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सनातन धर्म • Sanatan Dharma

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2022-06-02 06:06:13 संस्कृत शिक्षा

यही महेश्वर सूत्र है, या इसे पाणीनि के सूत्र के नाम से भी जानते हैं यही संस्कृत व्याकरण का मूल भी है ।
व्याकरण के सभी सूत्र महादेव की डमरू से फूटे हैं. वेद पहले से थे लेकिन उनको समझने के लिए तपस्या की दृष्टि चाहिए थी. घोर तप करके वेद देवता को प्रसन्न करना होता था तब वह अपना ज्ञान साधक के मन में प्रविष्ट कराते थे.

साधना और तपस्या का यह कार्य सरल नहीं था. इसीलिए वेदपाठी ब्राह्मण ऋषिगण या साधु-महात्मा ही होते थे. वेदों के ज्ञान के सार को सरल रूप में आम लोगों के लिए उपलब्ध कराने के लिए एक माध्यम की आवश्यकता थी.

महादेव के डमरू से फूटे चार ध्वनि अक्षरों की साधना करके पाणिनी जिन्हें वेद का अंशावतार माना जाता है, ने संस्कृत के सभी सूत्रों की रचना की और संस्कृत के सबसे बड़े ज्ञानी की उपाधि पाई. महादेव की कृपा से कैसे हुआ यह सब इसकी कथा सुनते हैं.

एक बार ऋषियों ने सूतजी से पूछा- भगवन! तीर्थों का दर्शन, दान, पूजा और व्रत-उपवास आदि में सबसे उत्तम धर्म साधन क्या है जिसका पालन करके मनुष्य इस भवसागर को सरलता से पार कर ले?

सूतजी बोले– ऋषियों आपने उत्तम प्रश्न किया है. इस संदर्भ में एक कथा सुनाता हूं. ध्यान से सुनो और समझो.

साम ऋषि के सबसे बड़े पुत्र का नाम पाणिनि था. पाणिनी मन लगाकर विद्या अभ्यास करते थे. ज्ञान प्राप्ति के हर संभव प्रयास में लगे रहते. उनमें सबसे बड़ा ज्ञानी बनने की धुन सवार हो गई पर उस समय पृथ्वी अद्वितीय विद्वानों से भरी थी.

ईश्वर की लीला देखिए. एक दिन अचानक पाणिनि को दैवयोग से यह आभास हुआ कि उनमें कुछ शक्ति ऐसी आ गई है कि वह कुछ असाधारण कर सकते हैं.

पाणिनि के पास ज्ञान साधारण ही था परंतु परमात्मा को जब कोई खेल रचना होता है तो वह कुछ न कुछ ऐसा कराते ही हैं जो अप्रत्याशित हो.

भगवान भोलेनाथ की माया ऐसी हुई कि पाणिनी ने अपनी बुद्धि जांचने के लिए सभी विद्वानों को शास्त्रार्थ की चुनौती दे दी. जिसे अभी ठीक से ज्ञान नहीं हुआ था उसने विद्वानों को शास्त्रार्थ की चुनौती दे दी

बात इतनी ही नहीं थी. अज्ञानता में पाणिनी ने सबसे पहले चुनौती दी भी तो किसे?
पणिनि ने कणाद ऋषि को ही शास्त्रार्थ की पहली चुनौती दे दी. कणाद उस समय के श्रेष्ठ विद्वानों में थे. उनके ज्ञान का सम्मान स्वयं वेद करते थे.

कणाद दिव्यदृष्टा थे. वह सब समझ गए. वह जानते थे कि पणिनी विलक्षण हैं किंतु उन्हें मिथ्या अभिमान हो गया है. कणाद ने पाणिनी की आंखें खोलने का निश्चय किया.

पाणिनी उनके पास शास्त्रार्थ के लिए आए तो कणाद ने बड़े आदर से स्वागत किया.

उन्होंने पाणिनी से कहा- पाणिनी पहले मेरे शिष्यों से ही शास्त्रार्थ कर लो. यदि तुम उन्हें पराजित कर सको तो फिर मैं तुमसे शास्त्रार्थ करने को सहर्ष तैयार हूं.

पाणनि का कणाद के शिष्यों के साथ शास्त्रार्थ आरंभ हुआ परंतु शीघ्र ही कणाद के शास्त्रज्ञ शिष्यों से वह पराजित हो गए. उन्हें अपनी क्षमता का बोध हो चुका था. वह लज्जित होकर उस क्षेत्र से निकले.

