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सनातन धर्म • Sanatan Dharma

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2022-05-15 06:36:55 ब्रह्म विद्या (३)
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स्वयंभू प्रतिष्ठित नहीं हो पाओगे। अध्यात्म के क्षेत्र में लोगों से प्रतिष्ठा मत मांगों। लोग यहाँ पर प्रतिष्ठित नहीं करते हैं। लोगों के पीछे दौड़ोगे तो फिर दौड़ते ही रहना। अगर वृक्ष अपने आपको न समेटे तो फिर उचित ऋतु आने पर आप फल कदापि नहीं खा पायेंगे। ब्रह्मऋषि बनना है तो सर्वप्रथम कायाकल्प की तीव्र लालसा होनी चाहिए।

आज हम जो कुछ हैं उसे निवृत्त करना ही होगा। जहाँ जहाँ कमजोरी, पापाचार एवं कुप्रवृत्ति हमारे अंतर्गत छिपी हुई है उसे त्यागना ही होगा। अहम और मैं को एक कोने में रख दो। ऐसे सानिध्यों को ढूंढना पड़ेगा जहाँ से आपको अमृतमयी तत्व प्राप्त हो सकें। ऐसे स्थानों पर वास करना होगा जहाँ का वातावरण अमृतमयी हो व्यर्थ में ऊर्जा नष्ट करने से या फिर टकराव की स्थिति निर्मित करने से तो घर्षण ही उत्पन्न होगा। घर्षण से अग्रि और तपन ही निकलती है। आपने सड़क के किनारे लगे वृक्षों को देखा है मैं पिछले बीस वर्षों से अपने घर के पास लगे एक आम के वृक्ष को देख रहा हूँ बेचारा नपुंसक हो गया है, दुनिया भर का प्रदूषण, शोर एवं स्पंदन इत्यादि झेल रहा है। न तो उसमें कभी आम लगते हैं और न ही वह घटता बढ़ता है। ऐसा ही होता है सड़े-गले वातावरण में रहने से ब्रह्म शक्ति वह शक्ति है जिससे कि समस्त ब्रह्माण्ड का संचालन होता है जिससे कि यथा स्थिति बनी रहती है एवं प्रत्येक सूक्ष्म से सूक्ष्म आवृत्ति तत्व और जीव की क्रियाशीलता बनी रहती है। ब्रह्मशक्ति अनैतिक व्यवस्था में विश्वास नहीं रखती इसीलिए ब्रह्मत्ता को निर्विकार निर्गुण कहा गया है।

यह निर्लिप्त शक्ति है। अत्यंत ही सूक्ष्म एवं परिष्कृत नियंत्रणात्मक एवं अत्यंत ही सूक्ष्म क्रियाशीलता का नाम ही ब्रह्म शक्ति है। अद्वैत ही ब्रह्मा है। देखिए जीवन कितना सार्वभौमिक है। नियम बद्धता कितनी कठोर एवं सुस्पष्ट है। सभी मनुष्यों को एक हृदय से काम चलाना पड़ता है। सभी मनुष्यों को ऊंचाई का एक निश्चित माप मिला हुआ है। आपने कभी ऐसा नहीं देखा है कि बीस फुट से लेकर आधे इंच तक के मनुष्य होते हैं। 99 प्रतिशत मनुष्य पांच फुट से लेकर छः फुट तक के मिलेंगे। कितनी निश्चितता है। अधिकांशत: स्त्रियाँ एक बार में और वह भी नौ महीने के अंतराल में ही एक बार बालक को जन्म देगी। 45 वर्ष की अवस्था तक पहुँचते-पहुँचते स्त्रियों में जन्म देने की क्षमता स्वयं ही समाप्त हो जाती है। 55 वर्ष की आयु में पुरुष में संतानोत्पत्ति की क्षमता खत्म हो जायेगी। शेर दस फिट का ही होगा सौ फिट का नहीं। सीमाऐं पूरी तरह निर्धारित हैं। अधिकतम सीमा तो कठोरता के साथ निर्धारित हैं। अब इसमें घट बढ़ का क्षेत्र मनुष्य के कर्मों के आधार पर छोड़ दिया ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार सम्पूर्ण भारत वर्ष में आप बिना किसी रोक-टोक के आ जा सकते हो, कहीं पर भी नौकरी कर सकते हो परन्तु बाहर जाने के लिए कुछ अन्य आवश्यकताऐं पड़ती हैं। योग्य होंगे तो जा पाओगे। आपकी मर्जी नहीं चलेगी। ऐसा नहीं हो सकता कि आप अपने पूरे परिवार का बोरिया बिस्तर बाँधे और हवाई जहाज का टिकिट लेकर अमेरिका में जा बसें।

जब मानव निर्मित नियम इतने कठोर हैं तो फिर ब्रह्म शक्ति द्वारा निर्मित नियम कैसे होंगे खुद ही अंदाजा लगा सकते हो। बस यहीं से शुरू होता है ब्रह्म वर्चस्व का प्रादुर्भाव । जिसने अति सूक्ष्मता और गूढ़ता के साथ ब्रह्म या ब्रह्माण्डीय या परा ब्रह्माण्डीय नियमों को समझ लिया, आत्मसात कर लिया वही ब्राह्मण कहलायेगा । ब्रह्म को धारण करने का यही विधान है। ब्रह्म नियम ही सत्य है। इसको आत्मसात किया हुआ व्यक्ति ही परम ब्रह्मास्त्रों से सुसज्जित होता है। यही धर्म धारण करने की विधि है। शंकराचार्य जी ने इसीलिए हाथ में ब्रह्म दण्ड धारण किया हुआ है। ब्रह्म- दण्ड प्रतीक है समस्त देव आयुधों का एवं जिसके अंतर्गत माँ भगवती द्वारा धारण किए गये सभी आयुध भी आते हैं। ब्रह्म दण्ड के अंतर्गत ही शाप भी आता है। ब्रह्म दण्ड किनके लिए है? ब्रह्म दण्ड उन कुमार्गियों के लिए है जो कि ब्रह्म शक्ति में अविश्वास रखते हैं एवं राक्षसी प्रवृत्तियों से युक्त होते हैं। जब बह्म नियम कह रहें हैं कि साठ वर्ष की अवस्था काम लिप्तता के लिए नहीं है फिर भी राक्षसी गुणों के कारण भोगी इस ओर अग्रसर हो रहे हैं तो फिर निश्चित ही ये दण्ड के अधिकारी हैं अन्यथा ब्रह्म वर्चस्व समाप्त हो जायेगा। .

