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सनातन धर्म • Sanatan Dharma

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2022-08-14 04:46:37 इसके अलावा मान्यता हैं कि अगस्त्य, कष्यप, अष्टावक्र, याज्ञवल्क्य, कात्यायन, ऐतरेय, कपिल, जेमिनी, गौतम आदि सभी ऋषि उक्त सात ऋषियों के कुल के होने के कारण इन्हें भी वही दर्जा प्राप्त है।

साभार - मनीष शेखर
@Sanatan
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2022-08-14 04:46:37 राजा दशरथ के कुलगुरु ऋषि वशिष्ठ को कौन नहीं जानता। ये दशरथ के चारों पुत्रों के गुरु थे। वशिष्ठ के कहने पर दशरथ ने अपने चारों पुत्रों को ऋषि विश्वामित्र के साथ आश्रम में राक्षसों का वध करने के लिए भेज दिया था। कामधेनु गाय के लिए वशिष्ठ और विश्वामित्र में युद्ध भी हुआ था। वशिष्ठ ने राजसत्ता पर अंकुश का विचार दिया तो उन्हीं के कुल के मैत्रावरूण वशिष्ठ ने सरस्वती नदी के किनारे सौ सूक्त एक साथ रचकर नया इतिहास बनाया।

२. विश्वामित्र....

ऋषि होने के पूर्व विश्वामित्र राजा थे और ऋषि वशिष्ठ से कामधेनु गाय को हड़पने के लिए उन्होंने युद्ध किया था, लेकिन वे हार गए।

इस हार ने ही उन्हें घोर तपस्या के लिए प्रेरित किया। विश्वामित्र की तपस्या और मेनका द्वारा उनकी तपस्या भंग करने की कथा जगत प्रसिद्ध है।

विश्वामित्र ने अपनी तपस्या के बल पर त्रिशंकु को सशरीर स्वर्ग भेज दिया था। इस तरह ऋषि विश्वामित्र के असंख्य किस्से हैं।

माना जाता है कि हरिद्वार में आज जहां शांतिकुंज हैं उसी स्थान पर विश्वामित्र ने घोर तपस्या करके इंद्र से रुष्ठ होकर एक अलग ही स्वर्ग लोक की रचना कर दी थी।

विश्वामित्र ने इस देश को ऋचा बनाने की विद्या दी और गायत्री मन्त्र की रचना की जो भारत के हृदय में और जिह्ना पर हजारों सालों से आज तक अनवरत निवास कर रहा है।

३. कण्व......

माना जाता है इस देश के सबसे महत्वपूर्ण यज्ञ सोमयज्ञ को कण्वों ने व्यवस्थित किया। कण्व वैदिक काल के ऋषि थे। इन्हीं के आश्रम में हस्तिनापुर के राजा दुष्यंत की पत्नी शकुंतला एवं उनके पुत्र भरत का पालन-पोषण हुआ था।

४. भारद्वाज....

वैदिक ऋषियों में भारद्वाज-ऋषि का उच्च स्थान है। भारद्वाज के पिता बृहस्पति और माता ममता थीं। भारद्वाज ऋषि राम के पूर्व हुए थे.

लेकिन एक उल्लेख अनुसार उनकी लंबी आयु का पता चलता है कि वनवास के समय श्रीराम इनके आश्रम में गए थे, जो ऐतिहासिक दृष्टि से त्रेता-द्वापर का सन्धिकाल था।

माना जाता है कि भरद्वाजों में से एक भारद्वाज विदथ ने दुष्यन्त पुत्र भरत का उत्तराधिकारी बन राजकाज करते हुए मन्त्र रचना जारी रखी।

ऋषि भारद्वाज के पुत्रों में १० ऋषि ऋग्वेद के मन्त्रदृष्टा हैं और एक पुत्री जिसका नाम 'रात्रि' था, वह भी रात्रि सूक्त की मन्त्रदृष्टा मानी गई हैं।

ॠग्वेद के छठे मण्डल के द्रष्टा भारद्वाज ऋषि हैं। इस मण्डल में भारद्वाज के ७६५ मन्त्र हैं। अथर्ववेद में भी भारद्वाज के २३ मन्त्र मिलते हैं।

'भारद्वाज-स्मृति' एवं 'भारद्वाज-संहिता' के रचनाकार भी ऋषि भारद्वाज ही थे। ऋषि भारद्वाज ने 'यन्त्र-सर्वस्व' नामक बृहद् ग्रन्थ की रचना की थी। इस ग्रन्थ का कुछ भाग स्वामी ब्रह्ममुनि ने 'विमान-शास्त्र' के नाम से प्रकाशित कराया है। इस ग्रन्थ में उच्च और निम्न स्तर पर विचरने वाले विमानों के लिए विविध धातुओं के निर्माण का वर्णन मिलता है।

५. अत्रि....

