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सनातन धर्म • Sanatan Dharma

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The latest Messages 5

2022-06-12 16:28:04
।। ॐ कृष्णकायाम्बिकाय विद्महे पार्वती रूपाय धीमहि तन्नो कालिका प्रचोदयात ।।

@Sanatan
234 views𝑺𝒂𝒕𝒚𝒂𝒎 𝒏𝒊𝒌𝒉𝒊𝒍 , edited  13:28
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2022-06-08 14:17:46
On a Quest

A much-loved Biopic movie on the life of the Spiritual Master Swami Chinmayananda is finally coming to the world's most visited video sharing platform - YouTube.

Premiering in English / Hindi / Sanskrit simultaneously.
Thursday 9 June 2022
7:00 PM IST

Connect to: www.youtube.com/chinmayachannel

The biopic (in three language versions) will continue to remain on Chinmaya Channel after the premiere.

Revisit the movie and promote it widely in true Yajna spirit, so that many more can be inspired by the incredible journey of our inimitable Master.

@HinduStuff
547 viewsMohan Kumar, 11:17
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2022-06-08 05:12:45 ।। ॐ कृष्णकायाम्बिकाय विद्महे पार्वती रूपाय धीमहि तन्नो कालिंका प्रचोदयात ।। (२)


हिरण इतना सजग प्राणी कोई है ही नहीं फिर भी सिंह उसे उसे खा जाता है उसकी सजगता उसे नहीं बचा पाती। सजगता से ऊपर है अध्यात्म जहाँ पर प्रज्ञा, समाधि, ध्यान की स्थिति होती है एवं इन स्थितियों में महाप्रत्यंगिरा क्रियाशील होती हैं, और वह जातक की रक्षा करती हैं। बुद्ध आँख बंद करके बैठे हैं, महावीर आँख बंद करके बैठे। हैं, ऋषि-मुनि आँख बंद करके बैठे हैं, शिव आँख बंद करके बैठे हैं फिर भी इनकी रक्षा हो रही है क्योंकि महाप्रत्यंगिरा चल रही हैं। जीवन आसान नहीं है घोर प्रतिस्पर्धा, घोर ईर्ष्या, घोर द्वैष, घोर षड्यंत्र, घोर हिंसा सर्वत्र व्याप्त है। अदृश्य जगत रहस्यमय है वैज्ञानिक तो आज तक पता नहीं लगा पाये कि एक छोटा सा कीटाणु कहाँ से आया? ब्रह्माण्ड के किस कोने से आया? काली के काले रंग में कुछ नहीं दिखता। हे काली तू ही अपनी कालिका के अंदर मौजूद रहस्य से हमारी रक्षा कर, सारे कारण तेरे अंदर मौजूद हैं।


शिव शासनत: शिव शासनत:
क्षमस्व परमेश्वरी
@Sanatan
652 views𝑺𝒂𝒕𝒚𝒂𝒎 𝒏𝒊𝒌𝒉𝒊𝒍 , edited  02:12
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2022-06-08 05:12:14 ।। ॐ कृष्णकायाम्बिकाय विद्महे पार्वती रूपाय धीमहि तन्नो कालिंका प्रचोदयात ।।