( क्रमशः)

@Sanatan
333 views𝑺𝒂𝒕𝒚𝒂𝒎 𝒏𝒊𝒌𝒉𝒊𝒍 , edited  03:36
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2022-05-15 06:35:59 ब्रह्म विद्या (२)

उनके द्वारा रचे गये ताण्डवी युद्ध, ताण्डवी वातावरण, ऊट पटांग योजनाओं इत्यादि से असंख्य प्राणियों के हृदय हाहाकार कर उठते हैं, चीत्कार कर उठते हैं। वे स्वयं जीना चाहते हैं और दूसरों की परवाह नहीं करते। अनंतकाल से ऐसा ही होता आ रहा है इसलिए इन सबका पतन हो जाता है। समय तो लगता ही है।

एक बात ध्यान से समझ लें हृदय पक्ष मस्तिष्क से अनंत गुना ज्यादा शक्तिशाली है। आज तक मस्तिष्क ही परास्त होता आया है और होता रहेगा। मस्तिष्क ब्रह्म ज्ञानियों का शासक नहीं है वह तो मात्र विनम्र दास या सेवक की भांति उनकी सेवा में सदैव तत्पर रहता है। मस्तिष्क से निर्मित समाजवाद कम्युनिष्ट व्यवस्था तानाशाही व्यवस्था, राजशाही व्यवस्था नौकरशाही इत्यादि पिछले पचास वर्षों में आपके समक्ष पूरी तरह ध्वस्थ हो गई है। बचा है तो सिर्फ लोकतंत्र, जनतंत्र इसमें भी सुधार की आवश्यकता है क्योंकि मस्तिष्क कहीं-कहीं इसमें भी विकृति डालने से नहीं चूकता है। ब्रह्मऋषि बनना है या फिर ब्रह्मत्व से आत्म साक्षात्कार करना है तो फिर हृदय पक्ष को जागृत करना होगा अन्यथा कुछ भी नहीं होगा जोर जबरदस्ती से तो विश्वामित्र भी कामधेनु को वशिष्ठ के आश्रम से नहीं ले जा सके। कामधेनु वहीं पर निवास करेगी जहाँ पर ब्रह्मत्व का स्थापत्य होगा। कामधेनु का तात्पर्य गौ वंश की उस दिव्य शक्ति से है जो कि साक्षात् लक्ष्मी स्वरूपा है एवं जिसका प्रत्येक कर्म लक्ष्मी का आनंदमयी स्वरूप ही प्रदान करता है। जितना चाहो, जब चाहो, जैसा चाहो वैसा दुग्ध वह आपको अमृतमय स्वरूप में प्रदान कर देगी। उसे देखते ही मन के सारे विकार धुल जाते हैं उसके सानिध्य में अलौकिक शांति या अनुभव होता है।

ईश्वर भी है और ईश्वर के अलौकिक चमत्कार भी हैं। ईश्वर की अलौकिक सिद्धियाँ भी हैं। आप इस योग्य तो बनो कि वे आपके समक्ष प्रस्तुत हों। कामधेनु का दुग्ध तो क्या उसके शरीर से अष्ट गंध की सुगन्ध निरंतर फूटते रहती है। कामधेनु वहीं निवास करेगी जहाँ पर उसके कानों में प्रात:काल गायत्री जैसे ब्रह्म मंत्र का उच्चारण सुनाई देगा। उसे स्पर्श करने वाला भी पूर्ण रूप से पापरहित ब्रह्म ऋषि ही होगा। उसे चारा खिलाने वाला अपनी आँखों में असीम निर्मलता एवं ममता से युक्त होगा। हिमालय पर सभी जगह शीतलता होगी। इसे कहते हैं स्वेच्छाचारिता। कामधेनु राजऋषि के आश्रम में निवास नहीं करेगी। कृष्ण में इतना ब्रह्मत्व था कि उन्हें देखते ही वृक्ष हरे-भरे हो जाते थे। जहाँ वे खड़े होते थे वहीं पर वातावरण अमृतमय हो जाता था। उनकी एक झलक अनंत वर्षों की थकान और तपन को शांत करने के लिए काफी थी। गायत्री मंत्र भी इस पृथ्वी पर कामधेनु के समान ही कार्य करती है साधकों के लिए।

ब्रह्मत्व का प्रतिस्फुरण होते ही बुद्ध को विरक्ति आने लगी राज-पाट, जीवन मृत्यु, वृद्धावस्था एवं दुनियादारी के अन्य तामझामों से जैसे-जैसे वे ब्रह्मत्व के करीब पहुँचते गये उनके विरक्ति भाव अत्यंत ही तीव्र हो उठे। तीव्रता के साथ-साथ वे अस्तित्व के सूक्ष्म से सूक्ष्म तल पर भी पहुँचते हुए उन्हें सत्य से परिचित कराते हुए निष्पाप करने लगे और अंत में जब पूर्ण सत्य अर्थात केवल्य ज्ञान अनुभूत हुआ तब वे परमोत्पादक बन सके। परमोत्पादन का मतलब है उन दिव्य धाराओं को प्रवाहित करना जो कि उनके द्वारा ग्रहण किए गये परम तत्व से सम्पुट हों। इन दिव्य उत्पादों को हो आप वेदों, छन्दों, ज्ञान, उपासना पद्धति, योग, नियमों अमृतकारी प्रवचनों, दीक्षा, आशीर्वाद एवं वरदान स्वरूप में अपने समक्ष मौजूद पाते हैं। यही विधान है कायाकल्प का कायाकल्प तो कर पड़ता है। सभी ने कायाकल्प किया है। विश्वामित्र भी कायाकल्पित थे। बुद्ध भी कायाकल्पित हुए हैं।

ऐसा क्या डाल दिया था परमहंस जी ने नरेन्द्र में जिससे कि वह एक सामान्य पुरुष से विवेकानंद बन बैठा ऐसी कोई दवा तो दुकान पर बिकती दिखाई नहीं देती। मेरे गुरु ने भी पता नहीं क्या डाल दिया अन्यथा मैं भी दुनियादारी में उलझकर ही प्राणांत कर बैठा होता। ब्रह्मऋषि क्या डालते हैं मालुम नहीं। उनका कोई ओर छोर नहीं होता। उनके आगे किसी का वश नहीं चलता। मीरा के आगे किसका वश चला? ब्रह्मऋषि बनने का तात्पर्य है ब्रह्माण्डीय पुरुष बनना। ब्रह्माण्डीय नायक बनना। विष्णु जब युद्ध करते-करते थक जाते हैं तब योगमाया उन्हें शांत अवस्था में सुला देती है। ऐसा ही विश्वामित्र के साथ हुआ जब वे थक गये मैं और अहम की ताकत जबाब दे गयी तब गायत्री माता के रूप में प्रकट हुई। मेरे गुरु ने सही कहा है जब तक दो हाथ वाले से मांगते रहोगे चार हाथ वाला कभी नहीं देगा। .

