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सनातन धर्म • Sanatan Dharma

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2022-05-28 08:58:02 परम् न्यायधीश (३)
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दक्षिणे पातु विघ्नेशो नैर्ऋत्यां तु गजाननः ॥
पश्चिमे पार्वतीपुत्रो वायव्यां शंकरात्मजः ।
कृष्णस्यांशश्चोत्तरे च परिपूर्णतमस्य च ॥
ऐशान्यामेकदन्तश्च हेरम्ब: पातु चोर्ध्वतः ।
अघो गणाधिपः पातु सर्वपूज्यश्च सर्वतः ॥
स्वप्ने जागरणे चैव पातु मां योगिनां गुरुः ॥
इति ते कथितं वत्स सर्वमन्त्रौघविग्रहम् ।
संसारमोहनं नाम कवचं परमाद्भुतम् ॥
श्रीकृष्णेन पुरा दत्तं गोलोके रासमण्डले ।
वृन्दावने विनीताय मह्यं दिनकरात्मज ॥
मया दत्तं च तुभ्यं च यस्मै कस्मै न दास्यसि ।
परं वरं सर्वपूज्यं सर्वसंकटतारणम् ॥
गुरुमभ्यर्च्य विधिवत् कवचं धारयेत्तु यः ।
कण्ठे वा दक्षिणे बाहौ सोऽपि विष्णुर्न संशयः ॥ अश्वमेघसहस्त्राणि वाजपेयशतानि च ।
ग्रहेन्द्र कवचस्यास्य कलां नार्हन्ति षोडशीम् ॥
इदं कवचमशात्वा यो भजेच्छंकरात्मजम् ।
शतलक्षप्रजप्तोऽपि न मन्त्रः सिद्धिदायकः ॥

शनि देव ने तुरंत गणेश कवच का पाठ प्रारम्भ कर दिया और इस प्रकार महाकूरा रूप धारण की हुई जगदम्बा की दृष्टि शनि के प्रति सौम्य हो गई।

आप शनि के आस-पास आज भी वलय देखते हैं, वे चारों तरफ से सुदर्शन चक्र नुमा वलय से आच्छादित हैं। क्रूर दृष्टि सम्पन्न शनि पर अनेकों बार महायोगियों, महाशक्तियों, महाविद्याओं, महादेवों, महर्षियों के साथ-साथ सभी जीवों की भी वक्र दृष्टि होती है। शनि को तो सूर्य भी वक्र दृष्टि से देखते हैं ऐसे में बेचारा शनि अकेला पड़ जाता है। किस किस की वक्र दृष्टि, किस-किस की क्रूर दृष्टि को वह झेले। भला किसमें ताकत है कि वह जगदम्बा की क्रूर दृष्टि झेले ? उनके आगे तो शिव भी नतमस्तक हैं। ब्रह्माण्ड एक से एक विलक्षण शक्तियों से भरा पड़ा है जो किसी को कुछ नहीं समझतीं तब से लेकर आज तक नीची आँख किए, ध्यान भाव में बैठे, एकाकी जीवन जीने वाले योगियो, साधु-संन्यासियों को सभी महाविद्याएं शंका की दृष्टि से, वक्र दृष्टि से, क्रूर दृष्टि से सर्वप्रथम देखती हैं कि कहीं पुनः शनि तो नहीं आ रहा है।