ब्रह्माण्ड में असंख्य प्रकार का जीवन है कच्चा-पक्का, परिपक्व, अदृश्य, सूक्ष्म, एक आयाम से लेकर न जाने कितने आयाम तक अतः हम अकेले नहीं हैं। पृथ्वी पर समुद्र मे जीवन है, पहाड़ पर जीवन है, पाताल में जीवन में है, आकाश में जीवन है अर्थात जीवन कहाँ नहीं है एवं इन सबमें होड़ मची हुई है टेक ओवर अर्थात अधिग्रहण की। सब शाक्तोपासना में लीन हैं अपने-अपने तरीके से जो ज्यादा प्रबुद्ध, ज्यादा अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित, ज्यादा शक्तिशाली और गुणित हो सकता है वह अधिग्रहण कर लेता हैं। वर्तमान में इस पृथ्वी पर मनुष्य रूपी जीवन ने सर्वत्र अधिग्रहण कर लिया है, अधिग्रहण की महत्वाकांक्षा कभी रुकती नहीं है। अब हम अंतरिक्ष एवं अन्य ग्रहों और उपग्रहों पर भी अधिग्रहण करने की फिराक में हैं। यह नग्न सत्य है कि मनुष्य पृथ्वी पर सर्वत्र अधिग्रहण इसलिए कर पाया कि उसके शास्त्र, उसकी हिंसा करने की प्रवृत्ति, उसकी हत्या करने की योजनाएं एवं युक्तियाँ अन्य प्रकार के जीवनों की अपेक्षा वर्तमान में ज्यादा परिष्कृत हैं। जब-जब अन्य प्रकार का जीवन मनुष्य की हत्या करने की कोशिश करता है रोग के रूप में, विकृति के रूप में, महामारी के रूप में, आपदा के रूप में तो मनुष्य तुरंत ही उसकी काट ढूंढने में जी जान से जुट जाता है और उस पर विजय प्राप्त कर लेता है। यह तो हुई सामूहिक तौर पर मानव जाति की अधिग्रहण करने की प्रवृत्ति।


जीवन पग पग पर खततरों से भरा हुआ है मकड़ी का विष, एक छोटे से कीड़े का विष, मच्छर का डंक, एक अति सूक्ष्म विषाणु की शरीर में प्रविष्ठी मृत्यु का कारण बन सकती है अतः मानव मस्तिष्क को प्रतिक्षण नवीन से नवीन, परिष्कृत से परिष्कृत एण्टी बॉडीज के निर्माण में लगे रहना पड़ता हैं। पृथ्वी का आवरण अपने आप में परम एण्टी बॉयोटिक है, वह सूर्य की मारक किरणों को वही निष्क्रिय कर देती है। असंख्य मनुष्य हैं सबकी अपनी वेव लैंथ हैं, सबकी अपनी संकल्प शक्ति है, सब अलग-अलग प्रकार की विद्याओं में निपुण हैं अतः कब कौन कैसी वैव लैंथ चलाता है, कैसा षड्यंत्र रचता है, कैसा गंदा खेल खेलता है कुछ कहा नहीं जा सकता। किसकी विष ग्रंथि में किस प्रकार का विष हैं यह चिंतन का विषय है। नाम नहीं लेना चाहतआ परन्तु एड्स से ग्रसित कुछ महिलाओं को एक विशेष राजनैतिक दल ने अपने प्रति-स्पर्धी राजनैतिक दल के शीर्ष नेताओं के खिलाफ इस्तेमाल किया था और उस राजनैतिक दल के अनेक नेता एड्स से ग्रसित हो गये। मैंले लोग, मैला चिंतन, मैली भावनाएं, मैले कर्म, मैले कृत्य यह सब शाश्वत सत्य हैं। महाविद्याएं शुद्ध विद्या के अंतर्गत आती है अतः मैलापन फैलाने वाले, मैली क्रिया करने वाले लोगों से भगवती विपरीत महाप्रत्यंगिरा ही रक्षा करती हैं।