(क्रमश: )

@Sanatan
327 views𝑺𝒂𝒕𝒚𝒂𝒎 𝒏𝒊𝒌𝒉𝒊𝒍 , edited  03:35
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2022-05-15 06:34:42 ब्रह्म विद्या
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विश्वामित्र एक अति तेजस्वी एवं प्रतापी राजा थे आर्यों के इस महान शासक ने सम्पूर्ण पृथ्वी पर एकाधिकार करने के लिए अश्वमेघ यज्ञ सम्पन्न किया परन्तु जैसे ही यह ब्रह्मऋषि वशिष्ठ के सम्मुख पहुँचे इनका सारा तेज जाता रहा। इनके सारे यत्न असफल हो गये, सारे शस्त्र निष्फल हो गये। कल तक जो विश्वामित्र राज्य, सत्ता, शक्ति, सेना के दम्भ पर अपने आपको दिग्विजयी समझ रहा था उसने ब्रह्मत्व धारण किए हुए निःशस्त्र ब्रह्मऋषि वशिष्ठ के सामने पराजित, लज्जित एवं अपमानित स्थिति में अपने आपको खड़ा हुआ पाया। ऐसा पहली बार नहीं हुआ है भारत भूमि पर सिकन्दर ने भी अपने आपको इसी भाव में लाचार खड़े पाया है। उसकी बुद्धि के द्वार भी भारत वर्ष में ही खुले हैं। मुगल सम्राट अकबर भी ब्रह्मज्ञानियों के चरणों में झुका है। तुलसीदास जी और मीरा दोनों के चरणों में ही अकबर का सर झुका है। उसने भी थक हारकर एक ईश्वर वाद के इस्लामी सिद्धांत को छोड़ ब्रह्म ज्ञानियों की महत्ता स्वीकार की है एवं दीन-ए-इलाही जैसे नये पंथ का भी उसे अनुसरण करना पड़ा है। निराकार को पूजने से कुछ नहीं होता है। निराकार भी कोई पूजने की वस्तु है दिल को बहलाने वाला यह तथाकथित सिद्धांत तो कृष्ण ने गीता में स्वयं ही खण्डित कर दिया है। इस सिद्धांत पर चलकर दस पीढ़ियों में से एकाध को ही साक्षात्कार सम्भव हो पायेगा। इस प्रकार की आध्यात्मिक धारा सामान्य जन को क्या लाभ पहुँचायेगी? क्यों सामान्य जन इसे अपनायेगा? यही कारण है कि सद्गुरुओं, ब्रह्मऋषियों के सानिध्य में अध्यात्म फलता-फूलता है।

परमेष्ठि गुरु अपनी जगह है और वर्तमान का गुरु अत्यधिक महत्व लिए हुए है। जिन देश में उपासकों को प्रतिबंधित कर दिया जाता है, जिस घरों में अभिभावक पूजा पद्धति या गुरु की अवमानना करते हैं वहाँ पर राक्षसी एवं ताण्डवी शक्ति का वास होता है। अगर घर में बिजली के तार खींचे ही नहीं जायेंगे तो फिर मोमबत्ती या चिमनी की आवश्यकता होगी फिर भी अंधेरा पूरी तरह नहीं मिट पायेगा। ब्रह्मऋषि का तात्पर्य ही वह व्यक्तित्व है जो कि स्वच्छ, निर्मल, निर्विकार एवं निखिल प्रकाश का ऊर्जा केन्द्र है। जिसके अमृतमयी प्रकाश में मनुष्य के सभी तलों पर से अंधेरा गायब हो सके, हृदय भी प्रकाश युक्त हो सके मन भी निर्मल प्रकाशमय हो जगमगा उठे, विचारों एवं बुद्धिपक्ष में भी इतना प्रकाश भर जायें कि अंधेरे में बिलबिलाने वाले कीड़े-मकोड़े और निशाचर शक्तियाँ स्वयं ही भाग खड़े हों। निशाचरों को शक्तिहीन बनाता है प्रकाश। आप सूक्ष्मता से अध्ययन करेंगे तो पायेंगे कि उन जगहों पर ही नकारात्मक पैशाचिक एवं प्रेत शक्तियाँ क्रियाशील होती हैं जहाँ पर कि अंधेरा घोरतम होता है। प्रकाश युक्त सद्गुणी वातावरण में पैशाचिक शक्तियाँ भाग जाती हैं।

आदि गुरु शंकराचार्य जी एक बार वन में एक वृक्ष के नीचे बैठे थे। उस पेड़ पर दो प्रेत निवास करते थे शंकराचार्य जी को देख प्रेत ताण्डव करने लगे उन्होंने दूसरे ही क्षण अपने कमण्डल से अभिमंत्रित जल निकालकर वृक्ष पर छिड़क दिया देखते ही देखते वे प्रेत योनि से मुक्त हो वहाँ से सदा के लिए चले गये। इस प्रकार वो अभिशप्त जगह पुनः पवित्र हो पूजन स्थल में परिवर्तित हो एवं बाद में वहाँ पर देवालय का भी निर्माण हुआ। बुद्ध जब बोधि वृक्ष के नीचे बैठे निर्वाण प्राप्ति की अंतिम अवस्था में थे तब उस वन में उपस्थित सभी नकारात्मक शक्तियों ने भीषण ताण्डव उत्पन्न कर दिया उनके इर्द-गिर्द । वे सब भयभीत हो गये थे ब्रह्मत्व के प्रकाश से ब्रह्मत्व क्या है ? ब्रह्मत्व वह शक्ति है जिसे धारण कर व्यक्ति ब्रह्मण बनाता है एवं उसके मन, वचन, कर्म इत्यादि सभी कुछ सत्य, निष्ठा से ही क्रियाशील होते हैं ब्रह्मण का तात्पर्य है सत्य को पहचानना । अभेदात्मक सोच शालीनता, निर्लिप्तता एवं कर्तव्य परायणता । जीवन की क्षण भंगुरता से सत्य का कोई भी लेना देना नहीं है।