ऋग्वेद के पंचम मण्डल के द्रष्टा महर्षि अत्रि ब्रह्मा के पुत्र, सोम के पिता और कर्दम प्रजापति व देवहूति की पुत्री अनुसूया के पति थे।

अत्रि जब बाहर गए थे तब त्रिदेव अनसूया के घर ब्राह्मण के भेष में भिक्षा मांगने लगे और अनुसूया से कहा कि जब आप अपने संपूर्ण वस्त्र उतार देंगी तभी हम भिक्षा स्वीकार करेंगे, तब अनुसूया ने अपने सतित्व के बल पर उक्त तीनों देवों को अबोध बालक बनाकर उन्हें भिक्षा दी। माता अनुसूया ने देवी सीता को पतिव्रत का उपदेश दिया था।

अत्रि ऋषि ने इस देश में कृषि के विकास में पृथु और ऋषभ की तरह योगदान दिया था। अत्रि लोग ही सिन्धु पार करके पारस (आज का ईरान) चले गए थे, जहां उन्होंने यज्ञ का प्रचार किया।

अत्रियों के कारण ही अग्निपूजकों के धर्म पारसी धर्म का सूत्रपात हुआ। अत्रि ऋषि का आश्रम चित्रकूट में था।

मान्यता है कि अत्रि-दम्पति की तपस्या और त्रिदेवों की प्रसन्नता के फलस्वरूप विष्णु के अंश से महायोगी दत्तात्रेय, ब्रह्मा के अंश से चन्द्रमा तथा शंकर के अंश से महामुनि दुर्वासा महर्षि अत्रि एवं देवी अनुसूया के पुत्र रूप में जन्मे। ऋषि अत्रि पर अश्विनीकुमारों की भी कृपा थी।

६. वामदेव....

वामदेव ने इस देश को सामगान (अर्थात् संगीत) दिया। वामदेव ऋग्वेद के चतुर्थ मंडल के सूत्तद्रष्टा, गौतम ऋषि के पुत्र तथा जन्मत्रयी के तत्ववेत्ता माने जाते हैं।

७. शौनक...

शौनक ने दस हजार विद्यार्थियों के गुरुकुल को चलाकर कुलपति का विलक्षण सम्मान हासिल किया और किसी भी ऋषि ने ऐसा सम्मान पहली बार हासिल किया। वैदिक आचार्य और ऋषि जो शुनक ऋषि के पुत्र थे।

फिर से बताएं तो वशिष्ठ, विश्वामित्र, कण्व, भरद्वाज, अत्रि, वामदेव और शौनक- ये हैं वे सात ऋषि जिन्होंने इस देश को इतना कुछ दे डाला कि कृतज्ञ देश ने इन्हें आकाश के तारामंडल में बिठाकर एक ऐसा अमरत्व दे दिया कि सप्तर्षि शब्द सुनते ही हमारी कल्पना आकाश के तारामंडलों पर टिक जाती है।

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2022-08-14 04:46:37 ऋषि का क्या है महत्व- महत्वपूर्ण जानकारी.

अंगिरा ऋषि....

ऋग्वेद के प्रसिद्ध ऋषि अंगिरा ब्रह्मा के पुत्र थे। उनके पुत्र बृहस्पति देवताओं के गुरु थे। ऋग्वेद के अनुसार, ऋषि अंगिरा ने सर्वप्रथम अग्नि उत्पन्न की थी।

विश्वामित्र ऋषि....

गायत्री मंत्र का ज्ञान देने वाले विश्वामित्र वेदमंत्रों के सर्वप्रथम द्रष्टा माने जाते हैं। आयुर्वेदाचार्य सुश्रुत इनके पुत्र थे।

विश्वामित्र की परंपरा पर चलने वाले ऋषियों ने उनके नाम को धारण किया। यह परंपरा अन्य ऋषियों के साथ भी चलती रही।

वशिष्ठ ऋषि....

ऋग्वेद के मंत्रद्रष्टा और गायत्री मंत्र के महान साधक वशिष्ठ सप्तऋषियों में से एक थे। उनकी पत्नी अरुंधती वैदिक कर्मो में उनकी सहभागी थीं।

कश्यप ऋषि....

मारीच ऋषि के पुत्र और आर्य नरेश दक्ष की १३ कन्याओं के पुत्र थे। स्कंद पुराण के केदारखंड के अनुसार, इनसे देव, असुर और नागों की उत्पत्ति हुई।

जमदग्नि ऋषि....

भृगुपुत्र यमदग्नि ने गोवंश की रक्षा पर ऋग्वेद के १६ मंत्रों की रचना की है। केदारखंड के अनुसार, वे आयुर्वेद और चिकित्साशास्त्र के भी विद्वान थे।

अत्रि ऋषि....