आध्यात्मिक उपासना का तात्पर्य यही है कि हमें अभय दो, हमारे ऊपर वरद हस्त रखो ताकि हम मैलेपन से ग्रसित न हो जायें, दूषित न हो जायें। मृत्यु सर्वत्र नृत्य कर रही है पुल गिर जाता है, ऋतु परिवर्तन होता है तो लोग मर जाते हैं, लोग ठंड से मरते हैं, गर्मी की बलि चढ़ जाते हैं, बरसात में बाढ़ की बलि चढ़ जाते हैं, प्राकृतिक आपदाओं की बलि चढ़ जाते हैं, धार्मिक उत्सवों में मारे जाते हैं। कृत्या कोई भी चला सकता है, पत्नी भी कृत्त्या चला सकती है घाव देने वालों की कमी नहीं है, संतान भी कृत्या चला सकती है अधिकांशतः लोग संतानों से पीड़ित है। पुराणों की छोड़ों, आज की ज्वलंत समस्या क्या है? धार्मिक आतंकवाद, सामाजिक आतंकवाद,राजनैतिक आतंकवाद इत्यादि-इत्यादि आतंकवादी कौन हैं ? ये सब कृत्या पुरुष और कृत्या स्त्रियाँ हैं जिनका मस्तिष्क दूषित कर दिया गया है, जिन्हें एक आयुध के समान लक्ष्य बनाकर कोई तीक्ष्ण मस्तिष्क उपयोग कर रहा है। सजग होने से कुछ नहीं होगा, 99 प्रतिशत पशु-पक्षी चौबीसों घण्टे सजग रहते हैं, चारों तरफ देखते रहते हैं कि कहीं कोई शिकारी तो नहीं आ रहा पर क्या होता है ?

(क्रमशः)

@Sanatan
622 views𝑺𝒂𝒕𝒚𝒂𝒎 𝒏𝒊𝒌𝒉𝒊𝒍 , 02:12
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2022-06-08 05:11:05
ॐ नमो भगवती महाप्रत्यंगिरा स्वरूपिणी गणेश मातृका मम समस्त प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष शत्रून नाशय-नाशय हुं फट् स्वाहा।

@Sanatan
569 views𝑺𝒂𝒕𝒚𝒂𝒎 𝒏𝒊𝒌𝒉𝒊𝒍 , edited  02:11
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2022-06-07 10:30:25 श्री प्रत्यंगिरायै नमो नम: (२)
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हमारी पृथ्वी पर जीवन की सर्वांग रक्षा मनुष्य का मूलभूत अधिकार है। प्रत्येक देश का संविधान एक तरह से प्रत्यंगिरा विद्या का ही अनुसरण करता है। प्रत्येक देश के चिकित्सक, राजनीतिज्ञ, बुद्धिजीवी, आध्यात्मिक व्यक्तित्व, प्रत्यंगिरा के मूलभूत के सिद्धांत पर चलते हैं अर्थात जीवन की रक्षा होनी चाहिए। जो जीवन में विघ्न डालते हैं, जीवन को मृत्यु के मुख में ले जाते हैं, जीवन को कष्टमय बनाते हैं, जीवन को कमजोर करते हैं वे दण्ड के पात्र हैं और यही रहस्य हैं तेरे खड्ग धारण करने का। मनुष्य एवं जीव जंतुओं को कर्म करने का नैसर्गिक अधिकार प्राप्त है, कर्म के इस नैसर्गिक अधिकार का ज्यादातर मनुष्य दुरुपयोग ही करते हैं। जाने- अनजाने में या आदत -वश कर्म करने के अधिकार का सामूहिक तौर पर, व्यक्तिगत तौर पर, गुप्त रूप से, मानसिक रूप से, आध्यात्मिक रूप से मुझे तो सिर्फ हिंसात्मक रूप में उपयोग ही दिखाई पड़ता है। कौन कहता है कि पृथ्वी सभ्य हो गई है ? पृथ्वी सुसंस्कृत हो गई है ? पृथ्वी पर हिंसा की मात्रा कम हो गई है ? यह सब पूरी तरह से बकवास हैं। भले ही स्थूल रूप में आज बड़े-बड़े हिंसक प्राणी न दिखाई देते हों पर हिंसा ने रूप बदल लिया है, चोला बदल लिया है वह और पैनी, सूक्ष्म एवं न पकड़ में आने वाली हो गई है। कौन सभ्य ? सूट बूट पहना आदमी, पढ़ा-लिखा आदमी, बुद्धिमान आदमी, पैसे वाला आदमी, राजनेता, अभिनेता, ऊंचे औहदे पर बैठा अफसर, आम मनुष्य, व्यापारी इत्यादि- इत्यादि। क्या परिभाषा है सभ्य होने की, सुसंस्कृत होने की, इन सबके कर्मों में घोर हिंसा छिपी हुई है। इन सबके कर्म अत्यधिक पीड़ादायक, मानव रक्त से सने हुए, परम शोषक एवं चरम हिंसा लिए हुए हैं।

