🔥 Burn Fat Fast. Discover How! 💪

सनातन धर्म • Sanatan Dharma

Logo of telegram channel sanatan — सनातन धर्म • Sanatan Dharma
Logo of telegram channel sanatan — सनातन धर्म • Sanatan Dharma
Channel address: @sanatan
Categories: Uncategorized
Language: English
Subscribers: 7.44K
Description from channel

🙏 Explore ❛ सनातन धर्म • Sanatana Dharma ❜
🔶 @Hindu
🔶 @Geeta • सम्पूर्ण श्रीमद्भगवद्गीता
🔶 @Gurukul
🔶 @Mandir
🔶 @Geet_Ganga
🔶 @HinduStickers
🔶 @HinduChat & @HinduChatX
🕉️ @HinduStuff

Ratings & Reviews

2.67

3 reviews

Reviews can be left only by registered users. All reviews are moderated by admins.

5 stars

1

4 stars

0

3 stars

0

2 stars

1

1 stars

1


The latest Messages 6

2022-06-04 12:10:42 प्रेमोपासना (४)
--------------


भिक्षापात्र इसलिए कि उसमें भगवान श्रीकृष्ण प्रेमरस टपकाते हैं। भिक्षापात्र में भौतिक वस्तुऐं नहीं मांगी जाती। कोई भी तपस्वी या साधक हाथ फैलाए इसलिए नहीं खड़ा है कि उसे रोटी खिला दो। कम से कम वे सब इतने तो प्रकाशवान हो गये हैं कि रोटी के लिए हाथ नहीं फैलाते। गुरु की दृष्टि तो बस उन शिष्यों को खोजती है जो कि रोटी के साथ-साथ प्रेम भिक्षा पात्र में डाल देते हैं। मनुष्य भी कृष्ण का अंश है। न जाने कब किसमें कृष्णभाव विकसित हो जाये और रोटी भी कृष्ण का प्रसाद अर्थात प्रेम बनकर प्राप्त हो जाए। प्रेम ही वास्तविक भूख है एक गुरु की। वह तब तक भूखा है जब तक उसे प्रेम प्राप्त नहीं हो जाता। यही जीवन का रहस्य है। 84 लाख योनियों में अनंत काल तक भटकने की व्यथा है। कहीं न कहीं किसी न किसी योनि में तो कृष्ण मिल जायें। पूर्णता प्रदान कर दें। कहीं न कहीं कृष्ण भाव से जागृत गुरु प्राप्त हो जाय।

कृष्ण जगद् गुरु हैं। जगद् गुरु प्रेम का केन्द्र है और गुरु या सद्गुरु रूपी जीवात्माऐं उनकी प्रतिनिधि । इन्द्रियां थक जाती हैं, शरीर शिथिल हो जाता है, मन व्याकुल हो जाता, है आत्मा त्रस्त हो जाती है, कृष्ण की प्राप्ति के लिए। इन्तजार सबसे कठिन क्षण होता है। साधक या मनुष्य के पास प्रतीक्षा में के अलावा क्या है इंतजार इंतजार बस इंतजार और कुछ भी नहीं मालुम है कभी-कभी मन को बहलाने के लिए दिल को तसल्ली देने के लिए हम प्रेम ढूंढने लगते हैं मनुष्यों में, जीवों में, वनस्पतियों में परन्तु ये सब हमारी ही तरह कतार में लगे हुए हैं। बस सबने अपनी-अपनी विधियाँ, अपने-अपने विधान, अपने-अपने आयाम और ज्ञान के कोष विकसित कर रखे हैं। कृष्णत्व की प्राप्ति के लिए सभी प्रतिक्षण क्रियाऐं करते रहते हैं कृष्ण को आकर्षित करने के लिए क्योंकि आकर्षण मात्र श्री कृष्ण में है।

कर्म क्या है? किसने इसे बनाया है, कौन इन्हें सम्पादित करवा रहा है? क्यों हम सम्पादित कर रहे हैं, इसकी बात करते हैं ऐसा कर्म हमें क्यों मिला। क्यों हम प्रपंचों में, समस्याओं में उलझे हुए हैं। यह सारी बातें ही तो अर्जुन के दिमाग में घुमड़ रही हैं। क्यों मुझे यह युद्ध करना पड़ रहा है। वो यही सोच रहा है। सीधी सी बात है प्रेम जिसने जितना प्रेम अर्जित कर लिया उसी हिसाब से कर्म मिलते हैं। प्रेम की प्राप्ति ही कष्टों का कारण है कष्ट बार-बार याद दिलाते हैं कि और कर्म सम्पादित करो। जीवात्मा शरीर को शांत नहीं बैठने देती है। जीवात्मा का एकमात्र उद्देश्य है परमात्मा की प्राप्ति चूंकि वह इस पृथ्वी पर शरीर में विद्यमान है अत: शरीर को तब तक गतिशील बनाऐ रखती है जब तक कि वह परमात्मा से मिलन का माध्यम नहीं बन जाता है। ध्यान रहे शरीर जीवात्मा के नियंत्रण में है। और जीवात्मा परमात्मा के नियंत्रण में अर्थात प्रभु श्रीकृष्ण के नियंत्रण में जीवात्मा की भूख विशुद्ध प्रेम है। वह प्रेमसागर की मछली है। शरीर और योनियों का विकास जीवात्मा मात्र प्रेम की प्राप्ति के अनुसार ही करती है।

जैसे ही शरीर माध्यम के रूप में अनुपयोगी होता है जीवात्मा उसे त्यागकर दूसरा शरीर धारण कर लेती है। अतः कर्म जीवात्मा के द्वारा शरीर से सम्पन्न कराये जाते हैं। जीवात्मा को मालुम होता है एक न एक दिन कृष्णावतार होगा। जीवात्मा क्षेत्रज्ञ है शरीर की। शरीर उसका क्षेत्र हैं ठीक इसी प्रकार परमात्मा सर्वज्ञ के क्षेत्रज्ञ हैं। अंत में सभी जीवात्माऐं श्रीकृष्ण को ही प्राप्त करती हैं। ऊपर वर्णित इस आलेख से आपको आपके मस्तिष्क, आपके कर्म और आपके शरीर की औकात समझ में आ रही है। कृपया अपने आप को अति बुद्धिमान, अति चतुर एवं तथाकथित महान और गुरुघंटाल समझने की कोशिश न करें। द्रोपदी अत्यंत ही प्रिय थी श्रीकृष्ण को उसमें इतना प्रकाश था कि वह कृष्ण को समझती थी। जिसमें प्रेम होगा वही कृष्ण के करीब होता है। एक बार वन में दुर्वासा ऋषि अपने शिष्यों के साथ द्रोपदी के पास पधारे दुर्वासा क्रोध में आकर कब क्या कर बैठें यह सर्वविदित है। क्रोधी व्यक्ति में प्रेम की चाह अत्यंत ही तीव्र होती है। क्रोध इसलिए आता है क्योंकि प्रेम वर्षा के अभाव में मानस मरुस्थल हो गया होता है।