सप्तर्षियों में एक ऋषि अत्रि ऋग्वेद के पांचवें मंडल के अधिकांश सूत्रों के ऋषि थे। वे चंद्रवंश के प्रवर्तक थे। महर्षि अत्रि आयुर्वेद के आचार्य भी थे।

अपाला ऋषि...

अत्रि एवं अनुसुइया के द्वारा अपाला एवं पुनर्वसु का जन्म हुआ। अपाला द्वारा ऋग्वेद के सूक्त की रचना की गई। पुनर्वसु भी आयुर्वेद के प्रसिद्ध आचार्य हुए।

नर और नारायण ऋषि....

ऋग्वेद के मंत्र द्रष्टा ये ऋषि धर्म और मातामूर्ति देवी के पुत्र थे। नर और नारायण दोनों भागवत धर्म तथा नारायण धर्म के मूल प्रवर्तक थे।

पराशर ऋषि....

ऋषि वशिष्ठ के पुत्र पराशर कहलाए, जो पिता के साथ हिमालय में वेदमंत्रों के द्रष्टा बने। ये महर्षि व्यास के पिता थे।

भारद्वाज ऋषि....

बृहस्पति के पुत्र भारद्वाज ने 'यंत्र सर्वस्व' नामक ग्रंथ की रचना की थी, जिसमें विमानों के निर्माण, प्रयोग एवं संचालन के संबंध में विस्तारपूर्वक वर्णन है। ये आयुर्वेद के ऋषि थे तथा धन्वंतरि इनके शिष्य थे।

आकाश में सात तारों का एक मंडल नजर आता है उन्हें सप्तर्षियों का मंडल कहा जाता है। उक्त मंडल के तारों के नाम भारत के महान सात संतों के आधार पर ही रखे गए हैं।

वेदों में उक्त मंडल की स्थिति, गति, दूरी और विस्तार की विस्तृत चर्चा मिलती है।

प्रत्येक मनवंतर में सात सात ऋषि हुए हैं। यहां प्रस्तुत है वैवस्तवत मनु के काल में जन्में सात महान ‍ऋषियों का संक्षिप्त परिचय।

वेदों के रचयिता ऋषि.....

ऋग्वेद में लगभग एक हजार सूक्त हैं, लगभग दस हजार मन्त्र हैं। चारों वेदों में करीब बीस हजार हैं और इन मन्त्रों के रचयिता कवियों को हम ऋषि कहते हैं।

बाकी तीन वेदों के मन्त्रों की तरह ऋग्वेद के मन्त्रों की रचना में भी अनेकानेक ऋषियों का योगदान रहा है।

इनमें भी सात ऋषि ऐसे हैं जिनके कुलों में मन्त्र रचयिता ऋषियों की एक लम्बी परम्परा रही। ये कुल परंपरा ऋग्वेद के सूक्त दस मंडलों में संग्रहित हैं और इनमें दो से सात यानी छह मंडल ऐसे हैं जिन्हें हम परम्परा से वंशमंडल कहते हैं.

क्योंकि इनमें छह ऋषिकुलों के ऋषियों के मन्त्र इकट्ठा कर दिए गए हैं।

वेदों का अध्ययन करने पर जिन सात ऋषियों या ऋषि कुल के नामों का पता चलता है वे नाम क्रमश: इस प्रकार है....

१.वशिष्ठ, २.विश्वामित्र, ३.कण्व, ४.भारद्वाज, ५.अत्रि, ६.वामदेव और ७.शौनक।

पुराणों में सप्त ऋषि के नाम पर भिन्न-भिन्न नामावली मिलती है। विष्णु पुराण अनुसार इस मन्वन्तर के सप्तऋषि इस प्रकार है....

वशिष्ठकाश्यपो यात्रिर्जमदग्निस्सगौत।
विश्वामित्रभारद्वजौ सप्त सप्तर्षयोभवन्।।

अर्थात् सातवें मन्वन्तर में सप्तऋषि इस प्रकार हैं:- वशिष्ठ, कश्यप, अत्रि, जमदग्नि, गौतम, विश्वामित्र और भारद्वाज।

*इसके अलावा पुराणों की अन्य नामावली इस प्रकार है:- ये क्रमशः केतु, पुलह, पुलस्त्य, अत्रि, अंगिरा, वशिष्ट तथा मारीचि है।*

महाभारत में सप्तर्षियों की दो नामावलियां मिलती हैं।

एक नामावली में कश्यप, अत्रि, भारद्वाज, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्नि और वशिष्ठ के नाम आते हैं.

दूसरी नामावली में पांच नाम बदल जाते हैं। कश्यप और वशिष्ठ वहीं रहते हैं पर बाकी के बदले मरीचि, अंगिरस, पुलस्त्य, पुलह और क्रतु नाम आ जाते हैं।

कुछ पुराणों में कश्यप और मरीचि को एक माना गया है तो कहीं कश्यप और कण्व को पर्यायवाची माना गया है। यहां प्रस्तुत है वैदिक नामावली अनुसार सप्तऋषियों का परिचय।

१. वशिष्ठ...