जब तक कर्म का अधिकार हम नहीं समझेंगे कृत्य जो कि कर्म से उत्पन्न होता है वह हिंसा से मुक्त नहीं होगा। वहीं सभ्य, सुसंस्कृत एवं शालीन कहलाने योग्य हैं जो प्रत्येक कर्म को हिंसा विहीन कर लें परन्तु यह सैद्धांतिक बात है अतः अति परिष्कृत, परा-आध्यात्मिक युद्ध मशीन जो कि स्वतः जीवित जागृत हो, पूर्णांग हो, सहस्वांग हो, अनताग हो, जिसमें से कि अपने आप प्रतिरोध की क्षमता, निरोध की क्षमता, शत्रु को पहुंचने की क्षमता, उसे निष्क्रिय करने की क्षमता, उसके कृत्यों को काटने की क्षमता हो ऐसी परा आध्यात्मिक सम्पूर्ण आयुध प्रणाली नितांत आवश्यक है और यह प्राप्त होती है महाप्रत्यंगिरा अराधना से। अगर आप ज्योतिषी है तो आपको कुण्डली में देखना चाहिए कि सामने की विष कन्या तो नहीं बैठी हुई है? इसको जन्म कुण्डली में विष कन्या योग तो नहीं है। सामने बैठता जातक कहीं कृत्या-पुरूष तो नहीं है, कहाँ इसकी कुण्डली में महाषडयंत्र कारी योग तो नहीं है, क्षदम् योग तो नहीं है। यह तो हुई पैथालॉजी रिपोर्ट फिर आपको चाहिए विष कन्या के विष का तोड़, पुरुष के क्षदम् योग का तोड़ ढूंढना चाहिए। ऐसा टीका जो विष कन्या के विष को निष्प्रभावी बना दे, क्षदम् पुरुष योग को तोड़-फोड़ कर रख दे तभी आप जीवन में सफल हो सकते हैं अन्यथा विष कन्या का योग लिए हुए कोई स्त्री, आपको पत्री, आपकी पत्नी, आपकी प्रेमिका, आपकी सहयोगी, आपकी मित्र इत्यादि-इत्यादि बनकर आयेगी और अपनी विष ग्रंथि से आपका काम तमाम कर देगी। पूतना कृष्ण को विषाक्त दुग्ध पिलाने आयी थी पर खुद ही स्वर्ग सिधार गई। सूर्पणखा विषकन्या थी लक्ष्मण ने उसे पहचान लिया, वह सीता का भक्षण करना चाह रही थी। श्रीविद्या का तात्पर्य है जीवन की तीन अवस्थाएं जागृत, सुषुप्त एवं स्वप्न की स्थिति में सौन्दर्य का दर्शन, परम सौन्दर्य का दर्शन। जागृत अवस्था भी सौन्दर्यवान हो, जागृत अवस्था स्थूल कर्म की अवस्था होती है। सुषुप्त अवस्था में स्थूल कर्म शून्य होते हैं ऐसी अवस्था में भी आप सौन्दर्य के दर्शन कर सकें और आपके स्वप्न भी सौन्दर्य से परिपूर्ण हों। सुन्दर सपने देखो, सुन्दर चिंतन करो, कालिका के सौन्दर्य को निहारो यही श्रीविद्या है। नमो सुन्दरिम्-नमो सुन्दरिम् श्री सुन्दरिम् नमो नमः ।