(क्रमशः)

@Sanatan
74 views𝑺𝒂𝒕𝒚𝒂𝒎 𝒏𝒊𝒌𝒉𝒊𝒍 , 09:10
Open / Comment
2022-06-04 12:09:44 प्रेमोपासना (३)
--------------


प्रेम का उत्पादन एवं प्रेम को ग्रहण करना जीव के वश में नहीं है और न कभी होगा। प्रेम बिकाऊ नहीं है। श्री कृष्ण पुरुषोत्तम भगवान हैं। उनकी प्राप्ति प्रेम की प्राप्ति है। मस्तिष्क को संवेदनशीलता इतनी ज्यादा क्यों है क्योंकि श्रीकृष्ण दुर्लभ हैं। जब प्रभु श्री कृष्ण ही दुर्लभ हैं तो फिर उनका प्रसाद प्रेम दिव्यतम है इसलिए तो मनुष्य और जीव येन केन प्रकारेण प्रतिक्षण इस सृष्टि के प्रत्येक प्रपंच में से कृष्णत्व ग्रहण करते रहते हैं। सोने का एक कण भी स्वर्ण आभा युक्त होता है तो वहीं समुद्र के पानी की एक बूंद भी खारी होती है। कृष्ण की खोज, कृष्णत्व की प्राप्ति ही मस्तिष्क की प्रत्येक कोशिका का ध्येय है। श्वास-प्रश्वास से लेकर अध्यात्म साधना तक सभी कुछ कृष्ण की चौंसठ कलाओं के दर्शन और प्राप्ति के लिए ही सम्पन्न किए जाते हैं। यही विराट स्वरूप का रहस्य है। यह रहस्य इतना गूढ़ है कि इसे समझते ही आप मस्तिष्क से परे हो जाऐंगे। दुर्योधन, शिशुपाल, शकुनि, धृतराष्ट्र से लेकर भीष्म पितामह तक सबके सब इसीलिए क्रियाशील हुए कि उन्हें कृष्णत्व की प्राप्ति चाहिए थी और यह सब कृष्ण को प्राप्त करने के लिए इस हद तक गिर गये कि मानवता के हिसाब से नीच से नीच कर्म सम्पन्न कर डाले।

कृष्ण को अपशब्द कहना, कृष्ण को नकारना, कृष्ण से ऊपर उठने की बात करना, कृष्ण का तथाकथित अपमान करना, कृष्ण से युद्ध की लालसा रखना इत्यादि इत्यादि यह सब भी तरीके हैं, विधियाँ हैं कृष्ण को प्राप्त करने की, कृष्ण के द्वारा मृत्यु प्राप्त करने की। एक भी मस्तिष्क कृष्ण को नहीं नकार सकता क्योंकि वह सर्व नियंता है। व्यर्थ की उछलकूद, व्यर्थ की क्रियाऐं सब कुछ संकेत करती हैं मस्तिष्क के अंदर कहीं दूर गहरे में कृष्ण के प्रति छटपटाहट की। यही छटपटाहट कौरवों को कुरुक्षेत्र में खींच लाई। चलो अब युद्ध क्षेत्र में ही कृष्ण को प्राप्त करें। युद्ध के द्वारा ही कृष्ण की दृष्टि हम पर पड़े। युद्ध के द्वारा ही कृष्ण का सानिध्य पायें। कृष्ण से संस्पर्शित होना ही सबको नियति है इसीलिए तो बाणों से जख्मी भीष्म पितामह बिना किसी शिकायत के कृष्ण को देखकर हाथ जोड़कर नमन कर रहे हैं और गौरवान्वित हो रहे हैं अपनी तथा कथित शारीरिक मृत्यु पर क्योंकि वह साक्षात् ही कृष्णावतार के द्वारा प्राप्त हुई। ऐसी मृत्यु अत्यंत दुर्लभ है। कृष्ण के द्वारा मृत्यु को प्राप्त करना अत्यंत ही दुर्लभ है।

86 हजार वर्षों में कुछ हजार साक्षात् कृष्णावतार का साक्षात्कार कर पाते हैं और उनमें से कुछ कृष्ण की उपस्थिति में मृत्यु को प्राप्त करते हैं। आध्यात्म अत्यंत ही विचित्र है। मृत्यु कृष्ण प्रदान करें यह परम पद दिव्य योगियों को ही प्राप्त होता है। दुर्योधन विकट योगी था। कई दिनों तक वह जल के अंदर समाधिस्थ होने की प्रक्रिया जानता था। साधारण मानव नहीं था वह। कृष्ण भगवान हैं जब-जब मनुष्य गीता को भगवान के द्वारा उद्धृत दिव्य वचनामृत के रूप में लेगा उसे कुरुक्षेत्र में साधकों की प्रचण्डता दिखाई पड़ेगी। एक के बाद एक अनंत वर्षों से साधना में लीन दिव्य विभूतियाँ कृष्ण के समीप प्राणोत्कर्ष करती हुई दिखाई पड़ेगी। यही मुक्ति है। जैसे-जैसे महाभारत में वर्णित विभूतियाँ प्राणों को तजती जायेंगी वे हाथ जोड़ते हुए कृष्ण के प्रति श्रद्धा सुमन अर्पित करती हुई कृष्ण धाम की ओर प्रस्थान करती हुई दिखाई पड़ेंगी। उन सबके अंदर यही भाव होगा कि बस अब बहुत हुआ पंचेन्द्रियों और अंतेन्द्रियों के द्वारा टुकड़े-टुकड़े में कृष्णत्व की प्राप्ति। अब जाकर पूर्ण रूपेण कृष्ण प्राप्त हुए जान बची प्रपंचों से स्वयं कृष्ण ने मुक्त कर दिया जीवात्मा को शरीर रूपी बंधनों से इसी दिन और इसी क्षण की तो अनंत वर्षों से हमें प्रतीक्षा थी। यही विशुद्ध प्रेम है। न जाने कब इसकी प्राप्ति होगी। इसी में तो मैं लगा हूँ। यही भाव है एक आध्यात्मिक साधक के रूप में प्रेम की डगर ही मेरी डगर है। कृष्ण ही मेरी मंजिल हैं। उन्हें प्राप्त करना ही मेरा ध्येय है। चाहे विधि कोई भी हो, विधान कुछ भी हो, कुरुक्षेत्र कहीं भी हो मुझे यह भी परवाह नहीं है कि मैं कौरवों की तरफ खड़ा हूँ या पाण्डवों की तरफ क्या फर्क पड़ता है? कहीं भी खड़े रहो। कुरुक्षेत्र में तो कृष्ण की प्राप्ति अवश्यम्भावी है। कृष्ण का सानिध्य तो कुरुक्षेत्र में मिलेगा ही। यहीं मेरी खोज समाप्त होती है।