लज्जावश वह अपने घर भी नहीं लौट सकते थे. इसलिए तीर्थयात्रा के लिए चले गए.

सभी तीर्थों में स्नान तथा देवता-पितरों का तर्पण कर चुकने के बाद भी मन शांत न हुआ. पाणिनी के समक्ष जीवन आशाहीन लग रहा था.

उन्हें जगत के गुरू महादेव को प्रसन्नकर ज्ञान प्राप्त करने की सूझी तो केदारक्षेत्र में रहकर भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए तप करने लगे.

पाणिनी का तप धीरे-धीरे कठोर होता जा रहा था. पहले तो वह पूरी तरह से वृक्ष के पत्तों के आहार पर निर्भर रहे. सात दिनों बाद एकबार जल ग्रहण करते थे.

इसके बाद दसवें दिन केवल जल ग्रहण करने. बाद में उन्होंने जल भी त्याग दिया और दस दिनों तक केवल वायु के ही आहार पर निर्भर रहकर भगवान शिव का ध्यान करते रहे.

इस प्रकार अठ्ठाइस दिन बीत गये. पाणिनी की कठोर तपस्या निरंतर चल रही थी. पाणिनि की प्रतिज्ञा उनकी तपश्चर्या में दीख रही थी. अंतत: शीघ्र प्रसन्न होने वाले औघड़ दानी महादेव ने प्रकट होकर उनसे वर मांगने को कहा.

भगवान् शिव की स्तुति करने लगे- महान रुद को नमस्कार है. सर्वेश्वर सर्वहितकारी भगवान् को नमस्कार है. विजय एवं विद्या प्रदान करनेवाले भगवान महादेव को नमस्कार है. देवेश! मुझे मूल विद्या एवं परम शास्त्रज्ञान प्रदान करने की कृपा करें.

सूत जी बोले– हे ऋषिगणों, महादेवजी ने प्रसन्न होकर अपने डमरू से ध्वनि निकाली और उससे निकले ‘अ इ उ ण’ जैसे मंगलकारी वर्ण और व्याकरण सूत्र प्रदान किया.

शिवजी बोले- पाणिनी! मैंने जो प्रदान किया उसे सर्वोत्तम तीर्थ समझना. आत्मज्ञान से बड़ा कोई तीर्थ नहीं. बिना ज्ञान प्राप्त किए तीर्थ दर्शन का पूर्ण लाभ नहीं होता. यह महान-ज्ञानतीर्थ ब्रह्म के साक्षात्कार कराने तक में समर्थ है. सभी धर्म साधनों का एक साथ लाभ देने वाला है.

१/२
@Sanatan
488 views𝑺𝒂𝒕𝒚𝒂𝒎 𝒏𝒊𝒌𝒉𝒊𝒍 , 03:06
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2022-06-02 06:04:40
455 views𝑺𝒂𝒕𝒚𝒂𝒎 𝒏𝒊𝒌𝒉𝒊𝒍 , 03:04
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2022-06-01 04:31:52 २/२

रुद्राध्याय में वर्णित भगवान रुद्र के सभी नामों में अमृतत्व प्रदान करने की सामर्थ्य है, इसके पाठ से मनुष्य स्वयं रोगों व पापों से मुक्त होकर मृत्युंजय (अमर) हो जाता है ।

केवल रुद्राध्याय के पाठ से ही वेदपाठ के समान फल की प्राप्ति होती है ।
भगवान रुद्र की शतरुद्रीय उपासना से दु:खों का सब प्रकार से नाश हो जाता है । दु:खों का सर्वथा नाश ही मोक्ष कहलाता है ।

रुद्राष्टाध्यायी के छठे अध्याय को ‘महच्छिर’ कहा जाता है । इसी अध्याय में ‘महामृत्युंजय मन्त्र का उल्लेख है—

ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् । उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् । त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पतिवेदनम् । उर्वारुकमिव बन्धनादितो मुक्षीय मामुत: ।।

अर्थ—इस मन्त्र में भगवान त्र्यम्बक शिवजी से प्रार्थना है कि जिस प्रकार ककड़ी का पका फल वृन्त (डाल) से मुक्त हो जाता है, उसी प्रकार हमें आप जन्म-मरण के बन्धन से मुक्त करें । हम आपका यजन करते हैं ।