शिव शासनत: शिव शासनत:
क्षमस्व परमेश्वरी
@Sanatan
916 views𝑺𝒂𝒕𝒚𝒂𝒎 𝒏𝒊𝒌𝒉𝒊𝒍 , edited  07:30
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2022-06-07 10:23:45 श्री प्रत्यंगिरायै नमो नम:
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हे महाकालिके, हे प्रथमा, हे आद्या, हे महाविपरीत प्रत्यंगिरे जब साधक के बड़े पुण्य भाग जागते हैं तब वह तेरे नाम का उच्चारण करता है। वह साधक परम सौभाग्यवान है जो तुझे भजता है, साथ ही साथ जब तू स्वयं साधक को अपना लेती है तो इस प्रकार के कालिकामय साधक के दिव्य भाग्य पर देवता भी विस्मित हो जाते हैं। हे कालिका तेरी साधना से साधक के जीवन में परा ब्रह्माण्डीय प्रत्यंगिरा शासन प्रारम्भ हो जाता है और उसकी एकमात्र शासनाध्यक्षा तू होती है। तू ही साधक के जीवन में घटने वाले प्रत्येक क्षण को प्रत्यक्ष रूप से देखती है, प्रत्यक्ष निर्णय लेती है और इस प्रकार वह साक्षात् काल और महाकाल से परे अकाल हो जाता है। इस प्रकार काल एवं महाकाल साधक के जीवन में मौजूद काल के क्षणों को प्रभावित नहीं कर पाते तो फिर औरों की क्या बिसात? ग्रह, नक्षत्र, देवी-देवता, राशियाँ, असुर, गंधर्व यहाँ तक कि शिव और ब्रह्मा, रुद्र, विष्णु, रोग, मृत्यु कोई भी साधक के जीवनकाल में प्रविष्ट हो क्रियाशील नहीं हो पाता। जो सबका प्रवेश निषेध कर दे, सबके कर्म साधक के ऊपर वर्जित कर दे, सभी प्रकार के कृत्य-कुकृत्य का निरोध कर दे, निषेध कर दे ऐसा है तेरा स्वरूप हे महाविपरीत प्रत्यंगिरे जो तुझे पूजता है, तुझे भजता है तू उसे किसी अन्य को पूजने भजने नहीं देती एवं उसके जीवन का लक्ष्य-निर्धारण, उसकी जरूरतें, उसकी इच्छाएं इत्यादि का तू स्वयं भरण-पोषण करती है। यही रहस्य है हे कालिके तेरा महाकाल के ऊपर नर्तन करने का अतः कालिका के साधक के लिए तो महाकाल भी शव स्वरूप होता है तो फिर काल की क्या बिसात?

ऐसे साधक का जीवन घड़ी की सुइयों से निर्धारित नहीं होता। वर्ष, महीने, दिन, मुहूर्त इत्यादि महाप्रत्यंगिरा के साधक के लिए कोई मायने नहीं रखते क्योंकि इन सबका अधिनायक महाकाल तो स्वयं हे प्रत्यंगिरे तेरे चरणों में पड़ा हुआ है भला वह तेरी आज्ञा कैसे टाल सकता है ? ब्रह्माण्ड की सबसे अति विकसित युद्ध मशीन अर्थात समग्र शस्त्र प्रणाली के रूप में तू अपने साधक के अंदर और बाहर क्रियाशील हो उठती है। "ॐ क्रीं क्रीं क्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रूं ह्रूं...... हूं हूं स्वाहा" इस मंत्र का तात्पर्य है कि अगर मेरे जातक की तरफ नजर उठाकर देखी, उससे छेड़खानी की, उससे खेलने की कोशिश की, उसे परेशान करने की कोशिश की, उससे कुछ मांगने या छीनने की कोशिश की तो शव बना दिए जाओगे, मुर्दे में परिवर्तित कर दिए जाओगे और तुम्हारा स्थान होगा महाश्मशान जहाँ मेरी समस्त प्रत्यंगिरा स्वरूपिणीं काली-नित्याएं, महायोगिनियाँ तुम्हारा उसी प्रकार भक्षण करेंगी, तुम्हारा उसी प्रकार मर्दन करेंगी जिस प्रकार श्री दुर्गा सप्तशती में वर्णित युद्ध में असुरों का हुआ था।