आदि गुरु शंकराचार्य जी जब दक्षिण में जगदम्बा के मंदिर में प्रविष्ट होने वाले थे तो उन्होंने सर्वप्रथम इसी गणेश कवच को धारण किया था। प्रत्येक समझदार संन्यासी को मातृ विग्रह के सामने जाने से पूर्व इस गणेश कवच को अवश्य धारण करना चाहिए अन्यथा उसे जगदम्बा की वक्र दृष्टि झेलनी पड़ेगी। जो कवच शनि की भी रक्षा करे वह कवच तो शनि की महादशा से ग्रसित जातक के लिए साक्षात् संजीवनी है। जैसे ही गणपति का शिरोच्छेदन हुआ नीलकमल के समान सदृश्य मां जगदम्बा की आँखों से अश्रु बूंदे पुत्र वियोग में छलक पड़ी और यही अश्रु बूंदे कालान्तर नीलमणि अर्थात नीलम के रूप में स्थापित हुईं। नीलम अर्थात माँ जगदम्बा की आँखों से गणेश वियोग में स्खलित हुई साक्षात् अश्रु बूंदें। जब जातक शनि की महादशा के अंतर्गत आता है तो वह जगदम्बा के सामने गणेश जी का ध्यान करके शनि की अंगुली में अर्थात मध्यमा में नील मणि धारण करता है और इस प्रकार जगदम्बा के समस्त रूप जातक की शनि की कुदृष्टि से रक्षा करते हैं। शनि भी नीलमणि को देख पूर्व काल में घटित जगदम्बा के परम प्रचण्ड स्वरूप को याद कर जातक को राहत प्रदान करते है। राष्ट्रपति चाहे तो क्षण भर में, राष्ट्राध्यक्ष चाहे तो क्षण भर में मृत्युदण्ड प्राप्त, आजीवन कारावास प्राप्त अभियुक्त को क्षमा कर सकता है, उसे क्षमादान करने की विशेष शक्ति प्राप्त है। न्याय ही सब कुछ नहीं है, न्याय से ऊपर क्षमा है। कभी-कभी न्याय भी गलत होता है, दोषी निर्दोष साबित हो जाते हैं एवं निर्दोषी दोषी साबित हो जाते हैं। क्षमा जीव का जन्म सिद्ध अधिकार है, क्षमा याचना पर ही अध्यात्म चलता है।

प्रायश्चित, दण्ड व्यवस्था से ऊपर का स्तर है। दण्ड व्यवस्था ने आज तक परिवर्तन नहीं किया अगर ऐसा होता तो हत्यायें रुक गईं होती, व्याभिचार रुक गये होते, चोरी रुक गईं होती पर ऐसा कभी नहीं हुआ क्रूर से क्रूर दण्ड प्रदान से करने वाले देशों में भी अपराध होते हैं शनि की महादशा भोगने के बाद भी जातक पुनः अपराध करते हैं। दण्ड व्यवस्था, न्यायधीश व्यवस्था एक तरह से भैरव तंत्र के अंतर्गत आती है। भय का उत्पादन, भयभीत करना प्रताड़ित करना ही शनि का कार्य है एवं इस प्रणाली से मात्र कुछ हद तक अंकुश लगता है पर यह पूर्ण उपचार नहीं है। पूर्ण उपचार तो शिवोऽहम भाव में है, वास्तविक अध्यात्म में है और कहीं नहीं। परिवर्तन सिर्फ शिव और शक्ति का विषय है। फर्जी नकली दुर्गा, फर्जी नकली काली, फर्जी नकली गणेश, फर्जी नकली विष्णु, फर्जी नकली देवता, फर्जी नकली हनुमान इत्यादि ।

(क्रमशः)