१/३

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2022-08-09 09:42:26 गणेश पूजन ध्यान देने योग्य तथ्य (२)
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अभिषेक

ताम्रपात्र रखे हुए पवित्र जल से गणपति भगवान का महाभिषेक करते समय गणेशाथर्वशीर्ष की इक्कीस आवृत्ति करने का विधान है।

दूर्वा

पाटल (लाल) वर्ण वाली और सुरभित कुसुमावली के साथ-साथ दूर्वाङ्कुर भी गणेश जी को अर्पण किये जाते हैं, किन्तु उनकी पूजा में तुलसीदल का प्रयोग नहीं किया जाता
न तुलस्या गणाधिपम् ।

नीराजन - मंत्र

विद्यारण्यहुताशं विहितानयनाशम् ।
विपदवनीधरकुलिशं विधृताङ्कुशपाशम् ॥
विजयार्क ज्वलिताशं विदलितभवपाशम् ।
विनताः स्मो वयमनिशं विद्याविभवेशम् ॥


अर्थात हम सभी आराधक नित्य निरन्तर उन गणेश जी के सम्मुख विनयावनत हैं, जो समस्त विघ्नरूपी वनों का दहन करने के लिये प्रबल अनल हैं, जो अनीति और अन्याय का तत्काल विनाश कर देते हैं, जो विपत्ति के पर्वतों को नष्ट-भ्रष्ट करने के लिये वज्रोपम हैं, जिनके एक कर-कमल में अंकुश और दूसरे में पाश विराजमान हैं, जिन्होंने विघ्न विजय रूपी सूर्य के प्रकाश में दसों दिशाऐं प्रकाशित कर दी हैं, जो अपने उपासकों के भव-बन्धन को शिथिल कर देते हैं और जो समस्त विद्याओं के वैभव के अधीश्वर हैं।

प्रणाम पत्र

विवेश्वराय वरदाय सुरप्रियाय लम्बोदराय सकलाय जगद्धिताय । नागाननाय श्रुतियज्ञविभूषिताय गौरीसुताय गणनाथ नमो नमस्ते ॥

अर्थात हे गणपते ! आप विघ्नों के शासक हैं, अतएव आराधकों को उनके द्वारा उत्पीड़ित नहीं होने देते। आप अपने उपासकों को उनके अभीष्ट वर देकर कृतार्थ कर देते हैं। सारे देवता आपको प्रिय हैं और आप सब देवताओं को प्रिय हैं। आप लम्बोदर हैं, चतुष्षष्टि कलाओं के निधान हैं और जगत् का मंगल करने के लिये सदा तत्पर रहते हैं। आप गजवदन हैं और श्रुत्युक्त यज्ञों को अपने आभूषणों के समान स्वीकार कर लेते हैं। आप पार्वती नन्दन हैं हम आपके चरणों में बारम्बार प्रणाम करते हैं ।

गणेश गायत्री

एकदन्ताय विद्महे, वक्रतुण्डाय धीमहि तन्नो दन्ती प्रचोदयात् ।
तत्पुरुषाय विद्महे, वक्रतुण्डाय धीमहि । तन्नोदन्ती प्रचोदयात् ।

अर्थात हम एकदन्त परमपुरुष गणपति भगवान को जानते हैं, मानते हैं और उन वक्रतुण्डभगवान का हम ध्यान करते हैं। वे हमारे विचारों की सत्कार्य के लिये प्रेरित करें ।

परिक्रमा

बाह्य परिशिष्ट के अनुसार गणेशजी की एक परिक्रमा करनी चाहिये ।
एकां विनायके कुर्यात किन्तु ग्रन्थान्तर के तिस्रः कार्या विनायके ॥


इस वचन के अनुसार तीन परिक्रमाओं का विकल्प भी. आदरणीय है।

गणेश जी के पार्श्वक

गणपति भगवान को निवेदित किया हुआ नैवेद्य सर्वप्रथम उनके पार्श्वकों (सेवकों) को देना चाहिये । पार्श्वकों के नाम हैं गणेश, गालव, गार्ग्य, मंगल और सुधाकर ये पाँच एवं मतान्तर से गणप, गालव, मुद्रल और सुधाकर ये चार गणेशजी के सेवक हैं।