हे महाप्रत्यंगिरा तू महायुद्ध की नायिका है, तेरे अंदर से ही समस्त प्रकार के युद्धों का जन्म होता है, तू शस्त्र-बिन्दु है। इस ब्रह्माण्ड में जितने भी स्थूल, जैविक, सूक्ष्म, आणविक, परमाणविक, दैवीय, परादैवीय, मंत्रात्मक, तंत्रात्मक, संकलात्मक इत्यादि-इत्यादि शस्त्र हैं अस्त्र हैं वे सब तुझी में से उत्पन्न होते हैं। हे प्रत्यंगिरे तू परम काट है, तू दिव्य तोड़ है, तू परम औषधि है तू परा निदान है। संसार में ऐसा कोई रोग नहीं, ऐसा कोई शत्रु नहीं, ऐसा कोई वाक्य नहीं, ऐसा कोई मुण्ड नहीं, ऐसा कोई षडयंत्र नहीं, ऐसा कोई मारकेश नहीं, ऐसा कोई शास्त्र नहीं, ऐसा कोई मंत्र नहीं, ऐसा कोई विज्ञान नहीं इत्यादि इत्यादि जिसकी काट, जिसका तोड़ तेरे पास मौजूद न हो एवं यही श्री दुर्गा-सप्तशती में वर्णित युद्ध में तूने स्पष्ट रूप से दिखाया है। तू शिवास्त्र की भी काट रखती है उसे भी क्षण भर में बेकार कर सकती है यही तेरे अट्ठाहास और हूँ हूँ के नाद का रहस्य है।



(क्रमशः)

@Sanatan
863 views𝑺𝒂𝒕𝒚𝒂𝒎 𝒏𝒊𝒌𝒉𝒊𝒍 , edited  07:23
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2022-06-07 10:20:46
ॐ नमो भगवती महाप्रत्यंगिरा स्वरूपिणी त्वरिता मातृका मम समस्त प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष शत्रून नाशय नाशय हुं फट् स्वाहा।

@Sanatan
637 views𝑺𝒂𝒕𝒚𝒂𝒎 𝒏𝒊𝒌𝒉𝒊𝒍 , edited  07:20
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2022-06-04 12:11:33 प्रेमोपासना (५)
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जो जीवात्मा जितनी ही प्रेम के लिए व्याकुल होती है वह अपनी व्याकुलता शरीर के माध्यम से क्रोध, द्वेष, हिंसा, अत्याचार इत्यादि नकारात्मक रूप में प्रकट करती है। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार एक नवजात शिशु माँ के सानिध्य के लिए अत्यंत ही दिल हिला देने वाला, नसें फाड़ देने वाला व्याकुल प्रलाप करता है।

दुर्वासा को देखकर द्रोपदी कांप उठी क्योंकि रसोई की थाली में मात्र कुछ चॉवल के दाने पड़े थे। प्रेममयी द्रोपदी ने तुरंत ही कृष्ण का आहवान किया। ध्यान रहे प्रेम के अभाव में दो कौड़ी की पाखण्डी पूजा पद्धतियाँ मात्र बकवास हैं। समय व्यर्थ करने के साधन एवं अंत में कुण्ठित और निराश होने के कारण बनते हैं। अधिकांशतः साधक इसलिए पूजा विधानों को कोसते हैं और भगवान को गालियाँ देते हैं। पैट्रोल के अभाव में कितनी भी आधुनिक और परिष्कृत वाहन क्यों न हों वह कभी गतिमान नहीं हो सकती। चाबी उमेठते रहो बैटरी डाउन हो जायेगी पर वाहन गतिमान नहीं होगा। द्रोपदी का प्रेममय आह्वान सुन अगले ही क्षण कृष्ण ने पाँच-छ: चॉवल के दानों को इतना प्रेममय बना दिया कि दुर्वासा और उनके शिष्य तृप्त हो गये। वास्तव में दुर्वासा की भूख का कारण भोजन न होकर श्री कृष्ण प्राप्ति है और द्रोपदी के पास श्री कृष्ण की विशेष कृपा है। उस कृपा के अंशात्मक प्रभाव से ही महाक्रोधी दुर्वासा के अंदर उपस्थित जीवात्मा तृप्त हो गई। तृप्त हो गये तभी तो आशीर्वाद देने लगे। तृप्त व्यक्ति ही आशीर्वाद दे सकता है। प्रेममयी व्यक्ति ही दीक्षा दे सकता है। दीक्षा, आशीर्वाद, ज्ञान, कृपा इत्यादि-इत्यादि का उत्पादन प्रेम के द्वारा ही सम्भव है।