प्रेम के लिए अब स्त्री के पीछे भागने की जरूरत नहीं है। मनुष्यों से प्रेम की अपेक्षा नहीं है ये सब मुझे प्रेम नहीं दे सकते। प्रेम इनके पास है ही नहीं तो ये क्या देंगे। वे स्वयं भीड़ में खड़े प्रेम की भिक्षा मांग रहे हैं। भिक्षुक भिक्षुक को क्या देगा ? आपने देखा है सभी बुद्ध से लेकर महावीर, शिव और अन्य तपस्वी भिक्षापात्र लेकर चलते हैं।

(क्रमशः)

@Sanatan
67 views𝑺𝒂𝒕𝒚𝒂𝒎 𝒏𝒊𝒌𝒉𝒊𝒍 , 09:09
Open / Comment
2022-06-04 12:08:57 प्रेमोपासना (२)
--------------


अधिकांशतः आध्यात्मिक व्यक्ति इसलिए भ्रष्ट हो जाते हैं। गृहस्थ जीवन से भागते हैं पर धन, ऐश्वर्य, स्त्री इत्यादि के प्रति मन में अतृप्तता होने के कारण वे पुनः ईश्वर द्वारा वापस प्रपंचों में फेंक दिये जाते हैं परमेश्वर सर्वप्रथम मनुष्य या जीव से यह चाहता है कि वह जीवन के अन्य आयामों में प्रेम करना सीखे। उन्हें प्राप्त करे, उनसे पूर्ण रूप से तृप्त होने के पश्चात ही । परमेश्वर से प्रेमोपासना सम्पन्न करे।

प्रेम के विशुद्ध स्वरूप में भागीदारी की व्यवस्था नहीं होनी चाहिए अगर आपके मन में या प्रेम में कहीं भी थोड़ी सी भी लिप्तता परमेश्वर महसूस करते है तो वह आपकी प्रेमोपासना स्वीकार नहीं करते। अर्जुन के साथ भी ऐसा ही हुआ है उसे भी प्रपंचों से मुक्त होना पड़ा, घिसी पिटी सम्बन्धों की व्याख्या एवं रक्त मोह के साथ-साथ शरीर मोह से भी मुक्त होना पड़ा। बार-बार अनेक दार्शनिकों ने कहा है कि मस्तिष्क के परे भी कुछ है। मस्तिष्क उसी परे द्वारा निर्मित, नियंत्रित एवं विकसित है। मस्तिष्क से परे मस्तिष्क नहीं है यह बात सत्य है। मस्तिष्क से मस्तिष्क के परे की व्याख्या हो भी नहीं सकती। मस्तिष्क जीवन के लिए आवश्यक हो ऐसा भी कहना ठीक नहीं है। मस्तिष्क के अभाव में भी जीवन है। हमारी पृथ्वी पर मस्तिष्क विहीन वृक्ष हैं, मस्तिष्क विहीन अनेकों जीव हैं। मस्तिष्क कोई बहुत जरूरी चीज नहीं है। उत्कृष्टता का भी मस्तिष्क से कोई लेना देना नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति के लिए कम्प्यूटर जरूरी नहीं है। कम्प्यूटर भी मस्तिष्क तुल्य हो रहे हैं। तो इसका मतलब यह नहीं है कि हम अपने मस्तिष्क के साथ कम्प्यूटर बांध लें। मस्तिष्क से उत्पन्न प्रोद्यौगिकी, मस्तिष्क से नियंत्रित प्रोद्यौगिकी, मस्तिष्क के साथ-साथ आती जाती रहेगी। मस्तिष्क स्वयं में भी पूर्ण जीवी नहीं है। मस्तिष्क काल के अनुसार, परिस्थिति के अनुसार छोटा बड़ा, कम ज्यादा या गोल और चपटा होता रहता है। अभी एक मस्तिष्क है दो मस्तिष्क भी हो सकते हैं और दस भी। एक मस्तिष्क का जितना आयतन है उसका आधा आयतन भी हो सकता है। मस्तिष्क को पहले समझो बाद में प्रेम की बात करेंगे।

मस्तिष्क से परे क्या है कुछ भी नहीं बस प्रभु श्री कृष्ण ! कृष्ण हैं तो प्रेम है अन्यथा मस्तिष्क । कृष्ण कला अर्थात प्रेम ही मस्तिष्क की खुराक है। उसे पाकर ही मस्तिष्क का रोम-रोम तृप्त होता है और झूम उठता है। मस्तिष्क को बस कृष्ण चाहिए। कृष्ण की लीला चाहिए। कृष्ण का उत्पादन चाहिए। कृष्ण का उत्पादन ही प्रेम है। प्रेम को ग्रहण करने के लिए ही पाँच किलो का मस्तिष्क धड़ के ऊपर लगा है। मस्तिष्क का प्रत्येक तंतु कृष्ण के प्रेम को ग्रहण करने का कार्य ही सम्पन्न करता हे पंचेन्द्रियाँ कृष्ण के द्वारा प्रदर्शित दृश्य, ध्वनि, संयोग, आवेग, प्राप्ति इत्यादि-इत्यादि को ही संस्पर्शित करने के लिए निर्मित होती हैं। सभी बाह्य अंग कृष्ण की प्राप्ति के लिए ही क्रियाशील हैं। कृष्ण सभी जगह हैं। भौतिक और अभौतिक दृश्यों संयोगों एवं अल्पकालीन स्थूलताओं का निर्माण और नियंत्रण कृष्ण के हाथ में ही है। भोजन भी संतुष्टि प्रदान करता है। भोजन के रूप में भी तृप्ति पाना आवश्यक है। अतः उन अंगों का भी विकास हो गया जो कि भोजन से जीवात्मा को तृप्त करते हैं। इस प्रक्रिया में अंत में क्या बचता है। मात्र तृप्ति और सब कुछ बाहर निकल जाता है। जीवात्मा एक भी क्षण तृप्ति के बिना नहीं रह सकती। तृप्ति ही श्री कृष्ण हैं । पूर्णता ही श्री कृष्ण है।