ब्राह्मण का तात्पर्य है विराटता। विश्वामित्र ने अपने आपको वशिष्ठ के सामने बौना पाया। ब्रह्मऋषि इतने पारदर्शी होते हैं कि उनके सामने खड़े होते ही व्यक्ति चाहे कितने नकाब ओढ़े हो, कितना भी बनने की कोशिश करे अपने आपको नग्न पाता है, स्वयं वह क्या है उसे समझ में आ जाता है। हम स्वयं क्या हैं? बस इतनी सी बात समझ में आ जाये तो फिर ब्रह्मऋषि बनने में देर नहीं लगेगी। इस दुनिया की विडम्बना यह है कि यहाँ पर शासन करने वाले शक्ति से सम्पुट होते हैं। युवा होते हैं। वे जीवन की कोमलता, बाल्यावस्था को पूरी तरह दर किनार कर देते हैं अपने मस्तिष्क के उन्माद से व्यवस्था रचते हैं। उन्हें इस बात की फिक्र नहीं होती है कि इस दुनिया में बालक, शिशु, शांतिप्रिय सात्विकता लिए हुए उपासक, मनोहारी स्त्रियाँ इत्यादि भी समान रूप से वास करते हैं। .

(क्रमशः)

@Sanatan
349 views𝑺𝒂𝒕𝒚𝒂𝒎 𝒏𝒊𝒌𝒉𝒊𝒍 , edited  03:34
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2022-05-15 06:33:57
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340 views𝑺𝒂𝒕𝒚𝒂𝒎 𝒏𝒊𝒌𝒉𝒊𝒍 , 03:33
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2022-05-13 11:07:56 महामृत्युंजय साधना (४)
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अब देखिए किसी का रूप और सौन्दर्य चेचक के कारण नहीं जाता। रोकने की कला तो हमने सीख ही ली प्राप्ति की कला भी सीखनी होगी। पहले समझो फिर साधना सम्पन्न करो। साधना बुद्धिजीवी को भी करनी चाहिए। कहीं बुद्धि मृत्यु का कारण न बन जाये। शिव से आपको अलग न कर दे इसलिए इतना सब कुछ कहना पड़ा।

सामान्य मनुष्यों और ईश्वर पुत्र के रूप में जीवन जीने वाले श्रेष्ठ मनुष्यों की नियति में जमीन आसमान का फर्क होता है। सामान्य मनुष्य स्वयं के लिए जीता है तो वहीं उसके कर्म ही उसकी नियति निर्धारित करते हैं इसके विपरीत इस धरा पर ईश तत्व का प्रसार करने वाले ईश पुत्रों की नियति स्वयं भगवान शिव निर्धारित करते हैं।इनका जीवन मात्र प्राणी जगत को शिव सानिध्य में पुनः लाने के लिए ही होता है। ऐसे महापुरुष और ऋषिगणों की रक्षा के लिए भगवान सदैव तत्पर रहते हैं। उनके जीवन पर किसी भी प्रकार की आँच न आये, वे इस पृथ्वी के मायाजाल में भटककर समय व्यर्थ न गवा दें और कहीं अकाल मृत्यु को प्राप्त न कर लें इसके लिये शंकर प्रकृति में भी हस्तक्षेप करने से भी नहीं चूकते हैं क्योंकि इसी में प्राणियों का कल्याण छिपा हुआ है। इन्हीं महापुरुषों के जीवन से अनंत वर्षों तक हम प्रेरणा प्राप्त करते है। जो जीवन देता है वही जीवन को बढ़ाने की क्षमता भी रखता है।

भगवान शिव नीलकण्ठ हैं वे समस्त जगत का विष-पान कर इस जगत को जीवन प्रदान करते हैं, वे ही भूत भावन हैं उनके अंदर विष भी अमृत में बदल जाता है। महामृत्युञ्जय मंत्र भगवान शिव की उस विलक्षण शक्ति को मनुष्यों की चेतना में स्थापित करता है जिसके द्वारा वे अपना जीवनकाल सम्पूर्णता के साथ सम्पन्न कर सकते हैं। इसी विद्या को संजीवनी विद्या कहा गया है। महामृत्युञ्जय मंत्र के प्रचारक मार्कण्डेयजी नामक ऋषि रहे हैं उन्होंने ही इस मंत्र को आत्मसात कर जन-जन में प्रसारित किया है। वे भगवान शिव के परम भक्त रहे हैं और शंकर जी ने उनकी निष्काम भक्ति से प्रसन्न हो उन्हें सभी लोकों के दर्शन कराये हैं एवं वरदान में कलपान्त तक अमर रहने और पुराणाचार्य होने का वरदान दिया है। मार्कण्डेय पुराण के उपदेशक मार्कण्डेय मुनि ही हैं।

पदम पुराण उत्तर खण्ड के अनुसार मार्कण्डेय ऋषि के पिता मुनि मृकण्डु ने अपनी पत्नी के साथ घोर तपस्या कर के भगवान शिव को प्रसन्न किया था। उन्हीं के वरदान स्वरूप मार्कण्डेय जी को पुत्र रूप में प्राप्त किया था परन्तु भगवान शंकर ने उनकी आयु 16 वर्ष निर्धारित कर दी थी। अतः जैसे ही मार्कण्डेय जी ने 16 वें वर्ष में प्रवेश किया उनके पिता व्यथित हो उठे। पुत्र के द्वारा पूछे जाने पर पिता ने मार्कण्डेय जी के सामने वास्तविकता प्रकट कर दी। इस पर मार्कण्डेय जी ने अपने पिता को समझाते हुये कहा कि आप चिंता न करें मैं भगवान शंकर को प्रसन्न करने के लिये घोर तपस्या करूँगा जिससे कि मेरी मृत्यु हो ही नहीं और इस प्रकार माता-पिता की आज्ञा लेकर मार्कण्डेय जी दक्षिण समुद्र के तट पर चले गये ओर वहाँ विधि पूर्वक शिवलिङ्ग की स्थापना कर के महामृत्युञ्जय मंत्र का जाप करने लगे। उनके द्वारा जप किया जा रहा मंत्र इस प्रकार है

''ॐ हौं जूँ सः । ॐ भूर्भुवः स्वः । ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् । उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् । स्वः भुवः भूः ॐ । सः जूँ हौं ॐ ''

यह सम्पुट युक्त मंत्र है। यही मंत्र आगे चलकर जन मानस में महामृत्युंजय मंत्र के नाम से विख्यात हुआ। समय पर काल आ पहुँचा मार्कण्डेयजी ने काल से कहा मैं शिवजी का मृत्युंजय स्तोत्र से स्तवन कर रहा हूँ, इसे पूरा कर लूँ, तब तक तुम ठहर जाओं काल ने कहा ऐसा नहीं हो सकता। तब मार्कण्डेय जी ने भगवान शंकर के बल पर काल को फटकारा। काल ने क्रोध में भरकर ज्यों ही मार्कण्डेय को हठपूर्वक ग्रसना चाहा, त्यों ही स्वयं महादेवजी उसी लिङ्ग से प्रकट हो गये। हुँकार भरकर मेघ के समान गर्जना करते हुए उन्होंने काल की छाती में लात मारी। मृत्यु देवता उनके चरण-प्रहार से पीड़ित होकर दूर जा पड़े। .