प्रेम ही आदान प्रदान का मार्ग है। जैसे ही जीवात्मा प्रेम की प्राप्ति करती हैं वैसे ही वह उत्पादक हो जाती है। जिस जीवात्मा को जितना ज्यादा कृष्ण का सानिध्य प्राप्त होता है वह उतना ही श्रेष्ठ उत्पादन या फल उत्पन्न करती है। यही योनियों की विशेषता है। वही योनि सर्वश्रेष्ठ है जो कि गुरु फल का उत्पादन करती है। मनुष्य श्रेष्ठ इसलिए है क्योंकि उसमें गुरुओं का उत्पादन होता है। आम्र वृक्ष में भी गुरुफल लगते हैं। गौ इसलिए पूजनीय है कि वह अमृतधारा का उत्पादन करती है। उस अमृतधारा का जिसे श्रीकृष्ण भी द्वापर में पान कर रहे हैं देखिए गौ वंश कितना भाग्यशाली है। साक्षात् भगवान श्री कृष्ण उन्हें वंशी की धुन सुना रहे हैं उनके साथ वन में विचर रहे हैं, उनके साक्षात् रखवाले हैं एवं उनके थन से अपने श्री मुख के द्वारा सीधे दुग्धपान कर रहे हैं। गौओं के दूध से निकला माखन उन्हें इतना प्रिय है कि उसे भी वह निकाल- निकाल कर खा रहे हैं इसीलिए गौऐ अत्यंत तृप्त लगती हैं। सभी चौपायों में वे अत्यंत ही शांत, मधुर और अहिंसक हैं इसलिए वे पूजनीय हैं। गौ योनि अत्यंत ही दुर्लभ योनि है। जिस भी जीव ने गौ योनि को प्राप्त किया वह सीधे परमधाम को ही पधारता है। यह योनि श्री कृष्ण द्वारा संस्पर्शित अर्थात पूर्ण रूपेण दीक्षित है, संस्कारित है इसीलिए गौ वंश की सेवा से बड़ा कोई पुण्य ही नहीं है।

सोचिए उन निशाचरों के बारे में जो कि गौ वंश की हत्या करते हैं। ऐसे मनुष्य और जीव अनंत अनंत काल तक प्रेम के लिए छटपटाते हुए नर्क तुल्य कष्ट झेलते हैं। पापों से मुक्ति के उपाय अत्यंत ही सरल हैं। उन्हें ही प्रेम कीजिए जिन्हें श्री कृष्ण ने स्वयं विशुद्ध प्रेम किया है। श्री कृष्ण ने प्रेम किया है गौओं से, गोपियों से, सुदामा से, अर्जुन से, द्रोपदी से और पाण्डवों से इत्यादि-इत्यादि । प्रेम पर अनुसंधान करना है, प्रेम की चाहत है तो फिर श्रीकृष्ण के जीवन पर अनुसंधान करो, उनकी लीलाओं को समझो, गीता का ज्ञान ग्रहण करो, जो-जो प्रभु श्रीकृष्ण को प्रिय है उन्हीं का सानिध्य प्राप्त करो। बस प्रेममयी बन जाओ। यही गुरु बनने की कला है। यही दीक्षा प्रदान करने की तकनीक है। यही सभी तरफ प्रिय बनने का रहस्य है। मनुष्यों के हृदय में प्रियता के साथ वास करना चाहते हों तो कृष्ण की शरण में जाओ।

@Sanatan
86 views𝑺𝒂𝒕𝒚𝒂𝒎 𝒏𝒊𝒌𝒉𝒊𝒍 , 09:11
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