@Sanatan
360 views𝑺𝒂𝒕𝒚𝒂𝒎 𝒏𝒊𝒌𝒉𝒊𝒍 , edited  05:58
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2022-05-28 08:56:57 परम् न्यायधीश (२)
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त्यागना तो पड़ेगा ही, जितनी जरूरत है उतना ले लो उससे ज्यादा मत लो नहीं तो गधे बन जाओगे, कब तक ढोओगे? यही शनि उवाच है। जितना ढो सकते हो उतना ढोओ उससे ज्यादा ढोने की कोशिश मत करो। जितना वजन लेकर बालक पैदा होता है उतना ही वजन मरने के बाद अस्थियों का होता है इससे एक रत्ती भी ज्यादा नहीं। शिव लोक में गणेश ने जन्म लिया महान कौतुक समस्त ब्रह्माण्ड में छा गया। शिव जैसा योगी पिता बन गये, काम को दग्ध करने वाला शिव आज पिता बन गये अतः चारों तरफ प्रसन्नता छा गई। ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र, कुबेर, सरस्वती, बृहस्पति, सूर्य सबने जी भरकर दान दक्षिणा देना प्रारम्भ किया। अब दान दक्षिणा इतनी ज्यादा हो गई कि ब्राह्मणों से उठ ही नहीं रही थी, वे सबके सब दान की हुई वस्तुओं को उठाने में असमर्थ हो गये। एक-एक कर सभी देवगण आते और गणेश के मुख का दर्शन कर हर्षित हो उठते तभी शनि देव भी आ गये गणपति के दर्शनार्थ शनि देव नीचे दृष्टि किए हुए जगदम्बिका के सामने खड़े थे, जगदम्बा ने कहा हे शनि देव आप भी मेरे पुत्र का मुख क्यों नहीं देखते? शनि देव अपनी दृष्टि की विशेषता जानते थे अतः उन्होंने साफ-साफ कहा कि हे मातेश्वरी मेरी दृष्टि गणेश का अनिष्ट कर सकती है इसलिए मैं इनके मुख की तरफ नहीं देखूंगा परन्तु जगदम्बा बोली यह शिव लोक है यहाँ कर्म के सिद्धांत नहीं चलते। गणेश, शिव और शक्ति का पुत्र है तुम निर्भय होकर इसके दर्शन करो। शनि ने दुःखी मन से नेत्र के एक कोने से गणपति पर दृष्टि डाली और दूसरे ही क्षण गणपति का शीश ब्रह्माण्ड में उड़ गया एवं रक्त रंजित धड़ जगदम्बा की गोद में पड़ा रहा।

दूसरे ही क्षण जगदम्बा की समस्त कलायें जाग उठीं, एक साथ दस महाविद्याएं उठ खड़ी हुईं, प्रत्यंगिरा, नित्याएं, अघोरनी, चाण्डालिका, कर्कशिका, दारुणिका, विदारिका इत्यादि सबकी सब उग्र हो उठीं। काली ने सबका भक्षण शुरु कर दिया, छिन्नमस्ता ने शीर्षों को छिन्न छिन्न करना प्रारम्भ कर दिया, 64 योगिनियों ने रक्त की धारायें बहा दी, दक्षिण काली ने चारों तरफ ज्वर ही ज्वर फैला दिया, धूमावती ने समस्त ब्रह्माण्ड को धुए में ढँक दिया एवं शिवगणों का भी भक्षण करने लगीं। बगलामुखी ने सूर्य, पवन, अग्नि, इन्द्र, यम, जल, इत्यादि ब्रह्माण्ड के प्रत्येक लोक और तत्व को स्तम्भित करके रख दिया। अट्ठाहसिका अट्ठाहस करने लगीं, मातंगी ने स्वरों का भी लोप कर दिया, राज राजेश्वरी ने ब्रह्माण्ड उलटकर रख दिया, जगदम्बा के त्रिनेत्र से एक एक करके असंख्य महा विकराल रूप लिए करालिकाएं उत्पन्न होने लगीं। शिव की कुछ समझ में नहीं आया, ब्रह्मा किंकर्त्तव्यविमूढ़ हो गये उनकी सृष्टि तृण के समान नष्ट होने लगी बस समस्त ब्रह्माण्ड में हूंकार ही हूंकार थी।

श्रीहरि गरुड़ पर सवार हो सुदर्शन चक्र ले दौड़े और गज मुख लाकर गणेश के धड़ पर स्थापित कर दिया। श्री हरि आज अपनी बहिन जगदम्बा का रौद्र रूप देख समझ गये थे कि अब उनके कर्म के सिद्धांत के प्रवर्तक शनि की खैर नहीं है। कुपित जगदम्बा ने भस्माग्नि से सम्पूर्ण नेत्रों से शनि की तरफ देखा। क्रूर को महाक्रूर दृष्टि से देखा और श्राप देते हुए कहा जा अंगहीन हो जा और देखते ही देखते शनि की टांग टूट गई, वह लड़खड़ाकर चलने लगे, श्रीहरि के सामने हाथ जोड़कर खड़े हो गये रक्षार्थ हेतु । श्रीहरि ने तुरंत अपने सुदर्शन चक्र में से एक अंश त्रैलोक्य मोहन गणेश कवच के रूप में उदित कर दिया और उसे शनि को धारण करा दिया। नीचे श्रीहरि द्वारा सुदर्शन चक्र में से प्रादुर्भावित दिव्य गणेश कवच का वर्णन है