सातवें अध्याय को ‘जटा’ कहा जाता है। इस अध्याय के कुछ मन्त्र अन्त्येष्टि-संस्कार में प्रयोग किए जाते हैं ।

आठवे अध्याय को ‘चमकाध्याय’ कहा जाता है । इसमें २९ मन्त्र हैं । भगवान रुद्र से अपनी मनचाही वस्तुओं की प्रार्थना ‘च मे च मे’ अर्थात् ‘यह भी मुझे, यह भी मुझे’ शब्दों की पुनरावृत्ति के साथ की गयी है इसलिए इसका नाम ‘चमकम्’ पड़ा । रुद्राष्टाध्यायी के अंत में शान्त्याध्याय के २४ मन्त्रों में विभिन्न देवताओं से शान्ति की प्रार्थना की गयी है तथा स्वस्ति-प्रार्थनामंत्राध्याय में १२ मन्त्रों में स्वस्ति (मंगल, कल्याण, सुख) प्रार्थना की गयी है ।

रुद्री, लघुरुद्र, महारुद्र और अतिरुद्र अनुष्ठान!!!!!!!

रुद्राष्टाध्यायी के पांचवें अध्याय रुद्राध्याय की ११ आवृति (एकादश आवर्तन) और शेष अध्याय की एक आवृति के साथ अभिषेक से एक ‘रुद्री’ होती है इसे ‘एकादशिनी’ भी कहते हैं ।

एकादश (११) रुद्री से लघुरुद्र, ११ लघुरुद्र से महारुद्र और ११ महारुद्र (अर्थात् रुद्राध्याय पाठ के १२१ जप) से अतिरुद्र का अनुष्ठान होता है ।

रुद्री, लघुरुद्र, महारुद्र और अतिरुद्र से भगवान शिव का अभिषेक, पाठ व होम किया जाता है ।

‘लघुरुद्र’ से शिवलिंग का अभिषेक करने वाला साधक मुक्ति प्राप्त करता है ।
‘महारुद्र’ के पाठ, जप व होम से दरिद्र व्यक्ति भी भाग्यवान बन जाता है ।
‘अतिरुद्र’ पाठ व जप की कोई तुलना नहीं है । इससे ब्रह्महत्या जैसे पाप भी दूर हो जाते हैं।


साभार - मनीष शेखर
२/२

@Sanatan
502 views𝑺𝒂𝒕𝒚𝒂𝒎 𝒏𝒊𝒌𝒉𝒊𝒍 , edited  01:31
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2022-06-01 04:31:52 शिव को क्यों अतिप्रिय रुद्राभिषेक और रुद्राष्टाध्याय

बहुत ही सरल शब्दों में जानें रुद्राष्टाध्यायी किसे कहते हैं ? शिवलिंग का विभिन्न धाराओं से रुद्राभिषेक करने का क्या है का फल; साथ ही शतरुद्रिय, लघुरुद्र, महारुद्र व अतिरुद्र के बारे में जानकारी ।

भगवान शिव के मनभावन श्रावणमास में प्राय: सभी शिवमन्दिरों में रुद्राभिषेक या रुद्री पाठ की बहार देखने को मिलती है । भक्तगण शिवलिंग पर रुद्राध्यायी के मन्त्रों से दूध या जल का अभिषेक करते हैं परन्तु अधिकांश लोगों को यह पता नहीं होता है कि पंडितजी किन मन्त्रों का पाठ कर रहे हैं या उनकी महिमा क्या है ? आज इस पोस्ट में सरल शब्दों में रुद्राष्टाध्यायी और रुद्राभिषेक के बारे बताया गया है ।

वेद में शिव को ‘रुद्र’ कहा गया है क्योंकि वे दु:ख को नष्ट कर देते हैं । वेद में विभिन्न देवों की स्तुति के सूक्त (मन्त्रों का समूह) दिए गए हैं ।

यजुर्वेद की शुक्लयजुर्वेद संहिता में आठ अध्यायों में भगवान रुद्र का विस्तृत वर्णन किया गया है, जिसे ‘रुद्राष्टाध्यायी’ कहते हैं । जिस प्रकार मानव शरीर में हृदय का महत्त्व है, उसी प्रकार भगवान शिव की आराधना में रुद्राष्टाध्यायी अत्यंत ही मूल्यवान है क्योंकि इसके बिना न तो रुद्राभिषेक संभव है और न ही रुद्री पाठ ही किया जा सकता है ।

भगवान शिव को अत्यन्त प्रिय रुद्राभिषेक!!!!!!!

