पत्र लिखा ही नहीं जा सकता। उन्होंने स्वामीजीसे पूछा––यह पत्र किसका लिखा हुआ है तथा वे कहाँ रहते हैं ? स्वामीजीने बताया यह पत्र श्रीसेठजीका है एवं वे बाँकुडा में रहते हैं। बाबाने कहा––मैं इनसे मिलना चाहता हूँ स्वामीजीको प्रसन्नता हुई कि एक प्रतिभा––सम्पन्न युवक सन्यासीके मनमें श्रीसेठजीके प्रति आदरभाव जाग उठा है। उन्होंने सारी व्यवस्था करवायी तथा बाबा बाँकुड़ा पहुँच गये। बाबाने एकान्तमें श्रीसेठजीसे काफी बातचीतकी तथा उन्हें अपने अनुमानकी पुष्टि मिल गई । उनकी श्रद्धा श्रीसेठजीपर बढ़ गई। कई दिनोंतक बाबा भगवतत्त्वपर श्रीसेठजीके साथ विचार–विनिमय करते रहे। तीन–चार दिनों बाद श्रीसेठजीको सत्संगके लिये राँची जाना था। श्रीसेठजीके अनुरोधपर बाबा भी उनके साथ राँची गये। वहाँ भी परस्पर विचार–विनिमय चलता रहा। बाबा श्रीसेठजीकी स्वरुपानुभूतिपर और उनके चिन्तन–विवेचनपर मुग्ध थे। बाबाको लगा कि गीतापर श्रीसेठजीके जो भाव, विचार और अनुभव है, वे यदि लिपिबद्ध नहीं हुए तो जगत् दिव्यनिधिसे वंचित रह जायगा। उन्होंने श्रीसेठजीसे कहा––आप गीतासम्बन्धी अपने विचारोंको लिपिबद्ध करा दें। श्रीसेठजीने कहा––इसे कौन करें और कैसे होगा ? मैं तो शुद्ध हिन्दी भी ठीक प्रकारसे बोल–लिख नहीं पाता। बाबाने कहा––मेरा लेखन आपको रुचिकर हो तो यह कार्य मैं कर सकता हूँ। श्रीसेठजीके एक गीता–प्रवचनको बाबाने लिपिबद्ध करके दिखाया। बाबाकी अभिव्यक्ति–कुशलता, भाषा–अधिकार और विषय–प्रवेशको देखकर श्रीसेठजी प्रसन्न हो गये। बस, तभी यह तय हो गया कि गीताकी टीका लिखी जानी चाहिये और यह भी तय हुआ कि यह कार्य गोरखपुरमें आरम्भ होगा। श्रीसेठजीको अन्यत्र जाना था। अत: गोरखपुरसे पहुँचनेकी तिथि तय हो गयी। बाबाको गोरखपुरका रेल–टिकट दे दिया गया। श्रीसेठजीने उन्हें वहाँ भाईजीसे मिलनेको भी कहा। बाबा पहले पहुँच गये, अत: वे भाईजीके निवास–स्थान 'गीता-वाटिका' जाकर उनसे मिले तथा वहीं ठहर गये।
श्रीसेठजीके गोरखपुर पहुँचनेपर गीताकी टीका लिखनेका कार्य आरम्भ हो गया। विद्वद–गोष्ठीमें पहले गीताजीके श्लोकके अर्थपर विचार किया जाता। यह विचार–गोष्ठी प्रतिदिन बैठती। इस गोष्ठीमें रहते श्रीसेठजी, स्वामी रामसुखदासजी महाराज, पूज्य बाबा, श्रीसेठजीके छोटे विद्वान भ्राता श्रीहरिकृष्णदासजी आदि। भाईजी भी कभी–कभी सम्मिलित हो जाते थे। कुछ समय तक पं.शान्तनुबिहारीजी द्विवेदी भी सम्मिलित रहे। बाबाका कार्य था, इस गोष्ठीमें गीताजीके श्लोकोंपर भिन्न–भिन्न आचार्योंके मतोंको बतलाना। तदुपरान्त श्लोकोंमें निहित रहस्यपर परस्परमें विचारोंका आदान–प्रदान होता। इस रहस्य–मन्थनमें श्रीसेठजीका मत ही निर्णयके रूपमें मान्य रहता। श्रीसेठजीके इन विचारोंको बाबा लिपिबद्ध करते। लिपिबद्ध सामग्रीमें आवश्यक संशोधन भाईजीके द्वारा होता। सत्संगके लिये श्रीसेठजीको प्राय: यत्र–तत्र जाना ही पड़ता था। अत: इस भ्रमणमें भी विचार–गोष्ठीमें भाग लेनेवाले यथासंभव साथ जाते। इस प्रकार निरन्तर तत्परतापूर्वक संलग्न रहनेके बाद लगभग ढाई वर्षमें यह कार्य सम्पन्न हुआ। लेखन–कार्यकी सम्पन्नता अप्रैल १९३९ में बाँकुड़ामें हुई, उस समय भाईजी भी वहीं थे। श्रीसेठजीके जीवनकी यह तत्त्व–निधि सर्वप्रथम 'कल्याण' के १४ वें वर्षके विशेषांक 'गीता–तत्त्वांक' के नामसे सन् १९४० में प्रकाशित हुई। बादमें श्रीसेठजी द्वारा आवश्यक संशोधनके पश्चात् ग्रन्थरूपसे 'गीता–तत्त्व–विवेचनी' के नामसे गीताप्रेससे प्रकाशित हुई।


पुस्तक
*श्रीभाईजी–– एक अलौकिक विभूति*
गीता वाटिका प्रकाशन