त्रैलोक्य मोहन गणेश कवच

संसारमोहनस्यास्य कवचस्य प्रजापतिः ।
ऋषिश्छन्दश्च बृहतो देवो लम्बोदरः स्वयम् ॥
धर्मार्थकाममोक्षेषु विनियोगः प्रकीर्तितः ।
सर्वेषां कवचानां च सारभूतमिदं मुने।।
ॐ गं हुं श्रीगणेशाय स्वाहा मे पातु मस्तकम् ।
द्वात्रिंशदक्षरो मन्त्रो ललाटो मे सदाऽवतु ॥
ॐ ह्रीं क्लीं गमिति च संततं पातु लोचनम् ।
तालुकं पातु विघ्नेश: संततं धरणीतले ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लींमिति च संततं पातु नासिकाम् ।
ॐ गौं गं शूर्पकर्णाय स्वाहा पात्वधरं मम।।
दन्तानि तालुकां जिह्वां पातु मे षोडशाक्षरः ।
ॐ लं श्रीं लम्बोदरायेति स्वाहा गण्डं सदाऽवतु ।।
ॐ क्लीं ह्रीं विघ्ननाशाय स्वाहा कर्ण सदाऽवतु ।
ॐ श्रीं गं गजाननायेति स्वाहा स्कन्धं सदाऽवतु ।।
ॐ ह्रीं विनायकायेति स्वाहा पृष्ठं सदाऽवतु ।
ॐ क्लीं हीमिति कङ्कालं पातु वक्षःस्थलं च गम्।।
करौ पादौ सदा पातु सर्वाङ्गं विघ्ननिघ्नकृत् ॥
प्राच्यां लम्बोदरः पातु आग्नेय्यां विघ्जनायकः ।

(क्रमशः)

@Sanatan
359 views𝑺𝒂𝒕𝒚𝒂𝒎 𝒏𝒊𝒌𝒉𝒊𝒍 , edited  05:56
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2022-05-28 08:55:49 परम् न्यायधीश
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महर्षि डग नर्मदा के किनारे तपस्या में लीन थे, उन्होंने नर्मदांचल में आश्रम बना रखा था। महर्षि डग जैसे ही ध्यानस्थ होते, एक भीलनी आकर श्रृद्धापूर्वक उनके आश्रम को साफ सुथरा कर देती, लीप पोत देती, पुनः व्यवस्थित कर देती और धीरे से चुपचाप चली जाती। कई वर्षों तक वह भीलनी बिना महर्षि से बताये स्वेच्छा भाव से छुप-छुप कर उनकी इस प्रकार सेवा करती रही। महर्षि प्रतिदिन अपने आश्रम को सुव्यवस्थित देख आश्चर्यचकित हो जाते आखिरकार एक दिन उन्होंने पता लगाने हेतु संकल्प लिया। वे छदम ध्यान मुद्रा में बैठ गये और जैसे ही भीलनी ने दबे पाँव आकर कार्य प्रारम्भ किया उन्होंने आँखें खोल दीं, वे भीलनी की सेवा और समर्पण को देख अति प्रसन्न हो उठे एवं गदगद वाणी में बोले हे प्रिये मैं तुम्हारी सेवा से अत्यधिक प्रसन्न हूँ तुम जो चाहे वह वरदान मांग लो। भीलनी बोली हे महर्षि आपने मेरे लिए प्रिये शब्द का सम्बोधन क्यों किया? यह शब्द तो पत्नी के लिए उपयोग किया जाता है अतः प्रथम सम्बोधन अनुसार आप मुझे पत्नी के रूप में स्वीकार कीजिए एवं मुझे पुत्र प्रदान कीजिए।