विभिन्न प्रतीकों द्वारा गणेश पूजन

सामान्य तौर पर गणेश जी का पूजन हरिद्रा (हल्दी) की मूर्ति से किया जाता है हरिद्रा में मंगलाकर्षिणी शक्ति है तथा वह लक्ष्मी का प्रतीक भी है। नारद पुराण में यद्यपि श्री गणेश जी की स्वर्ण प्रतिमा बनाने का निर्देशन दिया गया है किन्तु उसके अभाव में हरिद्रा की मूर्ति बनाने का विकल्प है। गोमय में लक्ष्मी जी का स्थान होने के कारण लक्ष्मी प्राप्ति के लिए गोमय से गणेश प्रतिमा बनाकर पूजन का विधान है। इसके अलावा शीघ्र श्री गणेश जी की विशेष कृपा प्राप्त करने के लिये श्वेतार्क गणपति के पूजन का विधान है ।
शिव शासनत: शिव शासनत:
@Sanatan
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2022-08-09 09:38:35 गणेश पूजन ध्यान देने योग्य तथ्य
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सनातन धर्म में देवी देवताओं को भिन्न भिन्न नामों व स्वरूपों के अनुसार पूजा होती है। सभी देवी देवताओं के पूजन में यह बात ध्यान में रखी जाती है कि अमुक देवी देवता को कौन सी वस्तुऐं अधिक प्रिय हैं और पूजन में उन वस्तुओं को आवश्यक रूप से सम्मिलित किया जाता है जैसे देवाधिदेव महादेव की पूजा हो और विल्व पत्र न हो तो पूजन पूर्ण नहीं माना जाता (मानस पूजन को छोड़कर) इसी प्रकार शास्त्रों में यह उल्लेख भी किया गया है कि व्यक्ति विशेष में जिस तत्व की प्रधानता होती है उसे तदनुसार ही अपना ईष्ट बनाना चाहिये यही वैदिक विधान है।

कौन किसकी आराधना करे ?

अध्यात्म पथ के जिज्ञासुओं को यह बताने की कोई आवश्यकता नहीं कि मानव शरीर पंच तत्वों "क्षिति, जल, पावक, गगन, समीर" से मिलकर बना है एवं दैवीय शक्तियाँ भी इन्हीं पंच महाभूतों के आधार पर क्रियाशील होती है। ये पाँचों तत्व प्रत्येक मनुष्य में दिव्यमान रहते हैं किन्तु इन पाँचों तत्वों में से प्रत्येक व्यक्ति में किसी न किसी एक तत्व की प्रधानता होती है और उसी तत्व के अनुसार व्यक्ति को अपना ईष्ट बनाना चाहिये। जैसे पृथ्वी तत्व की प्रधानता वालों के लिये भगवान शंकर की जल तत्व की प्रधानता वालों के लिए भगवान गणपति की, तेजतत्व की प्रधानता वालों के लिए भगवती दुर्गा की, वायु तत्व की प्रधानता वालों के लिए भगवान सूर्य की और आकाश तत्व की प्रधानता वालों के लिये भगवान विष्णु की उपासना हितकर होती है।

गणपति प्रतिमा त्र्य का निषेध

प्रायः आम लोग या साधक अज्ञानता के कारण एक ही देवी देवता की अनेकों प्रतिमा में घर में स्थापित कर लेते हैं किन्तु यह शास्त्र सम्मत नहीं है। कहा गया है कि

गृहे लिङ्गद्वयं नार्या गणेश त्रितयं तथा ।
शङ्कद्वयं तथा सूर्यो नार्यो शक्तित्रयं तथा ।
द्वे चक्रे द्वारकायाश्च शालग्राम शिलाद्वयम् ।
तेषां तु पूजने नैव ह्युद्वेगं प्राप्रुयाद गृही ॥


अर्थात घर में दो शिवलिङ्गों, दो शङ्गो, दो सूर्य प्रतिमाओं, दो शालग्रामों, दो गोमती चक्रों, तीन गणपति प्रतिमाओं और तीन देवी प्रतिमाओं की स्थापना नहीं करनी चाहिये।

प्रतिष्ठा का उचित समय

किसी भी देवी देवता की प्रतिमा स्थापित करने के बाद उसमें प्राण प्रतिष्ठा का विधान है। शास्त्रों में प्रत्येक देवी देवता की प्रतिष्ठा के लिए अलग-अलग महीने, तिथियां व नक्षत्र उचित माने गये हैं। भगवान गणपति की प्रतिष्ठा के लिए चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, माघ अथवा फाल्गुन मास का शुक्ल पक्ष शुभ है। प्रतिष्ठा मयूष में स्पष्ट उल्लेख है कि

चैत्रे व फाल्गुने वापि ज्येष्ठे व माधवे तथा ।
माघे व सर्वदेवानां प्रतिष्ठा शुभदा सिते ॥


इसी प्रकार भौमवार के अतिरिक्त अन्य वार ग्राह्य हैं तथा तिथियों में चतुर्थी, नवमी और चतुर्थी, नवमी और चतुर्दशी वर्जित है तथा प्रतिष्ठा के लिये प्रशस्त्र नक्षत्र अश्विनी, रोहणी, मृगशिरा, पुष्य, उत्तरा फाल्गुनी, हस्त, स्वाती, अनुराधा, ज्येष्ठा मूल, पूर्वाषाढ़, उत्तराषाढ़ श्रवण, पूर्ण भाद्रपद, उत्तरा भाद्रपद और रेवती हैं।