रुद्राष्टाध्यायी के मन्त्रपाठ के साथ जल, दूध, पंचामृत, आमरस, गन्ने का रस, नारियल के जल व गंगाजल आदि से शिवलिंग का जो अभिषेक किया जाता है, उसे ‘रुद्राभिषेक’ कहते हैं ।

रुद्राष्टाध्यायी के मन्त्रों द्वारा शिवलिंग के अभिषेक का माहात्म्य
शिवपुराण के अनुसार पवित्र मन, वचन और कर्म द्वारा भगवान शूलपाणि का रुद्राष्टाध्यायी के मन्त्रों से अभिषेक करने से मनुष्य की समस्त कामनाओं की पूर्ति हो जाती है और मृत्यु के बाद वह परम गति को प्राप्त होता है ।

मनोकामना पूर्ति के लिए विभिन्न धाराओं से रुद्राभिषेक का फल
— रोगों की शान्ति के लिए—कुशा लगाकर जलधारा से
— पशुधन की प्राप्ति के लिए—दही की धारा से
— लक्ष्मी की प्राप्ति के लिए—गन्ने के रस से
— जिसकी संतान जीवित न रहती हो उस दम्पत्ति को पुत्र व संतान प्राप्ति के लिए—दूध की धारा से
— वंश के विस्तार के लिए—घी की धारा से
—प्रमेह रोग के नाश के लिए, जड़ता दूर कर बुद्धि प्राप्ति के लिए, संतान के विवाह के लिए व मुकदमें में विजय प्राप्ति के लिए—शक्कर मिले दूध की धारा से
— शत्रु नाश के लिए—चमेली के तेल की धारा से ।

रुद्राष्टाध्यायी के आठ अध्याय हैं!

रुद्राष्टाध्यायी का प्रथम अध्याय ‘शिवसंकल्प सूक्त’ कहा जाता है । इसमें साधक का मन शुभ विचार वाला हो, ऐसी प्रार्थना की गयी है । यह अध्याय गणेशजी का माना जाता है । इस अध्याय का पहला मन्त्र श्रीगणेश का प्रसिद्ध मन्त्र है—‘गणानां त्वा गणपति हवामहे प्रियाणां त्वा प्रियपति हवामहे निधिनां त्वा निधिपति हवामहे। वसो मम ।।’

रुद्राष्टाध्यायी का द्वितीय अध्याय भगवान विष्णु का माना जाता है । इसमें १६ मन्त्र ‘पुरुष सूक्त’ के हैं जिसके देवता विराट् पुरुष हैं । सभी देवताओं का षोडशोपचार पूजन पुरुष सूक्त के मन्त्रों से ही किया जाता है । इसी अध्याय में लक्ष्मीजी के मन्त्र भी दिए गए हैं ।

तृतीय अध्याय के देवता इन्द्र हैं । इस अध्याय को ‘अप्रतिरथ सूक्त’ कहा जाता है । इसके मन्त्रों के द्वारा इन्द्र की उपासना करने से शत्रुओं और प्रतिद्वन्द्वियों का नाश होता है ।

चौथा अध्याय ‘मैत्र सूक्त’ के नाम से जाना जाता है । इसके मन्त्रों में भगवान मित्र अर्थात् सूर्य का सुन्दर वर्णन व स्तुति की गयी है ।

रुद्राष्टाध्यायी का प्रधान अध्याय पांचवा है । इसमें ६६ मन्त्र हैं । इसको ‘शतरुद्रिय’, ‘रुद्राध्याय’ या ‘रुद्रसूक्त’ कहते हैं ।

शतरुद्रिय यजुर्वेद का वह अंश है, जिसमें रुद्र के सौ या उससे अधिक नाम आए हैं और उनके द्वारा रुद्रदेव की स्तुति की गयी है । रुद्राध्याय के आरम्भ में भगवान रुद्र के बहुत से नाम ‘नमो नम:’ शब्दों से बारम्बार दुहराये जाने के कारण इस भाग का नाम ‘नमकम्’ पड़ा । इसका प्रथम मन्त्र ही कितना सुन्दर है—