महर्षि के ऊपर शनि की महादशा प्रारम्भ हो गई थी, वे गलती कर बैठे बोले तुम्हें पुत्र प्राप्त होगा। भीलनी बोली महर्षि यह आपने दूसरी गलती की, प्रथम में मुझे प्रिये कहकर सम्बोधित किया द्वितीय आपने मुझे पुत्र प्राप्ति का वरदान दिया परन्तु आप तो ब्रह्मचारी हैं। महर्षि सोच में पड़ गये बोले नहीं मैं तप के माध्यम से तुम्हें पुत्रोत्पत्ति दूंगा। भीलनी ने कहा यह आपने तीसरी गलती की, आप तो धर्म के मार्ग पर चल दिए हैं परन्तु आपके तप से उत्पन्न मेरा पुत्र तो आखेट भी करेगा, मछली भी पकड़ेगा क्योंकि मेरी जाति में यह सब एक सामान्य कर्म हैं परन्तु होगा तो वह ऋषि पुत्र ही अतः एक ऋषि पुत्र को इस प्रकार के सामान्य कर्म शोभा नहीं देते। महर्षि सोच में पड़ गये यह कैसी प्रभु की लीला ? यह कैसे पूर्व जन्म के सम्बन्ध है ? है तो यह भीलनी परन्तु बातें ऋषि पत्नियों के समान करती है। महर्षि के सामने पूर्व जन्म कौंध उठा क्योंकि उन्होंने शनि देव का आह्वान किया था शनि देव ने न्यायधीश के समान उनके पूर्व जन्म की परतों को एक-एक करके खोल दिया। अपने पूर्ण जन्म की पत्नी को भीलनी के रूप में देख ऋषि व्याकुल हो उठे और बोले अब इस जीवन में जो कह दिया सो कह दिया अब आने वाले जन्मों में बंधन लेकर नहीं जाऊंगा, बंधन मुक्त होना चाहता हूँ। तुझे मेरे तप से पुत्र प्राप्त होगा, हां शनि की महादशा में ऋषि पुत्र प्राप्त होगा और वह ब्राह्मण ही कहलायेगा एवं उससे चलने वाला वंश एक विशेष प्रकार के ब्राह्मणों का वंश होगा जो कि एकमात्र इस धरा पर शनि का दान लेने के लिए उत्तराधिकारी होगें। अन्य ब्राह्मण शनि के निमित्त किया गया दान स्वीकार नहीं करते। केवल डग ऋषि से उत्पन्न डाकौत ब्राह्मणों की श्रृंखला ही शनि के निमित्त किया गया दान स्वीकार करती है।

काले कपड़े हों, काली अक्षत हो, लौह निर्मित वस्तुएं हों, तेल का पात्र हो, काली गाय हो, काला पशु हो, काले चने हो, धन हो इत्यादि यह सब केवल डाकौत ब्राह्मण ही स्वीकार करते हैं, उन्हीं में योग्यता है इस दान को ग्रहण करने की। शनि ही उनके कुल देवता हैं, शनि ही उनके इष्ट हैं, शनि ही उनके गुरु हैं। शरीर में शनि का स्थान नाभि से दो अंगुल नीचे है, नाभि से दो अंगुल नीचे शनि देव विराजमान रहते हैं। योग मार्ग में दो क्रियायें हैं वमन और विरेचन एवं यही शनि के दो प्रमुख लक्षण हैं। शनि अपने पुत्रों का भक्षण कर रहा था परन्तु रिया देवी ने एक पुत्र छिपा लिया जिसने विरेचन औषधि देकर शनि को वमन करने पर मजबूर कर दिया और इस प्रकार शनि द्वारा भक्षित समस्त पुत्र वमन के माध्यम से बाहर निकल आये। जब शरीर रोग ग्रस्त होता है तो योग क्रिया के माध्यम से साधक को वमन एवं विरेचन करने पर मजबूर किया जाता है जिससे कि मल के माध्यम से, उल्टी के माध्यम से विष का निष्कासन हो सके। सड़ान्ध, अनाधिकृत रूप से एकत्रित करके रखी गई ऊर्जा शरीर से मुक्त हो सके और जीव पुनः हल्का एवं स्वस्थ महसूस करे। शनि की मार ऐसी ही है, जब शनि की गदा बरसती है तो बस जातक की कराह ही सुनाई देती है। न गदा दिखाई देती है, न गदा मारने वाला दिखाई देता है। वमन और विरेचन न हो तो वृक्ष फल नहीं देते, समुद्र वर्षा नहीं देगा, भूमि अन्न नहीं देगी, पशु एवं जीव संतान उत्पत्ति नहीं करेगीं इन सबके मूल में वमन और विरेचन छिपा हुआ है।