प्रतिमा की परिभाषा

मत्स्य पुराण के अनुसार सामान्य गृहस्थों के घर में साधक के अंगुष्ठ पर्व से लेकर वितस्ति पर्यन्त अर्थात बारह अंगुल परिमाण तक के आकार वाली प्रतिमा की स्थापना करनी चाहिये। कहा गया है कि -
अंगुष्ठपर्वादारभ्य वितस्ति यावदेव तु । गृहेषु प्रतिमा कार्या नाधिका शस्यते बुधैः ॥
इसके अलावा यदि साधक के इष्ट भगवान गणपति हैं तो उनकी स्थापना मध्य में करके ईशान कोण में श्री विष्णु की, अग्नि कोण में भगवान शिव की, नैऋत्य कोण में श्री सूर्य की और वायुकोण में भगवती दुर्गा की स्थापना करनी चाहिए।

आवाहन मंत्र

गणेश जी के आवाहन के लिये निम्रांकित वैदिक मंत्र बहुत लोकप्रिय है

गणानां त्वा गणपतिं हवामहे कविं कवीनामुपमश्रवस्तमम् ।
ज्येष्ठराजं ब्रह्मणां ब्रह्मणस्पत आ नः श्रृण्वन्नूतिभिः सीद सादनम् ॥
गणानां त्वा गणपति हवामहे प्रियाणां त्वा प्रियपति हवामहे ।
नधीनां त्वा निधिपति हवामहे वसो मम आहमजानि गर्भधमा त्वमजासि गर्भधम् ॥


आसन - मंत्र

नि षु सीद गणपते गणेषु त्वामाहुर्विप्रतमं कवीनाम् ।
न ऋते त्वत् क्रियते किंचनारे महामर्क मघवञ्चित्रमर्च ॥


अर्थात हे गणपते ! आप यहाँ आनन्दपूर्वक विराजिये । सभी लोग आपको विद्या- विशारदों में सर्वोत्तम बताते हैं एवं आपकी आराधना बिना कोई कार्य प्रारम्भ नहीं किया जाता। (यजमान के प्रति आचार्य वचन) हे धनी पुरुष ! महान् और पूजनीय गणपति भगवान की चित्र विचित्र अर्थात विभिन्न द्रव्यों द्वारा पूजा करो।

(क्रमशः)

@Sanatan
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2022-08-09 09:37:52
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2022-08-07 05:34:11 @Sanatan
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2022-06-19 08:07:01 कालिका रहस्यम् (४)
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कुछ भी अहंकार करने योग्य नहीं है। अहंकार और बोझ एक ही सिक्के के दो पहलू हैं जिन पर आप अहंकार करते हैं वे ही बोझवत आपको आसुरी गति प्रदान करते हैं। अहंकार असुरों का श्रृंगार है वे इसी से सुशोभित होते हैं। इसी अहंकार से मुक्त होने के लिये असुर स्वयं भी लालायित रहते हैं। सच्चाई तो यह है कि आंतरिक दृष्टि से आसुरी शक्तियाँ इतनी कमजोर होती हैं कि वे जानते हुये भी बोझों से मुक्त नहीं हो पाती और अंत में थक हारकर वे नाना प्रकार के प्रयत्नों से महाकाली के चरणों तक पहुँच उन्हीं के द्वारा मुक्ति प्राप्त करती हैं। अनंतकाल से ऐसा ही होता चला आ रहा है और ऐसा ही होता रहेगा। आसुरी शक्तियों का अंतिम लक्ष्य महाकाली के द्वारा मुक्ति पाना ही है। समस्त चिकित्सा जगत का एकमात्र लक्ष्य महाकाली रूपी शक्ति को समग्रता से प्राप्त करना है। औषधियाँ काली का ही अंश हैं वे उन्हीं की पराशक्ति से शक्तिकृत होती हैं तभी वे शरीर रूपी व्यवस्था में प्रवेश कर रोग रूपी आसुरी शक्तियों का विनाश करने में सक्षम हो पाती हैं। रोगों का क्या है ? वे रक्त में भी पहुँच जाते हैं, मस्तिष्क की एक-एक कोशिका तक पहुँच नियंत्रण स्थापित कर लेते हैं। सारे मानस को प्रदूषित कर देते हैं परन्तु इन सबसे भी विकट स्थिति होती है आध्यात्मिक रोगों की। अनेकों तथाकथित अध्यात्मिक साधु-संत, मठाधीश इन्हीं रोगों से ग्रसित हो सिद्धियाँ खो बैठते हैं, भ्रष्ट हो जाते हैं, भोग एवं लोलुपता उनमें इतनी बढ़ जाती है कि वे साधारण गृहस्थ से भी ज्यादा कामान्ध हो जाते हैं। ऐसा इसलिए होता है कि काली साधना उनके बस की बात नहीं रह जाती है। काली साधना प्रतिक्षण की क्रिया है। प्रतिक्षण त्याग की क्रिया । प्रतिक्षण मृत्यु प्रदान करने की क्रिया, प्रतिक्षण मोह से मुक्त होने की क्रिया, समस्त प्रकार के मोह से मुक्त होने की क्रिया ।