ॐ नमस्ते रुद्र मन्यव उतो त इषवे नम:।
बाहुभ्यामुत ते नम: ।।

अर्थ—‘हे रुद्रदेव ! आपके क्रोध को हमारा नमस्कार है । आपके बाणों को हमारा नमस्कार है एवं आपके बाहुओं को हमारा नमस्कार है ।’

इस मन्त्र में दुष्टों के नाश के लिए रुद्र के क्रोध, बाणों और बाहुओं को नमस्कार किया गया है ।

शतरुद्रिय की महिमा को इसी बात से जाना जा सकता है कि एक बार याज्ञवल्क्य ऋषि से शिष्यों ने पूछा—‘किसके जप से अमृत तत्त्व (अमरता) की प्राप्ति होती है ?’ ऋषि ने उत्तर दिया—‘शतरुद्रिय के जप से ।’

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@Sanatan
474 views𝑺𝒂𝒕𝒚𝒂𝒎 𝒏𝒊𝒌𝒉𝒊𝒍 , edited  01:31
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2022-06-01 04:31:00
448 views𝑺𝒂𝒕𝒚𝒂𝒎 𝒏𝒊𝒌𝒉𝒊𝒍 , 01:31
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2022-05-31 04:04:40 नित्य पूजन में पाठ करने योग्य गणपति व् सर्व देव स्मरण ।

इसके वाचिक पाठ करना चाहिए इससे जीवन में सकारात्मकता बढ़ता है।

इसको कंठश्थ कर लेना चाहिए ।

॥ गणपति स्मरण ॥

सुमुखश्चेकदंतश्च कपिलो गजकर्णक: । लम्बोदरश्च विकटो विघ्ननाशो विनायक: ॥
धुम्रकेतुर्गणाध्यक्षो भालचंद्रो गजानन: । द्वादशैतानि नामानि य: पठेच्छृणुयादपि ॥
विद्यारम्भे विवाहे च प्रवेशे निर्गमे तथा । संग्रामे संकटे चैव विघ्नस्तस्य न जायते ॥
शुक्लाम्बरधरं देवं शशिवर्णं चतुर्भुजं । प्रसन्नवदनं ध्यायेत सर्वविघ्नोपशांतये ॥
अभिप्सितार्थं सिद्धयर्थं पूजितो य: सुरासुरै: । सर्व विघ्नहरस्तस्मै: गणाधिपतये नम: ॥
सर्वमंगल मांगल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके । शरण्ये त्र्यम्बके गौरी नारायणी नमोSस्तु ते ॥
मंगलं भगवान विष्णु: मंगलं गरुणध्वज: । मंगलं पुण्डरीकाक्षं मंगलायतनो हरी: ॥
सर्वदा सर्व कार्येषु नास्ति तेषाममंगलं । येषां हृदिस्थो भगवान मंगलायतनो हरि: ॥
तदैव लग्नं सुदिनं तदैव ताराबलं चंद्रबलं तदैव विद्याबलं दैवबलं तदैव । तदैव लक्ष्मीपतेस्तेऽनङ्घ्रियुगस्मरामी ॥
लाभस्तेषां जयस्तेषां कुतस्तेषां पराजय: । येषामिंदीवरश्यानो हृदयस्थो जनार्दन: ॥
यत्र योगेश्वर: कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धर: । तत्र श्रीर्विजयोभूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम ॥
सर्वेस्वारम्भकार्येषु देवास्त्रिभुवनेश्वरा: । देवा: दिशंतु न: सिद्धिं ब्रह्मेशानमहेश्वरा: ॥
विनायकं गुरुं भानुं ब्रह्मविष्णुमहेश्वरान । सरस्वतीं प्रणौम्यादौ सर्वकार्यार्थसिद्धये ॥
विश्वेशं माधवं ढुण्डिं दण्डपाणिं च भैरवं । वंदे काशीं गुहां गंगां भवानीं मणिकर्णिकां ॥
वक्रतुण्ड महाकाय सूर्यकोटि समप्रभ: । निर्विघ्नं कुरु मे देव सर्व कार्येषु सर्वदा ॥