प्रपंची शरीर जीवात्मा ने इसलिए धारण किया है कि प्रपंच में भी श्रीकृष्ण विराजमान हैं। छलो, प्रपंचों द्वारा ही श्री कृष्ण को प्राप्त करें। ऐसा करना पड़ता है तभी तो भोजन, पानी, वायु, विवाह इत्यादि-इत्यादि सभी कुछ अनंतकाल से चली आ रही व्यवस्थाऐं जीव को सम्पन्न करनी ही पड़ती हैं। मस्तिष्क में क्या रुकता है? मात्र संतुष्टि और उससे ऊपर तृप्ति । कई लाख लीटर पानी पी लो जीवन भर परन्तु मस्तिष्क में सिर्फ तृप्ति ही रुकेगी। पानी सबका सब निकल जायेगा। तृप्ति क्यों? क्योंकि तृप्ति ही प्रेम का फल है अर्थात श्रीकृष्ण का प्रसाद । श्री कृष्ण जब प्रसन्न होंगे तो प्रसाद में प्रेम ही प्राप्त होगा। प्रेम के उत्पादक, प्रेम के प्रसारकर्ता और प्रेम के नियंत्रक प्रभु श्री कृष्ण ही हैं इसीलिए प्रेम की शरण में जाना कृष्ण धाम जाने का मार्ग पकड़ना है। मैं आपसे कहूँ कि आप मुझे प्यार करें आप कभी नहीं करेंगे। ज्यादा से ज्यादा स्वांग कर लेंगे। किसी के कहने से कोई प्रेम नहीं कर सकता। किसी से जोर जबरदस्ती के द्वारा प्रेम नहीं करवाया जा सकता हाँ बस स्वांग अवश्य किया जा सकता है। प्रेम की प्राप्ति,

(क्रमशः)

@Sanatan
75 views𝑺𝒂𝒕𝒚𝒂𝒎 𝒏𝒊𝒌𝒉𝒊𝒍 , 09:08
Open / Comment
2022-06-04 12:08:09 प्रेमोपासना
--------------


प्रेम की डगर सबसे सरल भी है और सबसे कठिन भी है। प्रेम को समझते समझते जीवन का अंत हो जाता है। एक-एक श्वास लेने के लिए प्रेम की आवश्यकता है। प्रेम हर तरह की प्रक्रिया सम्पन्न कराता है। कहाँ नहीं है प्रेम हर क्रिया में छुपा हुआ है। बस सभी प्रपंचों और माया, मोह के पीछे प्रेम ही तो है। सभी को प्रेम की जरूरत है और सभी प्रेम करते हैं। पैसे से भी प्रेम होता है, स्त्री से भी प्रेम होता है और क्यों न हो स्त्री इस ब्रह्माण्ड की सबसे खूबसूरत एवं विलक्षण अनुकृति है। प्रेम बच्चों से भी होता है, टुकड़ों टुकड़ों में ही प्रेम सर्वप्रथम प्रकट होता है, होना भी चाहिए परन्तु ईश्वर से भी प्रेम होना चाहिए। ईश्वर शरीर में ही विद्यमान है इसीलिए शरीर भी प्रेम होना चाहिए। प्रतिक्षण प्रेमकला सीखनी चाहिए। प्रेमकला को परिष्कृत करते रहना चाहिए। प्रेम कदापि पाप नहीं है। जैसे-जैसे प्रेमभाव परिष्कृत होता जायेगा, गतिमान होता जायेगा उच्चता प्राप्त होती जायेगी। भौतिक जगत में या फिर आध्यात्मिक जगत दोनों में ही प्रपंचों की कमी नहीं है। सृष्टि ही अपने आप में प्रपंच है। सभी क्रियाऐं, सभी सम्बन्ध, सभी कार्य मात्र प्रपंच है। बस इन सब प्रपंचों को सम्पन्न करते हुए प्रेमभाव बना रहे यही मोक्ष है।

श्री कृष्ण की शरण में रहना है तो प्रेम करना सीखना ही पड़ेगा प्रेम में वह ताकत है जो कि बुद्धि, तर्क, ज्ञान और कर्म की शक्ति के ऊपर या इनके क्षेत्र के ऊपर चेतना को ले जाने में समर्थ हो। मैंने भी बस प्रेम ही प्रेम किया है। स्वयं से, पत्नी से, गुरु से प्रेम करना ही मेरी नियति है। सर्वप्रथम प्रेम करना सोखो जो व्यक्ति सीधे ईश्वर से प्रेम की बात करते हैं वे पाखण्डी हैं। जब किसी से प्रेम नहीं होगा, किसी जीव या मनुष्य के लिए प्यार की भावना नहीं होगी, पत्नी को प्रेममयो कोश प्रदान करने का सामर्थ्य नहीं होगा तो फिर ईश्वर से क्या प्रेम करोगे। ईश्वर के बाद ही परमेश्वर आता हैं अर्थात श्रीकृष्ण । श्रीकृष्ण सभी से प्रेम कर रहे हैं। उनकी सभी पत्नियाँ उनके प्रेम में लीन हैं, गोपियों के वह प्रेम स्त्रोत्र हैं। अनंत सात्विक मुनिजन और योगीजन कृष्ण को प्रेम सुधा का पान कर रहे हैं। अर्जुन भी उन्हें प्रिय हैं और दुर्योधन को भी देख वे मुस्कुरा रहे हैं।

प्रेम में धोखा नहीं होता है। प्रेम कभी धोखा नहीं खाता जो धोखे की बात करते हैं वे स्वांग करते हैं। उनके पास प्रेम की कमी है। प्रेम की शक्ति ऐसे लोगों के पास कम विकसित होती है और अपेक्षाकृत बुद्धि और तर्क की शक्ति ज्यादा विकसित होती है तभी तो गणित लगाते हैं। गणित लगाने वाले नफा नुकसान, धोखा और छल की बात करते हैं। प्रेम की विशेषता यह है कि वह विशुद्ध कृष्णत्व अर्थात उसमें जो मिलाओगे वैसा ही स्वरूप दिखाई पड़ने लगेगा। जैसे ही प्रेम आप के पास प्रकट होगा आप उसमें प्राप्ति मिला लो तो फिर प्रेम प्राप्ति की लालसा को इतना प्रबल कर देगा कि आप प्राप्ति के लिए पागल हो जाओगे। आसक्ति आपका चरित्र बन जायेगा। इसी प्रेम को अगर मान अपमान की भावना के प्रति लगा दोगे तो फिर आपका सारांश भी मान अपमान में उलझकर रह जायेगा। प्रेम विशुद्ध है। इसमें विवेक और ज्ञान के अंश नहीं होते। वास्तव में प्रेम को उतारने के लिए माध्यम की ही संरचना देखी जाती है। कामी व्यक्ति में अगर प्रेम उमड़ता है तो फिर वह स्त्री लोलुप होगा ही।