शिव शासनत: शिव शासनत:

@Sanatan
845 views𝑺𝒂𝒕𝒚𝒂𝒎 𝒏𝒊𝒌𝒉𝒊𝒍 , edited  08:07
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2022-05-13 11:06:45 महामृत्युंजय साधना (३)
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महामृत्युञ्जय का साधक अमरता प्राप्त करता है । अमरता भी है भूख लगती है तो हम भोजन करते हैं, प्यास लगती है तो हम जल पीते हैं, जब मस्तिष्क में प्यास होगी तभी तो जल पीयेंगे। इसी प्रकार अमरता के ख्याल आते हैं तो हम अमृतमय कोषों की तलाश करते हैं। तुलसीदास जी ने कहा है कि

सकल पदारथ है जग माहीं ।
करम हीन नर पावत नाहीं ॥

जो कुछ मस्तिष्क सोचता है वह इस जगत में निश्चित ही मौजूद है। जरूरत है तो सिर्फ उचित कर्मों को सम्पन्न करने की मृत्युञ्जयी साधक वही है जो कि अपनी इच्छानुसार मृत्यु को प्राप्त कर सकता है। वैसे तो सभी को यह अधिकार प्राप्त है। कुछ मूर्ख आत्महत्या भी करते हैं उन पर मैं यह विचार नहीं कह रहा हूँ। मेरा कहने का तात्पर्य है कि मृत्यु के अंतिम क्षण हमारी चेतना अनुसार हों। शरीर का त्याग हम उसी प्रकार करें जिस प्रकार महायोगी करते है। यह अमरता का प्रतीक है। चेतना से चेतना को मिलाने का अनुसंधान कठिन है पर असम्भव नहीं है। आप देखिए अनेकों जीवों में अंग कट जाने के पश्चात फिर से उग आने की प्रवृत्ति होती है। वृक्ष की एक डगाल टूट जाने पर पुन: नई शाखायें उग जाती है, प्रतिक्षण फल टूटते रहते हैं फिर भी वृक्षों का वंश तो समाप्त नहीं होता है। कुछ फल निश्चित ही बीज को उचित जगह पर रोपित कर देते हैं। प्रतिवर्ष आम के असंख्य फल मनुष्य भक्षण करता है, पशु-पक्षी भी खाते हैं परन्तु आम के वृक्ष भी प्रतिवर्ष सभी जगह ऊगते हैं। उनमें न्यूनता नहीं आती है। यही महामृत्युञ्जय बल है।

इस देश में पचास वर्ष पहले बीस करोड़ लोग थे तब भी श्वास लेते थे आज एक अरब से भी ज्यादा है फिर भी किसी को निःशुल्क श्वास लेने में कहीं कोई कठिनाई नहीं है। वायु तो कम नहीं हुई यही ईश्वर की लीला है। बीस करोड़ लोग पचास वर्ष पहले अकाल और भुखमरी से ग्रसित थे परन्तु एक अरब हो जाने पर भी अब अन्न कम नहीं पड़ रहा है। सभी को कम से कम एक वक्त का भोजन मिल ही जाता है। शिव की प्रौद्योगिकी अत्यंत ही परिष्कृत है। कहीं न कहीं वृक्ष में पत्तों के बीच एक न एक फल मनुष्य और पशुओं की आँखों से बचते हुए समस्त मौसमों की मार सहते हुए पूर्ण आयु अर्थात पकने के पश्चात ही स्वतः वृक्ष से विस्थापित हो नवजीवन सम्पन्न करता है जो फल वृक्ष से स्वतः ही सम्पूर्णता प्राप्त करने के पश्चात भूमि पर गिरता है उसी का बीज सर्वश्रेष्ठ होता है। वही एक स्वस्थ एवं सम्पूर्ण आयु को प्राप्त करने वाले वृक्ष को जन्म देने में सक्षम है। बाकी सब आधे अधूरे कर्मों को सम्पन्न करेंगे क्योंकि उसी फल ने सभी बाधाओं, अवरोधों और अकस्मात मृत्यु प्रदान करने वाले तत्वों को हराया है। उसने अपनी यात्रा निर्विघ्न समाप्त की है। वह स्वेच्छाचारी हैं। स्वेच्छा से वृक्ष का त्याग किया है। शिव स्वेच्छाचारी हैं। महामृत्युञ्जय बल स्वेच्छा का प्रतीक है। स्वेच्छा ही पूर्णता है किसी और की इच्छा या बल का प्रभाव यहाँ पर शून्य है। यही संजीवनी साधना का रहस्य है।

कितना भी मारने की कोशिश करो, मृत्यु प्रदान करने की कोशिश करो परन्तु हम मृत्यु को प्राप्त होने का कारण तुम्हें नहीं बनने देंगे। ऐसी सोच वाले ही शिव सानिध्य को प्राप्त करते हैं। शिव की रुद्रता यही है। यही श्रीकृष्ण का संदेश है। मृत्यु क्या है? मृत्यु टुकड़ों टुकड़ों में भी प्राप्त होती है। जीवन की अवधि बढ़ायी भी जा सकता है। आप 36 वर्ष की आयु को 50 वर्ष भी कर सकते हैं। इसके लिए निद्रा को कम करना होगा। बारह घण्टे सोने की अपेक्षा चार घण्टे में भी काम चला सकते हैं। ऐसा भी होता है। साधक के लिए यह नितांत आवश्यक है। प्रतिदिन व्यर्थ के मनुष्यों में बैठने की अपेक्षा अपनी इच्छानुसार कार्य कर सकते हैं। सफल व्यक्ति चाहे वह वैज्ञानिक हो, आध्यात्मिक साधक हो इत्यादि इत्यादि ऐसा ही करते हैं। अनेकों अनुपयोगी और निम्र कर्मों को सम्पन्न करने की अपेक्षा आप कुछ इच्छानुसार कर सकते हैं। साधक को ऐसा ही होना चाहिए। मूर्ख व्यक्ति टी.वी देखते हैं, समय व्यर्थ करते हैं, उनका भोजन घटिया मनोरंजन है इसके विपरीत ग्रह-नक्षत्रों पर अनुसंधान करने वाले रात्रि में ब्रह्माण्ड को निहारते हैं। वे जगत को कुछ नया प्रदान करते हैं। भीड़ तंत्र के पीछे भागने वाले भीड़ का हिस्सा बन जाते हैं। जो स्वेच्छा पूर्वक जीवन बिताते हैं वह अनुसंधानकर्ता हैं। वही सच्चे साधक हैं। पुनः प्राप्ति की क्रिया सीखनी होगी।

