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*गीताप्रेस संस्थापक श्रीसेठजी श्रीजयदयालजी गोयन्दकाका संक्षिप् | श्रीसेठजी - Shri Sethji - Shri Jaydayal Goyandkaji

*गीताप्रेस संस्थापक श्रीसेठजी श्रीजयदयालजी गोयन्दकाका संक्षिप्त जीवन–परिचय*
*तीर्थ यात्रा*
सन १९३८ के लगभग गीताप्रेसकी ओरसे एक तीर्थयात्रा ट्रेन निकली थी। लगभग तीन महीनेतक सब तीर्थोंकी यात्रा हुई। श्रीसेठजी भी साथमें थे। उनकी खान-पानकी पवित्रता एवं निष्ठा सिद्ध थी। वे खान-पानकी वस्तुमें पवित्रता एवं व्यक्तियों तथा पात्रोंकी शुद्धिपर बड़ा ध्यान रखते थे। आपने इस निष्ठाके कारण वे चाहे जहाँका भोजन एवं जल स्वीकार नहीं करते थे, चाहे वह भगवत्प्रसाद ही क्यों न हो। कई बार ऐसे प्रसंग उपस्थित हो जाते थे, जहाँ प्रसादकी मर्यादा तथा आपसी व्यवहारका निर्वाह करना पड़ता था, वहाँ वे, अपनी व्यवहार–कुशलतासे प्रसादकी मर्यादाका निर्वाह करते हुए––बिना किसीका चित्त दुखाये अपनी आचार–निष्ठाको अक्षुण्ण रखते थे। एक बार एक मन्दिरमें दर्शन करने गये। दर्शन करके बाहर निकल रहे थे तो पुजारी भगवान् का चरणामृत देनेके लिये दौड़कर उपस्थित हुए। चरणामृत होनेसे श्रीसेठजीने हाथमें ले लिया तथा मुँहमें न लेकर सिरपर डाल लिया। साथवाले लोग इनकी निष्ठा देखकर मुग्ध हो गये। साथ रहनेवालोंको इस प्रकारके निष्ठा निर्वाहको देखनेके कई उदाहरण मिलते थे।

तीर्थयात्रा करते समय साथवालोंके आग्रहके कारण श्रीसेठजी भावनगरका राजमहल देखने गये। वहाँ उस समय राजा तो थे नहीं, परन्तु स्वागत–सत्कारका पूरा प्रबन्ध था। कार्यकर्ताओंने श्रीसेठजी से खाने–पीनेके लिये बहुत आग्रह किया। श्रीसेठजी उत्तर देते रहे––मैं अभी भोजन करके आया हूँ, भूख नहीं है। अन्ततः वे लोग जल पीनेके अनुरोधपर अड़ गये। श्रीसेठजी बार–बार एक ही उत्तर देते––भूख नहीं है। वहाँसे लौटनेपर एक महानुभावने सेठजीसे पूछा––वे लोग आग्रह कर रहे थे जल पीने को और आप उत्तर देते रहे 'भूख नहीं है'। इसका क्या रहस्य है ? श्रीसेठजीने बताया––उस समय मुझे प्यास लगी हुई थी और वहाँका जल पीना नहीं था, क्योंकि शुद्धताका पता नहीं, तब मैं यह कैसे कह देता कि प्यास नहीं है। वे अपने वाक्–कौशलसे बिना वहाँके लोगोंका चित्त दुखाये बच आये।

तोताद्रिमें यात्रियोंने वहाँकी अभिषेक–तेलकी महिमा सुनकर टीन भरकर ट्रेनमें रख लिये। वहाँ तेलकी कोई कीमत नहीं ली जाती। श्रीसेठजीको यह बात ज्ञात होनेपर सबको डाँटा और कहा यह प्रसादकी मर्यादाके विपरीत है, अन्याय है, बेईमानी है। सबसे कीमत वसूल ली गई और सैकड़ों रुपये मंदिरमें जमा कराये गये। उनकी न्यायनिष्ठा आदर्श थी। मार्गमें रेलवे–कर्मचारियोंको पुरस्कार तो दिलवा देते थे, परन्तु घूस देनेको मना करते थे। तीर्थोंके प्रति श्रीसेठजीकी विशेष रूचि नहीं थी। उनका मुख्य उद्देश्य सत्संग–प्रचारका था। प्रत्येक स्टेशन एवं शहरमें श्रीसेठजीका प्रवचन होता। उसकी व्यवस्था करनेके लिये कुछ लोग अग्रिम पहुँच जाते थे। श्रीरमण महर्षिका दर्शन करने श्रीसेठजी गये तथा ध्यानके विषयमें उनसे बात की। यात्रामें श्रीसेठजी कई स्थानोंपर वहाँके विद्वानोंको बुलाते, उनका बड़ा आदर–सत्कार करते और दक्षिणा देते।


पुस्तक
*श्रीभाईजी–– एक अलौकिक विभूति*
गीता वाटिका प्रकाशन