सभी कृष्ण के अधीन हैं। इसीलिए मैं कह रहा हूँ मैं कृष्ण की शरण में हूँ अर्थात प्रेम की शरण में अर्थात हे कृष्ण! तुम ही अर्जुन के समान मेरे भी विकारो को नष्ट करो और मुझे मोह विहीन करते हुए, प्रपंच विहीन करते हुए मात्र मेरी तुच्छ प्रेम शक्ति को स्वयं के श्री चरणों की तरफ केन्द्रीयकृत करो। मैं भी प्रेम की परम्परा को प्राप्त करूंगा। प्रेम न हो तो भोजन पचाना भी मुश्किल है। कृष्ण सर्वज्ञ है। सभी कोषों में वे विराजमान हैं। पंचेन्द्रिय प्रेम के अभाव में अंतेन्द्रिय प्रेम क्या होगा? हे कृष्ण ! मुझे प्रेममयी व्यक्तियों का सानिध्य प्रदान करो जो मुझे भी प्रेम करे। प्रत्येक तल पर मेरे मर्म को समझे। केवल शरीर को ही प्रेम न करे बल्कि मेरे अन्य स्वरूपों को भी प्रेम करे। जिस-जिस तल पर प्रेम पहुँचता जाता है वह तल तृप्त होता जाता है। वर्षा का जल जैसे ही भूमि पर गिरता है ऊपरी सतह सर्वप्रथम तृप्त होती है इसके पश्चात् धीरे- धीरे गहराई तक सभी तल तृप्त होते जाते हैं और अंत में इस तृप्ति के पश्चात् ही जल भूमि में संचित हो पाता है और वह भी इसलिए कि अतृप्ति की स्थिति आने पर पुनः तृप्ति प्रदान की जा सके फिर भी वर्षा की आवश्यकता निरंतरता के साथ चाहिए। ठीक इसी प्रकार अगर वासना के तल पर या शरीर के तल पर प्रेम प्राप्त नहीं होता तो फिर अध्यात्म के तल पर ईश्वर के प्रति प्रेमोपासना असम्भव है।

(क्रमशः)

@Sanatan
86 views𝑺𝒂𝒕𝒚𝒂𝒎 𝒏𝒊𝒌𝒉𝒊𝒍 , 09:08
Open / Comment
2022-06-04 12:07:04
@Hindu_Photos @HinduStuff
88 views𝑺𝒂𝒕𝒚𝒂𝒎 𝒏𝒊𝒌𝒉𝒊𝒍 , 09:07
Open / Comment
2022-06-03 03:22:01 प्रत्येक दिन
· सुबह प्रथम तीन घंटे - वास्तु पुरुष की दृष्टी अथवा नजर सुबह प्रथम तीन घंटे पूर्व की ओर रहती है|
· इसके पश्चात तीन घंटे दक्षिण की ओर रहती है|
· तथा उसके बाद तीन घंटे पश्चिम की ओर रहती है|
· तथा अंतिम तीन घंटे उत्तर की ओर रहती है|
भवन का निर्माण कार्य इसी प्रकार समयानुसार करना चाहिए |
वास्तु पुरुष की तीन अवसरों पर पूजा अर्चना करनी चाहिये-
· निर्माण कार्य में शिलान्यास करते समय |
· दूसरी बार मुख्य द्ववार लगाते समय |
· तीसरी बार गृह प्रवेश के समय पूजा करनी चाहिये |
· गृह प्रवेश उस समय होना चाहिये जब वास्तुपुरुष की नजर उस ओर हो ये शुभ रहता है |

4-वास्तु में दिशाओं का महत्व एवं क्षेत्र :-

सूर्य जिस दिशामें उदय होता है उस दिशा को पूर्व दिशा कहते हैं एवं जिस दिशा में सूर्य अस्त होता है उस दिशा को पश्चिम दिशा कहते हैं , जब कोई पूर्व दिशा की ओर मुहँ करके खड़ा होता है , उसके बांयी ओर उत्तर दिशा एवं दांयी ओर दक्षिण दिशा होती है |

वह कोण जहाँ दोनों दिशाएँ मिलती हैं वह स्थान अधिक महत्वपूर्ण होता है क्योंकि वह स्थान दोनों दिशाओं से आने वाली शक्तियों को मिलाता है | उत्तर – पूर्वी कोने को ईशान , दक्षिण- पूर्वी कोने को आग्नेय , दक्षिण – पश्चिम कोने को नैरत्य , और उत्तर – पश्चिम कोने को वायव्य कहते हैं |

दिशाओं का महत्व निम्न प्रकार से है :-

· पूर्व - पित्रस्थान , इस दिशा में कोई कोई रोक या रुकावट नहीं होनी चाहिए , क्योंकि यह नर- शिशुओं व् संतति का स्त्रोत है |
· दक्षिण – पूर्व (आग्नेय) : यह स्वास्थ्य का स्त्रोत है , यहाँ अग्नि का वास रसोई आदि का कार्य करना चाहिए|
· दक्षिण - सुख , सम्पन्नता और फसलों का स्त्रोत है
· दक्षिण – पश्चिम ( नैरत्य) : व्यवहार और चरित्र का स्त्रोत है तथा दीर्घ जीवन एवं मृत्यु का कारण|
· पश्चिम- नाम , यश, और सम्पन्नता का स्त्रोत है |
· उत्तर – पश्चिम (वायव्य) :व्यापार , मित्रता, और शत्रुता में परिवर्तन का स्त्रोत |
· उत्तर - माँ का स्थान , यह कन्या शिशुओं का स्त्रोत है , अतः इसमें कोई रूकावट नहीं होनी चाहिये |
· उत्तर – पूर्व (ईशान) : स्वास्थ्य , संपत्ति , नर- शिशुओं , और सम्पन्नता का स्त्रोत है |