आज से 60 - 70 वर्ष पूर्व चेचक का अत्यधिक प्रकोप था इसके कारण अनंत लोगों का असमय जीवन चला गया एवं जो बचे उनका रूप और सौन्दर्य चला गया। सारा शरीर बदनुमा दागों से ढँक गया। अगर जा सकता है तो प्राप्त भी किया जा सकता है। पुनः प्राप्ति होनी ही चाहिए। .

(क्रमशः)

@Sanatan
682 views𝑺𝒂𝒕𝒚𝒂𝒎 𝒏𝒊𝒌𝒉𝒊𝒍 , edited  08:06
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2022-05-13 11:05:58 महामृत्युंजय साधना (२)
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जिस मानव जाति ने महामृत्युञ्जय बल को आत्मसात किया वे सर्वश्रेष्ठ कहलाये हैं। जब मनुष्य ने सर्वप्रथम सुदूर अंतरिक्ष में यात्रा सम्पन्न करने ने की ठानी तो उसे सैकड़ों वर्ष अनुसंधान करने पड़े। पता नहीं कितने अंतरिक्ष यान या राकेट उड़ने से पूर्व ही फट गये। कितने मनुष्य और पशु यात्रा पथ में ही मारे गये, कई पीढ़ियों ने सामूहिक रूप से अनुसंधान किया तब कहीं जाकर मानव जगत ने चन्द्रमा पर साक्षात रूप से पैर रखने का सौभाग्य प्राप्त किया। महामृत्युञ्जय साधना को समझने के लिए आपको यात्रा को समझना होगा। चन्द्रमा पर पहुँचना यात्रा का प्रथम चरण है और पुनः अंतरिक्ष यात्री का पृथ्वी पर वापस लौटना दूसरा चरण है। इन दोनों चरणों के बीच अनेकों उपचरण हैं, अनेकों विषम परिस्थितियाँ में हैं, समस्याऐं है, अवरोध है इत्यादि इत्यादि कहने का तात्पर्य है कि प्रतिक्षण यात्रा के खण्डित होने का भय है। यात्रा एक चुनौती है। जीवन भी एक चुनौती है इसीलिए महामृत्युञ्जय बल यात्रा को निर्विघ्न समाप्त करने के लिए अति आवश्यक है।

साधक का तात्पर्य मात्र आध्यात्मिक साधक से ही नहीं लेना चाहिए। प्रत्येक अनुसंधान, प्रत्येक खोज, सभी कुछ साधकों की ही देन है। इनके पीछे भी निश्चित ही आध्यात्मिक बल है। साधक का सीधा तात्पर्य कर्मशील व्यक्ति से है। साधक भगवान श्री कृष्ण के अनुसार कर्मयोगी ही होते हैं। निखट्टु, कर्महीन एवं शेखचिल्ली के समान सोच वाले व्यक्ति साधक कदापि नहीं हो सकते चाहे वह आध्यात्मिक अनुसंधान हो या भौतिक अनुसंधान, साधना का पथ कर्मशीलता मांगता है। एकाग्रता मांगता है। असफलताओ अवरोधों एवं कठिनाइयों पर विजय प्राप्त करना हो महामृत्युञ्जय साधना है। निरंतरता के लिए अथक कर्म करने पड़ते हैं। इस संसार में जीवन को सुलभ बनाने के लिए की गई प्रत्येक खोज, शरीर को रोग मुक्त करने के लिए किया गया प्रत्येक अनुसंधान, चिकित्सा जगत का चर्मोत्कर्ष पर पहुँचना इत्यादि महामृत्युञ्जय साधना के अंतर्गत ही आता है। जिस भी क्रिया या कर्म से जीवन का बचाव होता है, जीवन की अवधि बढ़ती है वह महामृत्युञ्जय साधना का ही प्रतीक है।

महामृत्युञ्जय भगवान शिव का वह दिव्य बल है जो कि जीव को मृत्यु के मुख से प्रतिक्षण खींचता है। यह बल समय, काल एवं व्यक्ति अनुसार विभिन्न स्वरूपों में प्रकट होता है। आपके जीवन में ऐसे मनुष्य भी आ सकते हैं जो कि तोड़- तोड़कर आपको खा जायेंगे। आपकी ऊर्जा नष्ट कर देंगे। आपको धोखा देंगे, आपके साथ छल करेंगे, आपको भारी नुकसान पहुँचायेंगे। आपको कहीं का नहीं छोड़ेंगे। इसे कहते हैं आस्तीन में सांप पालना। भगवान शिव के मूर्ति रूपी विग्रह में इसीलिए सर्प भी शांत अवस्था में बैठे दिखाई पड़ते हैं। वे अधिष्ठाता हैं भूत-प्रेत, बेताल एवं अन्य जीवन को क्षति पहुँचाने वाली योनियों के। शिव ही इन सब नकारात्मक शक्तियों को नियंत्रित कर सकते हैं। अतः उनकी कृपा प्राप्ति के लिए प्रतिदिन महामृत्युञ्जय मंत्र का जाप कीजिए।