यही क्रियाऐं साधक को विशुद्धतम प्रेममयी व्यक्तित्व में परिवर्तित करती हैं। विशुद्धतम प्रेममयी व्यक्तित्व का तात्पर्य उस प्रकृति पुरुष से है जो कि योनि बंधनों, तत्व बंधनों, ज्ञान बंधनों एवं समस्त गृह बंधनों से मुक्त हो। उसे प्रेम करने के लिए मुख से बोलने या गाने की जरूरत नहीं होती है उसका प्रेम पंचेन्द्रियों द्वारा प्रकट होने की परिधि में नहीं आता है। ठीक उसी प्रकार जिस -प्रकार महाकाली स्वरूप में माँ पार्वती अपना समस्त सौन्दर्य, श्रृंगार, आभूषण और सम्मोहन त्याग कर अपने भक्तों के लिए वह रूप भी धारण कर लेती हैं जिसे देखकर असुर भी कांप उठते हैं। ब्रह्माण्डीय प्रेम रूप, रंग, श्रृंगार इत्यादि जैसी क्षण भंगुर स्थितियों का दास नहीं है। भगवान श्रीकृष्ण ने विशुद्धतम प्रेम किया। उनके विशुद्धतम् प्रेम का प्रतीक थी राधा। उम्र में उनसे बड़ी, रंग रूप में भी अत्यंत साधारण, पारिवारिक दृष्टि से भी सामान्य परन्तु प्रेम की दृष्टि से दिव्यतम, सब कुछ कृष्ण पर न्यौछावर कर देनी वाली। कृष्ण की राह देखते-देखते अंतिम श्वास ली । कृष्ण उनसे कभी दूर थे ही नहीं। शरीर दूर हो सकता है परन्तु प्रेम मे दूरी जैसे शब्दों का कोई मूल्य नहीं । शरीर भोग का प्रतीक है परन्तु प्रेम भोग का प्रतीक नहीं है। राधा और कृष्ण एक ही आवृत्ति हैं दिव्यतम प्रेम आवृत्ति । जिस प्रकार शिव शक्ति । शरीर तो आते जाते रहते हैं। शरीर कालजयी नहीं है। आप महाकाली की गीता के रूप में उपासना करें, रोगों के नाश के लिए औषधि स्वरूप में अनुसंधान करें, साधक के रूप में इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करने के लिए प्रयत्न करें, मोक्ष के लिए कर्म श्रृंखलाओं से मुक्ति का प्रयास करें, ले देकर करनी आपको महाकाली साधना ही पड़ेगी।

शिव शासनत: शिव शासनत:
@Sanatan
521 views𝑺𝒂𝒕𝒚𝒂𝒎 𝒏𝒊𝒌𝒉𝒊𝒍 , 05:07
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2022-06-19 08:05:44 कालिका रहस्यम् (३)
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वे परा हैं, बुद्धि से और ज्ञान से परे वे उस उन्मुक्त व्यवस्था का प्रतीक है जो कि एक बार अगर क्रियाशील हो जाये तो फिर कार्य सिद्धि के पश्चात् भी शांत होने के लिये शिव को ही चरणों में लेटना पड़ता है। असुर अगर मायावी शक्ति पर घमण्ड करते हैं तो फिर महाकाली अपने अनावृत्त स्वरूप के द्वारा यह दिखला देती हैं कि असत्य का महाभ्रम अनावृत्त शाश्वत् सत्य के सामने क्षण भर भी नहीं टिक सकता है। उनके गले में असुर मुण्डों की माला एवं कटि पर बंधी हाथों की माला यही दर्शाती है कि अनावृत्त सत्य द्वारा असत्य रूपी मायाजाल को खण्ड-खण्ड किस प्रकार से किया जाता है।

