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*गीताप्रेस संस्थापक श्रीसेठजी श्रीजयदयालजी गोयन्दकाका संक्षिप् | श्रीसेठजी - Shri Sethji - Shri Jaydayal Goyandkaji

*गीताप्रेस संस्थापक श्रीसेठजी श्रीजयदयालजी गोयन्दकाका संक्षिप्त जीवन–परिचय*

*श्रीशान्तनुबिहारीजी द्विवेदी (स्वामी अखण्डानन्दजी)से वार्तालाप*

श्रीशान्तनुबिहारीजी द्विवेदी जो सन्यासके पश्चात् स्वामी अखण्डानन्दजीके नामसे विख्यात हुए––'कल्याण'में प्रकाशित लेखोंसे प्रभावित होकर सम्वत १९९३ में भाईजीके पास रहनेके लिये गोरखपुर आ गये। 'कल्याण' के सम्पादकीय विभागमें काम करने लगे, साथ ही साधन–भजनमें विशेष रूचि लेने लगे। भाईजीमें तो विशेष श्रद्धा थी ही, श्रीसेठजीमें भी अच्छी श्रद्धा थी। सेठजीसे कई बार एकान्तमें समय माँगकर बातें किया करते थे।
एक दिन उन्होंने श्रीसेठजीसे पूछा–– आपके गुरु कौन है ? श्रीसेठजीने कहा––मैं स्वामी मंगलनाथजीको गुरुतुल्य मानता हूँ। पहले तो उनपर सोलह आना श्रद्धा थी, बादमें जब वे गोशालाके मुकदमेमें पड़ गये तो श्रद्धा दो पैसे कम हो गई। निर्गुणविषयक उनका और हमारा सिद्धान्त एक ही है। ब्रह्म–साक्षात्कारके लिये अद्वैत वेदान्त सर्वथा आवश्यक है। श्रीशंकराचार्यजीपर भी साढ़े पन्द्रह आने श्रद्धा बताई। कारण पूछा तो कहा श्रीशंकराचार्यजीने तत्त्वज्ञानके लिये कर्मत्याग करके संन्यास–ग्रहणकी जो अनिवार्य आवश्यकता बतलायी है, वह मुझे मान्य नहीं है, और बातें मैं मानता हूँ। श्रीसेठजीका स्वाभाव ऐसा था कि वे वेदशास्त्र, पुराणकी किसी बातको न अनुचित बताते थे और न ही खण्डन करते थे। उनकी बोलनेकी शैली थी––यह बात हमारे समझमें नहीं आयी, इस बातमें मेरी रुचि नहीं है। किसी भी विवादसे अपनेको अलग कर लेनेका उनमें अद्भुत कौशल था।

श्रीसेठजी कहीं भी सत्संग–प्रवचन करते तो अपनी संध्योपासनाका समय अवश्य बचा लेते थे। एक दिन उन्होंने बताया––जबसे मैंने यज्ञोपवीत ग्रहण किया है तबसे अबतक (लगभग पचास वर्षोंमें) कभी संध्योपासनामें अन्तर नहीं पड़ा। यथाशक्ति कालातिक्रमण भी नहीं किया, कर्मातिक्रमण की तो बात ही क्या है ? ट्रेनमें होनेपर समयपर मानसिक सन्ध्या करके बादमें क्रियारूपमें भी कर लिया करते थे। जल न मिलनेपर बालूसे भी अर्ध्य देनेका काम करना पड़ा। अपने धर्मका यह अपूर्व निर्वाह उनकी दृढ़निष्ठाका ही सूचक है।
श्रीसेठजी जब गीताजीकी टीका लिखा रहे थे तो श्रीद्विवेदीजी भी कुछ महीनोंके लिये उनके निवास–स्थान बाँकुड़ामें रहे थे। वहाँसे आनेके समय श्रीसेठजी और उनके विद्वान भ्राता श्रीहरिकृष्णदासजी उनसे बोले––पण्डितजी ! आपके घरमें लड़कीका विवाह होने वाला है। आप हमारी इस बर्तनकी दुकानके अन्दर चले जाइये और आपको जितना चाहिये उतना बर्तन छाँटकर अलग कर दीजिये। हम आपके साथ भेज देंगे। उनकी उदारता देखकर द्विवेदीजीका हृदय भर गया। बर्तन तो उन्होंने अधिक नहीं लिये, पर उनके उन्मुक्त हृदय–उदारतासे आप्यायित हो गये।
श्रीद्विवेदीजीने श्रीसेठजीके पूर्व जन्मकी कुछ बातें सुनीं तो उनको पूरा विश्वास नहीं हुआ। एक दिन उन्होंने श्रीसेठजीसे एकान्तमें पूछा––आपके पूर्वजन्मके सम्बन्धमें आपके नामसे कई बातें कही जाती है। क्या आपने कभी पूर्वजन्मकी बातें किसीको कहीं है ? श्रीसेठजीने कहा–– मैंने अबसे बीस-तीस वर्ष पूर्व कुछ ऐसी बातें कही थी। उन्होंने पूछा––आपको पूर्वजन्मका स्मरण है ? श्रीसेठजीने 'हाँ' में उत्तर दिया। बोले––चाहें तो आप भी अपने पूर्वजन्मकी बातें जान सकते हैं। उन्होंने पूछा–– सो कैसे ? श्रीसेठजी बोले––अपरिगृहस्थैर्ये जन्म–कथान्ता सम्बोध:' इस योगसूत्रके अनुसार संयम कीजिये। वासनारहित प्रज्ञामें सत्यका आविर्भाव होता है। मैंने कभी ऐसी धारणा की थी तब मुझे पूर्व जन्मकी स्फूरणा हुई थी। पर श्रीसेठजी जन्म–जन्मान्तरकी चर्चापर बल नहीं देते थे। सगुण–निर्गुण परमात्माकी उपासनापर ही पल देते थे। श्रीसेठजी व्यक्ति पूजाके विरोधी थे। उनका कहना था किसी साधु–महात्माको अपनी पूजा नहीं करनी चाहिये। फोटो खिंचवाना, उच्छिष्ट प्रसाद देना, स्त्रियोंसे एकान्तमें मिलना, अपनी प्रशंसा करवाना––वे किसी महात्माके लिये उचित नहीं समझते थे। न वे स्वयं कभी ऐसा करते थे। इस सम्बन्धमें इतने दृढ़ थे कि बड़े–बड़े प्रसिद्ध महात्माओंसे मिल–जुलकर एकान्तमें तथा जनसमूहमें उन्होंने नि:संकोच ऐसा कह दिया कि आपको ऐसा नहीं करना चाहिये। इस चर्चाको लेकर कभी–कभी विवादके प्रसंग भी उपस्थित हो गये, पर वे अपने सिद्धान्तपर अडिग रहे। एक बार श्रीकरपात्रीजी महाराजका वेदान्त चर्चामें श्रीसेठजीसे मतभेद हो गया। वह मतभेद था–– तत्त्वज्ञके आचरणके सम्बन्धमें। श्रीसेठजीका कहना था–– तत्त्वज्ञ महात्मा उसको मानना चाहिये जिसका आचरण लोगोंके लिये आदर्श एवं अनुकरणीय हो। उनकी दृढ़ निष्ठा थी कि जो सच्चा ज्ञानी है, उससे शास्त्र–विरुद्ध आचरण हो ही नहीं सकता।