प्रत्येक मनुष्य एक निश्चित ऊर्जा का स्वामी है। उसके पास ऊर्जा का एक निश्चित भण्डार है। ऐसी स्थिति में ऊर्जा का क्षय रोकना नितांत आवश्यक है। मनुष्य मनुष्य की ऊर्जा खा जाता है। जब तक ऊर्जा होती है चाहे वह किसी भी स्वरूप में हो ऊर्जा का शोषण करने वाले आपके पास मंडराते ही रहेंगे। जैसे ही ऊर्जा क्षीण होगी आप सब तरफ से त्याग दिये जायेंगे। अतः आपको ऊर्जा का अनुसंधान करना होगा। प्रतिक्षण आपको अपने शरीर में मौजूद दिव्य ऊर्जा केन्द्रों को खोजना होगा। संजीवनी विद्या समझनी होगी। पुनः मस्तिष्क को चैतन्य करने के विधान ढूंढने होंगे। ब्रह्माण्ड से अक्षय ऊर्जा प्राप्त करनी होगी। यह सब कलायें महामृत्युञ्जय साधना के अंतर्गत ही आती हैं। जिस प्रकार बहती हुई एक नदी अनेकों गुप्त स्त्रोतों से जल प्राप्त करती रहती है, वर्षा से भी जल प्राप्त करती रहती है, स्थान अनुसार स्वरूप परिवर्तन करती रहती है, कहीं पर भूमिगत हो जाती है, कहीं पर तीव्र हो जाती है तो कहीं गुप्त रूप से बहती है इत्यादि इत्यादि परन्तु यात्रा अविरल जारी रहती है। यही संजीवनी विद्या है। प्रतिक्षण पुनः जीवन प्राप्त करने की कला । मृत्यु को प्रतिक्षण भगाने की कला । ऐसा भी सम्भव है जब आपमें सक्रियता, चेतना का स्तर अत्यंत ही उच्च हो ।

आपका शरीर पंचभूतों से निर्मित हो । इन पंचभूतों की आयु और संतुलन आपके जीवन का निर्धारण करेंगी। पंचभूत अगर विकार ग्रस्त होते हैं तो जीवन भी विकार ग्रस्त हो जायेगा । वायु प्रदूषित होगी तो श्वास भी प्रदूषित हो जायेगी । श्वास प्रदूषित होगी तो रक्त प्रदूषित हो जायेगा। इसी प्रकार प्रदूषित जल का सेवन शरीर को प्रदूषित कर देता है। संजीवनी विद्या के अंतर्गत विष का निष्कासन, मल का निष्कासन जीवन के प्रत्येक तल पर आवश्यक है। .

(क्रमशः)

@Sanatan
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2022-05-13 11:03:24 महामुत्युंजय साधना
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शास्त्रों के अनुसार 64 करोड़ प्रकार के शारीरिक एवं मानसिक रोग हैं। यह तो हुई शरीर एवं मानस के प्रति विपरीत स्थिति इसके अलावा जन्म लेते ही जीव को प्रकृति की विपरीत परिस्थितियाँ, देश, समाज और परिवार की भी विपरीत एवं प्रतिकूल परिस्थितियाँ झेलनी पड़ती हैं। एक जीव को इन सब विषम परिस्थितियों के अलावा दूसरे जीव या मनुष्य से भी प्रतिक्षण जीवन का खतरा बना रहता है। इस पर से दैवीय आपदायें भी मुँह बाये खड़ी रहती हैं। ऐसी स्थिति में सामान्य जीवन निर्वाह करना एक शरीर धारी मनुष्य के लिए अत्यंत ही विकट है। इतना विकट कि जीवन की प्रारम्भिक आवश्यकतायें ही पूरी करने में सारी ऊर्जा चली जाती है। साधना तो बहुत दूर की बात है। अनंत काल से परिस्थितियाँ प्रतिकूल बनी हुई हैं। मनुष्य को इन विपरीत परिस्थितियों में ही जीवन की पूर्णता प्राप्त करनी है। जीवन के प्रत्येक पक्ष को जीना है तो फिर ऐसी कौन सी साधना है, ऐसा कौन सा महाबल है, ऐसी कौन सी दिव्य शक्ति है जिसकी स्तुति से निर्धारित जीवन के क्षण हम पूरे कर सकते हैं। जीवन को पूर्णता प्रदान करने वाली एक ही महाशक्ति है और वह है शिव । अतः प्रत्येक साधक और व्यक्ति को भगवान शिव की कृपा प्राप्त करने के लिए प्रतिदिन महामृत्युञ्जय आराधना अवश्य करनी चाहिए। आराधना के अंतर्गत महामृत्युञ्जय अनुष्ठान एवं महामृत्युञ्जय रूपी विस्तृत और समग्र चिंतन का होना नितांत आवश्यक है। प्रत्येक सद्गुरु अपने शिष्यों को सर्वप्रथम महामृत्युञ्जय साधना ही सम्पन्न करवाता है।

साधरण जन महामृत्युञ्जय साधना का तात्पर्य यह समझते हैं कि अगर व्यक्ति अस्पताल में किसी कारणवश या दुर्घटनावश मृत्यु से संघर्ष कर रहा है तभी इसे सम्पन्न करनी चाहिए। यह आधा-अधूरा चिंतन है। यह स्थिति आग लगने पर कुँआ खोदने की प्रक्रिया के समान है। विवेक, बुद्धिमत्ता और ज्ञान का इस प्रकार के चिंतन में सर्वथा अभाव है। मैंने ऊपर कहा 64 करोड़ प्रकार के रोग होते हैं। सर्वप्रथम रोग क्या है? यह समझना चाहिए। रोगों का सीधा सम्बन्ध कर्म की श्रृंखला से जुड़ा हुआ है। मानव शरीर का सम्पूर्ण विकास एक परम चेतना के अंतर्गत पूरी तरह से नियंत्रित है। इस परम चेतना ने शरीर को इस प्रकार से निर्मित किया है कि कर्मों के अनुसार उसमें अतिशीघ्र परिवर्तन हो जाता है। सारी कोशिकायें कर्मों के अनुसार ही प्रारूप बदलती है। शक्ति संचालन की आंतरिक प्रक्रिया कर्मों के अनुसार ही निर्धारित होती है। यह परम व्यवस्था इतनी सूक्ष्म और दिव्य है कि इसी के कारण यह संसार चल रहा है। अगर एक क्षण के लिए भी परम चेतना के नियंत्रण से कर्म श्रृंखला हट जाये तो फिर जीव-जगत हमेशा के लिए समाप्त हो जायेगा। एक क्षण का असंतुलन अनंत वर्षों के जीव संतुलन को समाप्त करके रख देगा। कर्मों के अंतर्गत अनेकों जीवन के कर्म, सामूहिक कर्म, पैतृक कर्म, जीव की जाति विशेष के कर्म इत्यादि सभी कुछ आते हैं। रोग और निरोग इसीलिए सम्पूर्ण रूप से कर्म श्रृंखला पर आधारित है।