5- उपयुक्त भूखंड –

पूर्व मुखी भूखंड - शिक्षा एवं पत्रकारिता तथा फिलोस्फर जैसे लोगों के लिए उपयुक्त रहते हैं तथा हवा व् प्रकाश के लिए भी अच्छे रहते हैं |

उत्तर मुखी भूखंड - सरकारी कर्मचारी , प्रशासन से सम्बंधित कार्यों व् सेना के लोगों के लिए ज्यादा अच्छे रहते हैं |

दक्षिण मुखी भूखंड - ब्यापारिक प्रतिष्ठानों एवं व्यापार के कार्यों तथा धन के लिए अच्छे रहते हैं |

पश्चिम मुखी भूखंड सामाजिक कार्यकर्ताओं के लिए ज्यादा अच्छे रहते हैं |

शिलान्यास करने व् मुख्य द्वार लगाने का शुभ समय :-
· वैशाख शुक्ल पक्ष (अप्रैल – मई ),
· श्रावण मास (जुलाई – अगस्त ),
· मार्गशीर्ष मास (नवम्बर – दिसंबर),
· पौष मास (दिसंबर – जनवरी )
· और फाल्गुन मास (फरवरी – मार्च) महीने शुभ होते हैं
व् अन्य महीने अशुभ माने जाते हैं |

उपरोक्त महीनों के शुक्ल पक्ष की तिथि द्वितीया , पंचमी , सप्तमी, नवमी, एकादशी , त्रयोदशी तिथियों में वार , सोमवार, बुधवार, गुरूवार, शुक्रवार, आदि का दिन होना शुभ रहता है | तथा सूर्य की वृषभ राशी , वृश्चिक राशि , और कुम्भ राशि में सूर्य अनुकूल रहता है |

साभार - मनीष शेखर
@Sanatan
136 views𝑺𝒂𝒕𝒚𝒂𝒎 𝒏𝒊𝒌𝒉𝒊𝒍 , edited  00:22
Open / Comment
2022-06-03 03:22:01 ईशान, ब्रह्मा तथा अनंत की यथास्थान पूजा कर उन्हें नैवेद्य निवेदित करना चाहिए। वास्तु मंडल की रेखाएं श्वेतवर्ण से तथा मध्य में कमल रक्त वर्ण से निर्मित करना चाहिए। शिखी आदि 45 देवताओं के कोष्ठकों को रक्तवर्ण से अनुरंजित करना चाहिए।

पवित्र स्थान पर लिपी-पुती डेढ़ हाथ के प्रमाण की भूमि पर पूर्व से पश्चिम तथा उतर से दक्षिण दस-दस रेखाएं खींचें। इससे 81 कोष्ठकों के वास्तुपद चक्र का निर्माण होगा।

इसी प्रकार 9-9 रेखाएं खींचने से 64 पदों का वास्तुचक्र बनता है।

वास्तु मण्डल के पूर्व लिखित 45 देवताओं के पूजन के मंत्र इस प्रकार हैं-

ऊँ शिख्यै नमः, ऊँ पर्जन्यै नमः, ऊँ जयंताय नमः, ऊँ कुलिशयुधाय नमः, ऊँ सूर्याय नमः, ऊँ सत्याय नमः, ऊँ भृशसे नमः, ऊँ आकाशाय नमः, ऊँ वायवे नमः, ऊँ पूषाय नमः, ऊँ वितथाय नमः, ऊँ गुहाय नमः, ऊँ यमाय नमः, ऊँ गन्धर्वाय नमः, ऊँ भृंग राजाय नमः,, ऊँ मृगाय नमः, ऊँ पित्रौ नमः, ऊँ दौवारिकाय नमः, ऊँ सुग्रीवाय नमः, ऊँ पुष्पदंताय नमः, ऊँ वरुणाय नमः, ऊँ असुराय नमः, ऊँ शेकाय नमः, ऊँ पापहाराय नमः, ऊँ रोग हाराय नमः, ऊँ अदियै नमः, ऊँ मुख्यै नमः, ऊँ भल्लाराय नमः, ऊँ सोमाय नमः, ऊँ सर्पाय नमः, ऊँ अदितयै नमः, ऊँ दितै नमः, ऊँ आप्ये नमः, ऊँ सावित्रे नमः, ऊँ जयाय नमः, ऊँ रुद्राय नमः, ऊँ अर्यमाय नमः, ऊँ सवितौय नमः, ऊँ विवस्वते नमः, ऊँ बिबुधाधिपाय नमः, ऊँ मित्राय नमः, ऊँ राजयक्ष्मै नमः, ऊँ पृथ्वी धराय नमः, ऊँ आपवत्साय नमः, ऊँ ब्रह्माय नमः।

इन मंत्रों द्वारा वास्तु देवताओं का विधिवत पूजन हवन करने के पश्चात् ब्राह्मण को दान दक्षिणा देकर संतुष्ट करना चाहिए।

तदनंतर वास्तु मण्डल, वास्तु कुंड, वास्तु वेदी का निर्माण कर मण्डल के ईशान कोण में कलश स्थापित कर गणेश जी एवं कुंड के मध्य में विष्णु जी, दिक्पाल, ब्रह्मा आदि का विधिवत पूजन करना चाहिए। अंत में वास्तु पुरुष का ध्यान निम्न मंत्र द्वारा करते हुए उन्हें अघ्र्य, पाद्य, आसन, धूप आदि समर्पित करना चाहिए।

वास्तु पुरुष का मंत्र:

वास्तोष्पते प्रति जानीहृस्मान्त्स्वावेशो अनमीवो भवान्। यत् त्वेमहे प्रति तन्नो जुषस्वं शं नो’’ भव द्विपेद शं चतुषपदे।।

कलश पूजन: वास्तु पूजन में किसी विद्वान ब्राह्मण द्वारा कलश स्थापना एवं कलश पूजन अवश्य करवाना चाहिए। कलश में जल भरकर नदी संगम की मिट्टी, कुछ वनस्पतियां तथा जौ और तिल छोड़ें। नीम अथवा आम्र पल्लवों से कलश के कंठ का परिवेष्टन करें। उसके ऊपर श्रीफल की स्थापना करें। कलश का स्पर्श करते हुए (मन में ऐसी भावना करें कि उसमें सभी पवित्र तीर्थों का जल है) उसका आवाहन पूजन करें।

अपनी सामथ्र्य के अनुसार वास्तु मंत्र का जाप करें तत्पश्चात् ब्राह्मण और गृहस्थ मिलकर अपने घर में उस जल से अभिषेक करें।