गीता के समस्त उपदेश भगवान कृष्ण द्वारा की गई महाकाली साधना का ही प्रतीक हैं। अर्जुन की बुद्धि और भावनाओं में बैठी कायरता ने उसे युद्ध के मैदान में अवसाद से ग्रसित कर दिया था एक क्षत्रिय जिसका कर्म ही युद्ध करना हो वही अगर युद्ध के मैदान में कुण्ठित हो जाये तो फिर उसकी गति निश्चित ही अधोगामी होगी यही बात समझाने के लिये कृष्ण ने उसकी समस्त जिज्ञासाओं और आशंकाओं को महाकाली रूपी शक्ति से सदा के लिये शांत किया तब कहीं जाकर वह समग्रता के साथ युद्ध में रत हुआ। कृष्ण के समस्त गीता उपदेशों का सार ही मनुष्यों को मोह, लोभ, माया, विषाद, तर्क, ज्ञान और बुद्धि से मुक्त करा परम गति को प्राप्त कराना है। वे काल पुरुष हैं, काल के अनुसार ही काली साधना करा मनुष्यों के कर्मों को सम्पन्न करवाते हैं और जिस प्रकार महाकाली ने असुरों का विनाश कर सृष्टि को पुनस्थापित किया उसी प्रकार उनके उपदेश भी मनुष्यों को धर्म की संस्थापना के लिए पुन: प्रेरित करते हैं। जब साधक गुरु स्वरूप में प्रतिष्ठित होता है तब वह भी महाकाली की परम शक्ति से अनुयायियों के वंश वृक्ष में बैठे पाप को, दोषों को, दरिद्रता को नष्ट करते हुये उन्हें अवरोध विहीन माध्यम बनाकर उनमें देवी शक्तियों की स्थापना करता है।

महाकाली के सभी शस्त्र तेज व धारयुक्त हैं। धार ही शस्त्र हैं अन्यथा तो फिर वह धातु विशेष या फिर तत्व विशेष का कुंद टुकड़ा है। जीवन में दिव्य फल तत्व प्राप्ति महाकाली के बिना सम्भव ही नहीं हैं। बुद्धि के द्वारा सम्पादित किये गये कर्म अधिकांशतः क्षयकारी फल ही प्रदान करते हैं परन्तु निष्काम भाव से सम्पादित किये गये कर्म इतना फल प्रदान करते हैं कि जिसकी आपने कल्पना ही नहीं की है। महाकाली की शक्ति बुद्धि के द्वारा नहीं नापी जा सकती । न ही उनकी उपासना बुद्धि के द्वारा सम्भव है। वे ही अक्षय फलों को प्रदान करने वाली हैं। स्वामी रामकृष्ण परमहंस महाकाली के अनन्य उपासक हुये हैं। उनका प्रत्येक दिन काली उपासना एवं उनके मूर्ति स्वरूप के श्रृंगार और देखभाल में ही बीत जाता था। उनके पास इतना समय भी नहीं था कि वे ग्रंथ लिख सकें, प्रवचन दे सकें या फिर अन्य किसी सामाजिक कार्य को सम्पन्न कर सकें। वे तो बस काली आराधना में ही लीन रहते थे। उनके परमहंसी स्वरूप से यह समस्त जग जो कि पंचेन्द्रिय व्यवस्थाओं में डूबा रहता है अपरिचित ही रह जाता अगर विवेकानंद जैसा धारदार व्यक्तित्व उन्हें नहीं मिलता। यही महाकाली का अक्षय फल है जिसने कि समस्त विश्व में परमहंस को विवेकानंद के द्वारा स्थापित करा दिया। बुद्धि से आप देखेगे तो विवेकानंद और रामकृष्ण ही नजर आयेंगे परन्तु हृदय से देखेंगे तो महाकाली ही नजर आयेंगी। कहीं भी अभेदात्मक स्थिति निर्मित नहीं होगी।

जितने भी अवतारी महापुरुष, ऋषि-मुनि हुये हैं उनके मूल में महाकाली साधना ही विराजमान हैं। उसी की शक्ति ने इन्हें अर्ध्वगामी बनाया, समस्त अवरोधों को जिन्हें कि हटानें में अनेको जन्म लग जाते हैं मात्र कुछ ही वर्षों में समाप्त कर ईष्ट से साक्षात्कार करवाया। मृत्यु तो आपको प्रदान करनी ही पड़ेगी और वह भी निर्ममता के साथ अपनी कमजोरियों को, अपने दोषों को, अपनी नकारात्मक सोच को तभी आप ऊर्ध्वगामी हो सकेंगे, तभी आप व्यर्थ के बोझों को उतारकर फेंक सकेंगे और वह मृत्यु प्रदान करेगी महाकाली साधना । वे श्मशान वासिनी हैं श्मशान अर्थात वह दिव्य स्थान जहाँ शाश्वत् सत्य मात्र का ही वाश है। माया, मनुष्यों द्वारा निर्मित बेतुके नियम, व्यर्थ की उपाधियाँ, तथाकथित ज्ञान सब कुछ शून्य है।

(क्रमशः)

@Sanatan
399 views𝑺𝒂𝒕𝒚𝒂𝒎 𝒏𝒊𝒌𝒉𝒊𝒍 , 05:05
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