ॐ सिद्धि बुद्धि शुभ लाभ सहिताय श्रीमन् महागणाधिपतये नम: ।
ॐ लक्ष्मी नारायणाभ्यां नम: । ॐ उमा महेश्वराभ्यां नम: ।
ॐ वाणी हिरण्यगर्भाभ्यां नम: । ॐ शचि पुरंदराभ्यां नम: ।
ॐ इष्ट देवताभ्यो नम: । ॐ कुल देवताभ्यो नम: ।
ॐ स्थान देवताभ्यो नम: । ॐ वास्तु देवताभ्यो नम: ।
ॐ ग्राम देवताभ्यो नम: । ॐ मातृपितृ चरणकमलेभ्यो नम: ।
ॐ सर्वेभ्यो देवेभ्यो नम: । ॐ सर्वेभ्यो देवे शक्तिभ्यो नम: ।
ॐ सर्वेभ्यो आदित्येभ्यो नम: । ॐ सर्वेभ्यो तिर्थेभ्यो नम: ।
ॐ सर्वेभ्यो ब्राह्मणेभ्यो नम: । ॐ एतत्कर्म प्रधान देवताय नम: ।


@Sanatan
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2022-05-30 04:57:31 दशरथकृत शनि स्तोत्रम्
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नमः कृष्णाय नीलाय शितिकण्ठनिभाय च ।
नमः कालाग्निरुपाय कृतान्ताय च वै नमः ॥

नमो निर्मासदेहाय दीर्घश्मश्रुजटाय च ।
नमो विशालनेत्राय शुष्कोदरभयाकृते ॥

नमः पुष्कलगात्राय स्थूलरोम्णेऽथ वै नमः ।
नमो दीर्घाय शुष्काय कालदंष्ट्र नमोऽस्तुते ॥

नमस्ते कोटराक्षाय दुर्निरीक्ष्याय वै नमः ।
नमो घोराय रौद्राय भीषणाय कपालिने ॥

नमस्ते सर्वभक्षाय बलीमुख नमोऽस्तुते ।
सूर्यपुत्र नमस्तेऽस्तु भास्करेऽभयदाय च ॥

अधोदृष्टे नमस्तेऽस्तु संवर्तक नमोऽस्तुते ।
नमो मन्दगते तुभ्यं निस्त्रिंशाय नमोऽस्तुते ॥

तपसा दग्ध देहाय नित्यं योगरताय च ।
नमो नित्यं क्षुधार्ताय अतृप्ताय च वै नमः ॥

ज्ञानचक्षुर्नमस्तेऽस्तु काश्यपात्मजसूनवे ।
तुष्टो ददासि वै राज्यं रुष्टो हरसि तत्क्षणात् ॥

देवासुरमनुष्याश्च सिद्धविद्याधरोरगाः ।
तव्या विलोकिताः सर्वे नाशं यान्ति समूलतः ॥

प्रसादं कुरु सौरे वरदी भव भास्करे ।
एवं स्तुतस्तदा सौरिर्ग्रहराजो महाबलः ।।

अब्रवीच्च शनिर्वाक्यं हृष्टरोमा च पार्थिवः ।
तुष्टोऽहं तव राजेन्द्र स्तोत्रेणाऽनेन सुव्रत ।।

एवं वरं प्रदास्यामि यत्ते मनसि वर्तते ।
प्रसन्नो यदि मे सौरे वरं देहि ममेप्सितम् ।।
अद्य प्रभृतिपिंगाक्ष पीडा देया न कस्यचित् ।
प्रसादं कुरु मे सौरे वरोऽयं मे महेप्सितः ।।