हवन एवं पूर्णाहुति देकर सूर्य देव को भी अघ्र्य प्रदान करें, अंत में ब्राह्मण को सुस्वादु, मीठा, उतम भोजन कराकर, दक्षिणा देकर उनका आशीर्वाद ग्रहण कर घर में प्रवेश करें और स्वयं भी बंधु-बांधवों के साथ भोजन करें।

इस प्रकार जो व्यक्ति वास्तु पूजन कर अपने नवनिर्मित गृह में निवास करता है उसे अमरत्व प्राप्त होता है तथा उसके गृहस्थ एवं पारिवारिक जीवन में रोग, कष्ट, भय, बाधा, असफलता इत्यादि का प्रवेश नहीं होता है तथा ऐसे गृह में निवास करने वाले प्राणी प्राकृतिक एवं दैवीय आपदाओं तथा उपद्रवों से सदा बचे रहते हैं और ‘वास्तु पुरुष’ एवं वास्तु देवताओं की कृपा से उनका सदैव कल्याण ही होता है।

2-वास्तुदेव की तीन विशेषताएं होती हैं : -

चर वास्तु :

इसमें वास्तु पुरुष की नजर या रुख
· भाद्रपद ( अगस्त, सितम्बर ), आश्विन तथा कार्तिक ( अक्टूबर , नवम्बर ) महीनों के अवधि में वास्तु पुरुष की नजर या रुख दक्षिण की ओर होता है |
· मार्गशीर्ष (नवम्बर- दिसंबर ), पौष ( दिसंबर – जनवरी ), और माघ (जनवरी-फरवरी ) महीनों में वास्तु पुरुष की नजर या रुख पश्चिम की ओर होता है |
· फाल्गुन (फरवरी – मार्च ), चैत्र (मार्च – अप्रैल ), और वैशाख (अप्रैल – मई ) महीनों में वास्तु पुरुष की नजर या रुख उत्तर की ओर होता है |
· ज्येष्ठ (मई – जून ), आषाढ़ (जून – जुलाई ), तथा श्रावण (जुलाई – अगस्त ) महीनों की अवधि में वास्तु पुरुष की नजर या रुख पूर्व की ओर होता है |
· निर्माण कार्य का आरम्भ या शिलान्यास और मुख्य द्वार की स्थापना ऐसे स्थान पर होनी चाहिए जो वास्तुपुरुष की दृष्टी या नजर की ओर हो , ताकि मनुष्य उस मकान में शान्ति और सुख से रह सके |

स्थिर वास्तु :

वास्तु पुरुष का
सिर सदैव :- उत्तर-पूर्व की ओर रहता है
पैर :- दक्षिण – पश्चिम की ओर रहता है
दाहिना हाथ :- उत्तर-पश्चिम की ओर रहता है
बांया हाथ :- दक्षिण – पूर्व की ओर रहता है रहता है
इस बात को ध्यान में रखते हुए मकान का डिजाइन एवं प्लान बनाना चाहिए |

3-वास्तु पुरुष की नजर या नित्य वास्तु :

(क्रमशः)
@Sanatan
123 views𝑺𝒂𝒕𝒚𝒂𝒎 𝒏𝒊𝒌𝒉𝒊𝒍 , edited  00:22
Open / Comment
2022-06-03 03:22:01 वास्तु पुरुष का प्रादुर्भाव एवं पूजन विधि-

वास्तु शास्त्र का परिचय एवं वास्तु पुरुष के प्रादुर्भाव के संबंध में जानकारी हमें प्राचीनतम ग्रंथों, वेदों और पुराणों में विस्तार से मिलती है।

‘मत्स्य पुराण’, ‘भविष्य पुराण’ ‘स्कंद पुराण’ गरुड़ पुराण इत्यादि पुराणों का अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि ‘वास्तु’ के प्रादुर्भाव की कथा अत्यंत प्राचीन है।

इस लेख में कि वास्तु पुरूष का प्रादुर्भाव कैसे हुआ, क्यों उनकी पूजा की जानी चाहिए तथा उनकी पूजा की उपयुक्त विधि क्या है?
मत्स्य पुराण के अनुसार मत्स्य रूपधारी भगवान विष्णु ने सर्वप्रथम मनु के समक्ष वास्तु शास्त्र को प्रकट किया था, तदनंतर उनके उसी उपदेश को सूत जी ने अन्य ऋषियों के समक्ष प्रकट किया।

इसके अतिरिक्त ‘भृगु’, वशिष्ठ, विश्वकर्मा, माय, नारद, नग्नजित, भगवान शिव, इंद्र, ब्रह्मा, कुमार, नंदीश्वर, शौनक, गर्ग, वासुदेव, अनिरुद्ध, शुक्र तथा बृहस्पति- ये अठारह वास्तु शास्त्र के उपदेष्टा माने गये हैं।

‘मत्स्य पुराण’ के अनुसार प्राचीन काल में भयंकर अंधकासुर वध के समय विकराल रूपधारी भगवान शंकर के ललाट से पृथ्वी पर उनके स्वेद बिंदु गिरे थे, उससे एक भीषण एवं विकराल मुख वाला प्राणी उत्पन हुआ। वह पृथ्वी पर गिरे हुए अंधकों के रक्त का पान करने लगा, रक्त पान करने पर भी जब वह तृप्त न हुआ, तो वह भगवान शंकर के सम्मुख अत्यंत घोर तपस्या में संलग्न हो गया।

जब वह भूख से व्याकुल हुआ तो पुनः त्रिलोकी का भक्षण करने के लिए उद्यत हुआ। तब उसकी तपस्या से संतुष्ट होकर भगवान शंकर उससे बोले- ‘निष्पाप तुम्हारा कल्याण हो, अब तुम्हारी जो अभिलाषा है, वह वर मांग लो।’’ तब उस प्राणी ने शिवजी से कहा- देवदेवेश मैं तीनों लोकों को ग्रस लेने के लिए समर्थ होना चाहता हूं।

इस पर त्रिशूल धारी ने कहा-’’ ऐसा ही होगा, फिर तो वह प्राणी शिवजी के वरदान स्वरूप अपने विशाल शरीर से स्वर्ग, संपूर्ण भूमंडल और आकाश को अवरुद्ध करता हुआ पृथ्वी पर आ गिरा।

तब भयभीत हुए देवता और ब्रह्मा, शिव, दैत्यों और राक्षसों द्वारा वह स्तंभित कर दिया गया। उसे वहीं पर औंधे मुंह गिराकर सभी देवता उस पर विराजमान हो गये।