अब बात करते हैं खण्डित और अखण्डता की। आप कार्य शुरू करते हैं परन्तु लक्ष्य तक पहुँचने से पहले ही कार्य खण्डित हो जाता है, अचानक अवरोध आ जाते हैं। आपके लक्ष्य में सहयोगी कम होते हैं एवं अवरोध डालने वालों की संख्या ज्यादा होती है। आप साधना के पथ पर अग्रसर होते हैं तो सारा परिवार, पत्नी इत्यादि उसमें विघ्न डालने लगते हैं। कभी कभी आप पूरे जोर शोर से अध्यात्म के पथ पर अग्रसर होते हैं परन्तु कुछ ही महीनों बाद आप निस्तेज हो पुनः पुराने ढर्रे पर लौट आते हैं। इसे कहते हैं आध्यात्मिक यात्रा की अकाल मृत्यु । अर्थात यात्रा का खण्डित हो जाना। यात्रा सम्पूर्ण नहीं हो सकी तो फिर जीवन में अपूर्णता तो निश्चित है, मृत्यु भी पूर्ण नहीं होगी। अंतिम समय मे कुछ न कुछ मलाल रह जायेगा। अधिकांशतः व्यक्ति सामाजिक, आर्थिक, पारिवारिक दबाव के चलते मन- मसोसकर निराश हो जाते हैं। जीवन अत्यधिक उदासीन हो जाता है। जीवन जीने की शक्ति खत्म हो जाती है। इसे कहते हैं मृत्यु के मुख में जाने की तैयारी । मृत्यु के पाश से व्यक्ति का जकड़ जाना। इस पाश को तोड़ने के लिए पुन: आपको जरूरत पड़ेगी दिव्य महामृत्युञ्जय बल की। महामृत्युञ्जय बल ही वह दिव्य शक्ति है जिसके कारण जीव कहता है अभी कुछ बाकी है। अंधेरे में भी उजाले की प्रबल सम्भावना बनी रहती है। दिव्य महामृत्युञ्जय बल के कारण मनुष्य सर्वश्रेष्ठ हुआ है। इसी बल ने उसे हिम्मत न हारने की इच्छा शक्ति प्रदान की असफलताओं को पीछे छोड़ते हुए सफलताओं तक पहुँचाया है। .

(क्रमशः)

@Sanatan
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2022-05-13 11:02:32
''ॐ हौं जूँ सः । ॐ भूर्भुवः स्वः । ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् । उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् । स्वः भुवः भूः ॐ । सः जूँ हौं ॐ ''
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2022-05-12 17:50:06 साधना रहस्य् (४)
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इस ब्रह्माण्ड में सारा खेल अदृश्य शक्तियाँ रचती हैं। अदृश्य शक्तियों के अंतर्गत देवता, गंधर्व, किनर, प्रेत, ब्रह्मराक्षस, अप्सरायें, योगनियाँ इत्यादि-इत्यादि जैसे अनेकों वर्ग हैं। ये सबके सब मनुष्य के इर्द-गिर्द विद्यमान रहते हैं। इन्हीं के कारण जीवन सुखी और दुखी होता रहता है। मनुष्य के प्रत्येक कर्म में इनका अंश निश्चित है। इनके स्थापन और विस्थापन की प्रक्रिया एक चेतनाशील व्यक्ति को अवश्य समझनी चाहिए। एक स्त्री का विवाह अत्यंत ही धूमधाम और रजामंदी से एक पुरुष के साथ होता है। कुछ महीने पश्चात स्त्री मायके में जाकर रहने लगती है बिना किसी कारणवश उसका मन ही पति के पास लौटने का नहीं होता। ऐसा क्यों हो रहा है? जब कुछ भी समझ में नहीं आता है तो लोग कह देते हैं उसका दिमाग खराब है। किसी स्त्री विशेष या पुरुष विशेष के मस्तिष्क में उच्चाटन की क्रिया कैसे हुई? बस यहीं पर आप अदृश्य योनियों की गति को पकड़ सकते हैं। कौन सी वह ताकत है जो कि मनुष्य को माध्यम बनाकर अपना स्वार्थ सिद्ध कर रही है और उसे किस प्रकार से निष्कासित किया जाय? यही कार्य गुरु सम्पन्न करते हैं।

एक व्यक्ति जो कि आपके प्रति अत्यंत ही अनुराग रखता हो कुछ दिनों बाद आपका सबसे बड़ा शत्रु हो जाता है। अकारण ही ऐसा क्यों हुआ? इसके पीछे क्या वास्तविकता है? साधक को यह निश्चित समझना चाहिए। यही अद्वैत है। अगर समस्या का केन्द्र द्वैत हो तो फिर इस संसार में कोई दुखी ही न हो। द्वैत केन्द्र से तो मनुष्य अच्छी तरह निपटना जानता है परन्तु अद्वैत स्थिति एक आम व्यक्ति के वश की बात नहीं है। राजा से रंक और रंक से राजा, विफलता से सफलता पदहीनता से पद प्राप्ति, दरिद्रता से वैभव इत्यादि इत्यादि सभी परिस्थितियों के केन्द्र अद्वैत ही है अर्थात अगोचर और पंचेन्द्रियों के द्वारा न पकड़ में आने वाली स्थिति। आध्यात्मिक साधनायें इसीलिए आवश्यक हैं। आध्यात्मिक साधना शून्य से उत्पन्न करने की कला है। अद्वैत में तो सब कुछ विद्यमान है। दिक्कत बस उसे गोचर बनाने की है। इसी प्रक्रिया के लिए सम्पन्न किया गया कर्म साधना है। यही क्रिया योग है। जीवन को पवित्र, ऊर्ध्वगामी एवं सत्मार्ग पर चलाने की क्रिया । इसे ही कहते हैं साधना। वह साधना जिससे कि प्राप्त होने वाला अक्षय फल एक जन्म तो क्या कई जन्मों तक शक्ति प्रदान करता रहेगा। इसके मूल में जागृत हृदयपक्ष है, जागृत हृदय पक्ष में ही प्रेम की खेती होती है। यहीं पर गुलाब के फूल पल्लवित होते हैं, यहीं पर न खत्म होने वाली पद प्रतिष्ठा एवं प्राप्ति होती है। यहीं पर पद्म पर विराजमान महालक्ष्मी के दर्शन होते हैं। जिसने इसे समझ लिया, जी लिया, कर्मों को सम्पादित कर लिया वही निपुर्ण साधक कहलायेगा। उसी के आगे श्री शब्द शोभायमान हो गये। अंत में मैं कहता हूँ कि समझ-समझ के समझना भी एक समझ है और समझ समझ के भी जो न समझे मेरी समझ में वो नासमझ है। .

शिव शासनत: शिव शासनत:
@Sanatan
643 views𝑺𝒂𝒕𝒚𝒂𝒎 𝒏𝒊𝒌𝒉𝒊𝒍 , edited  14:50
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