@Sanatan
465 views𝑺𝒂𝒕𝒚𝒂𝒎 𝒏𝒊𝒌𝒉𝒊𝒍 , edited  01:57
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2022-05-30 04:57:22
@Sanatan
430 views𝑺𝒂𝒕𝒚𝒂𝒎 𝒏𝒊𝒌𝒉𝒊𝒍 , edited  01:57
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2022-05-28 08:58:50 परम् न्यायधीश (४)
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हाँ नकली दुर्गा भी हैं, नकली काली भी हैं, नकली गणेश भी हैं, यह तो समुद्र मंथन के समय ही हो गया था जब राहु और केतु नकली देव बनकर अमृत पीने के लिए देव पंक्ति में बैठ गये थे। कृष्ण के जमाने में भी नकली कृष्ण उत्पन्न हो गये थे। पैशाचिक शक्तियाँ, असुर शक्तियाँ, दैत्य शक्तियाँ, नकली निर्माण करती हैं। असुरत्व से ग्रसित व्यक्ति नकली अंग बनाते हैं, नकली आँख बनाते हैं, नकली बाल लगाते हैं, नकली दूध बनाते हैं, असुरों ने तो फर्जी विश्वकर्मा, फर्जी चंद्रमा, नकली अप्सरायें भी बना ली थीं जब उनका स्वर्ग पर शासन हो गया था। आज देखो तो दरबार लगे रहते हैं, माता की बैठकें होती हैं, किसी को भैरव आते हैं तो किसी को हनुमान जी आते हैं। यह सब नाटक है फर्जी नाटक यहाँ पर सिर्फ भूत- -प्रेत, पिशाच जैसी मायावी शक्तियाँ फर्जी दुर्गा, फर्जी काली, फर्जी भैरव, फर्जी हनुमान बनकर क्रियाशील होती हैं, पूजा मांगती हैं, बलि मांगती हैं, नारियल, सुपारी मांगती हैं, पैसे भी मांगती हैं। कहीं पर भी वास्तविक शक्ति इस तरह से नहीं आती। बहुत से साधक आते हैं, ग्रसित व्यक्ति आते हैं, जीभ निकालते हैं, प्रपंच करते हैं परन्तु सबके सब प्रेतत्व से ग्रसित हैं, पिशाचत्व से ग्रसित हैं। कहीं पर भी दिव्य शक्ति नहीं है सब जगह फर्जी शक्तियाँ बैठी हुई हैं। हाँ काम तो ये थोड़ा बहुत कर देती हैं पर जो कहती हैं वह होती नहीं हैं। एक और बात इन पर शनि वक्र दृष्टि डालते हैं और इनके पिशाचत्व को खींच अपने इर्द-गिर्द घूम रहे क्षुद्र ग्रहों में प्रतिष्ठित कर देते हैं। सामान्यतः शनि की महादशा के अंतर्गत जातक फर्जी शक्तियों से ग्रसित हो जाता है।

दस महाविद्याओं की बात करते हैं जिस प्रकार शनि देव बिना छत्र के बिना छाया के स्वच्छंद आकाश के नीचे विराजमान होते हैं उसी प्रकार महाविद्याएं भी अपनी स्वच्छंदता और स्वतंत्रता नहीं छोड़तीं। कोई भी परम शक्ति को सर्वप्रिय उसकी स्वच्छंदता और स्वतंत्रता होती है, वह बाध्यता से बचती है महाविद्याओं के मंदिर कहाँ हैं? एक भी हो तो मुझे बताओ अतः ये सब तो अनंत ब्राह्मण्डों में आनंद के साथ विचरण करती रहती हैं। हाँ कभी कभार वामक्षेपा, स्वामी निखिलेश्वरानंद जी या पीताम्बराशक्तिपीठ के राष्ट्र गुरु श्री 1008 श्री स्वामी जी महाराज वनखण्डेश्वर इत्यादि जैसी महान विभूतियाँ अपने तपोबल पर इनके अंशांश एक विशेष स्थान पर क्रियाशील कराने में सक्षम हो जाते हैं और इस प्रकार कुछ सीमित समय के लिए तपस्वी अपने तपोबल पर महाविद्या की विशेष शक्ति पीठ निर्मित करने में सफल हो पाता है। शक्तिपीठ पर भी कभी-कभार दो चार दस वर्षों में एक दिव्य तरंग सूर्य मण्डल को भेदते हुए स्पर्शित हो जाती है। छिन्नमस्ता का मंदिर कहीं नहीं है, दक्षिण काली का मंदिर कहीं नहीं है, बगलामुखी का मंदिर कहीं नहीं है। जो कुछ हैं वे शक्तिपीठ ही हैं। मंदिर का तात्पर्य है देव शक्ति का स्थाई वास ऐसा कहीं नहीं है अपितु अंशांश, अति सूक्ष्मांश में शक्ति विशेष शक्ति पीठ पर यदा-कदा संस्पर्शित होती रहती है। शनि देव के इस लेख में परम सत्य आवरण विहीन किया गया है, न आवरण में रहते हैं न आवरण रहने देते हैं
ॐ शं शनैश्चराय नमः ।
शिव शासनत: शिव शासनत:
@Sanatan
426 views𝑺𝒂𝒕𝒚𝒂𝒎 𝒏𝒊𝒌𝒉𝒊𝒍 , edited  05:58
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