इस प्रकार सभी देवताओं के द्वारा उसपर निवास करने के कारण वह पुरुष ‘वास$तु= ‘वास्तु’ नाम से विख्यात हुआ।

तब उस दबे हुए प्राणी ने देवताओं से निवेदन किया- ‘‘देवगण आप लोग मुझ पर प्रसन्न हों, आप लोगों द्वारा दबाकर मैं निश्चल बना दिया गया हूं, भला इस प्रकार अवरुद्ध कर दिये जाने पर नीचे मुख किये मैं कब तक और किस तरह स्थित रह सकूंगा।

उसके ऐसा निवेदन करने पर ब्रह्मा आदि देवताओं ने कहा- वास्तु के प्रसंग में तथा वैश्वेदेव के अंत में जो बलि दी जायेगी वह तुम्हारा आहार होगा।

आज से वास्तु शांति के लिए जो- यज्ञ होगा वह भी तुम्हारा आहार होगा, निश्चय ही यज्ञोत्सव में दी गई बलि भी तुम्हें आहार रूप में प्राप्त होगी। गृह निर्माण से पूर्व जो व्यक्ति वास्तु पूजा नहीं करेंगे अथवा उनके द्वारा अज्ञानता से किया गया यज्ञ भी तुम्हें आहार स्वरूप प्राप्त होगा।

ऐसा कहने पर वह (अंधकासुर) वास्तु नामक प्राणी प्रसन्न हो गया। इसी कारण तभी से जीवन में शांति के लिए वास्तु पूजा का आरंभ हुआ।

वास्तु मण्डल का निर्माण एवं वास्तु-पूजन विधि: उतम भूमि के चयन के लिए तथा वास्तु मण्डल के निर्माण के लिए सर्वप्रथम भूमि पर अंकुरों का रोपण कर भूमि की परीक्षा कर लें, तदनंतर उतम भूमि के मध्य में वास्तु मण्डल का निर्माण करें।

वास्तु मण्डल के देवता 45 हैं, उनके नाम इस प्रकार हैं-

1. शिखी 2. पर्जन्य 3. जयंत 4. कुलिशायुध 5. सूर्य 6. सत्य 7. वृष 8. आकश 9. वायु 10. पूषा 11. वितथ 12. गहु 13. यम 14. गध्ंर्व 15. मगृ राज 16. मृग 17. पितृगण 18. दौवारिक 19. सुग्रीव 20. पुष्प दंत 21. वरुण 22. असुर 23. पशु 24. पाश 25. रोग 26. अहि 27. मोक्ष 28. भल्लाट 29. सामे 30. सर्प 31. अदिति 32. दिति 33. अप 34. सावित्र 35. जय 36. रुद्र 37. अर्यमा 38. सविता 39. विवस्वान् 40. बिबुधाधिप 41. मित्र 42. राजपक्ष्मा 43. पृथ्वी धर 44. आपवत्स 45. ब्रह्मा।

इन 45 देवताओं के साथ वास्तु मण्डल के बाहर ईशान कोण में चर की, अग्नि कोण में विदारी, नैत्य कोण में पूतना तथा वायव्य कोण में पाप राक्षसी की स्थापना करनी चाहिए।

मण्डल के पूर्व में स्कंद, दक्षिण में अर्यमा, पश्चिम में जृम्भक तथा उतर में पिलिपिच्छ की स्थापना करनी चाहिए।इस प्रकार वास्तु मण्डल में 53 देवी-देवताओं की स्थापना होती है। इन सभी का विधि से पूजन करना चाहिए।

मंडल के बाहर ही पूर्वादि दस दिशाओं में दस दिक्पाल देवताओं की स्थापना होती है। इन सभी का विधि से पूजन करना चाहिए।

मंडल के बाहर ही पूर्वादि दस दिशाओं में दस दिक्पाल देवताओं- इंद्र, अग्नि, यम, निऋृति, वरुण, वायु, कुबेर,

(क्रमशः)
@Sanatan
131 views𝑺𝒂𝒕𝒚𝒂𝒎 𝒏𝒊𝒌𝒉𝒊𝒍 , edited  00:22
Open / Comment
2022-06-03 03:20:45
@Sanatan
130 views𝑺𝒂𝒕𝒚𝒂𝒎 𝒏𝒊𝒌𝒉𝒊𝒍 , edited  00:20
Open / Comment
2022-06-02 06:07:09 २/२

इस के बाद भगवान रूद्र अंतर्धान हो गए और पाणिनि पूरे आत्मविश्वास से अपने घर लौटे.
शिवजी की संध्या तांडव के समय उनके डमरू से निकली हुई ध्वनि उन्हें याद थी. पाणिनी उस ध्वनि का ध्यान करने लगे. उन ध्वनियों के ध्यान से संस्कृत में वर्तिका नियम की रचना की प्रेरणा हुई और उन्होंने रचा भी.

पाणिनी को भगवान का आदेश था कि समस्त तीर्थों का लाभ ज्ञानतीर्थ से प्राप्त करना है. उन्होंने एक स्थान पर आसन जमाया और डमरू की ध्वनियों के और रहस्य तलाशने लगे.

उनकी दृष्टि जितनी विस्तृत होती जाती उन्हें उतनी ही प्रेरणा मिलती गई. इस तरह पाणिनि ने सूत्रपाठ, धातुपाठ, गणपाठ और लिंगसूत्र-रूप व्याकरण शास्त्र का निर्माण कर दिया.

पाणिनी की इस रचना से जब संसार परिचित हुआ तो वह उनकी पूजा करने लगा. इस तरह पाणिनी ने परम निर्वाण प्राप्त किया.

कथा सुनाकर सूतजी बोले- ज्ञान एक सरोवर है. उस सरोवर का सत्य रूपी जल राग-द्वेष रूपी मल का नाश करने वाला है.

तीर्थों के दर्शन, दान, पूजा और व्रतोपवास से भी उत्तम धर्म साधन है मानस तीर्थ का दर्शन करता अर्थात ज्ञान प्राप्त करना. उससे समस्त पुण्य लाभ प्राप्त हो जाते हैं.

(भविष्य पुरांण प्रतिसर्गपर्व, द्वितीय खंड के पन्द्रहवें अध्याय की कथा)
साभार - मनीष शेखर
२/२
@Sanatan
544 views𝑺𝒂𝒕𝒚𝒂𝒎 𝒏𝒊𝒌𝒉𝒊𝒍 , edited  03:07
Open / Comment