(क्रमशः)

@Sanatan
369 views𝑺𝒂𝒕𝒚𝒂𝒎 𝒏𝒊𝒌𝒉𝒊𝒍 , 05:55
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2022-05-28 08:54:43
नीलांजनसमाभासं रविपुत्रं यमाग्रजम्‌ ।
छायामार्तण्डसम्भूतं शनिमावाहयाम्यहम्‌ ॥


शनिजयंती 30/5/22

@Sanatan
385 views𝑺𝒂𝒕𝒚𝒂𝒎 𝒏𝒊𝒌𝒉𝒊𝒍 , edited  05:54
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2022-05-27 18:22:37 मानव बुद्धि सदैव अपवित्र होती है। मानव बुद्धि से विवेचन करने की स्थिति में अपवित्रता की पूरी-पूरी सम्भावना होती है। मानवीय तल पर प्रेम एक घटिया प्रकरण बनकर रह गया है। महारास ब्रह्माण्ड नायक प्रभु श्री कृष्ण की लीला है। मनुष्य इसका विवेचन न करे तो अच्छा है। अर्जुन बनना इतना आसान नहीं है। अर्जुन बनने के लिए अनेकों साधनाऐं करनी पड़ेंगी। गोप और गोपियाँ बनने के लिए बस एक ही मूल मंत्र है जो कुछ होगा देखा जायेगा यही भाव जीवन में श्रेष्ठता प्रदान करता है। अच्छे कार्य, धर्म के कार्य एवं आध्यात्मिक उन्नति में बाधाऐं तो आती ही हैं। ईश्वर प्राप्ति गुड्डे-गुड़ियों का खेल नहीं है। व्यक्ति को जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में यही भाव स्थापित करने होंगे कि जो कुछ होगा देखा जायेगा। कुरुक्षेत्र में खड़े होने के लिए पौरुष तो चाहिए ही। भागने वालों के लिए कुरुक्षेत्र नहीं बना है। चाहे रास लीला हो या फिर कुरुक्षेत्र दोनों ही जगह कृष्ण मौजूद हैं, पूर्ण परमेश्वर, पूर्णता प्रदान करने वाले । कृष्ण सिर्फ पूर्णता ही पूर्णता एवं श्रेष्ठता ही श्रेष्ठता का प्रतीक हैं। लिप्त व्यक्ति प्रेम नहीं कर सकता। प्रेम की ताकत ही जो कुछ होगा देखा जायेगा के भाव दे सकती है। इसी भाव को धारण किये हुए व्यक्ति प्रभु का सानिध्य पाते हैं, मीरा के पद को प्राप्त करते हैं, माऊंट एवरेस्ट पर अपने कदम जमाते हैं, ग्रंथों की रचना करते हैं, ईश्वर की प्राप्ति करते हैं और नये-नये अविष्कार करते हैं एवं प्रकृति के द्वारा उत्पन्न किए गये दृश्य में नायक के तौर पर उभरते हैं और इन सबसे भी ऊपर उठकर टपकते हुए रसीले व्यक्तित्व बनते हैं। रस ही सब कुछ है। प्रेम कला तो सीखनी होगी कृष्ण के द्वारा सनातन परम्परा को रस युक्त बनाने वाले परम परमेश्वर योगेश्वर प्रभु श्रीकृष्ण को मेरा शत-शत नमन।

@Sanatan
3.1K views𝑺𝒂𝒕𝒚𝒂𝒎 𝒏𝒊𝒌𝒉𝒊𝒍 , edited  15:22
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2022-05-27 18:22:03
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440 views𝑺𝒂𝒕𝒚𝒂𝒎 𝒏𝒊𝒌𝒉𝒊𝒍 , 15:22
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2022-05-23 03:54:41 @Sanatan
674 views𝑺𝒂𝒕𝒚𝒂𝒎 𝒏𝒊𝒌𝒉𝒊𝒍 , edited  00:54
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2022-05-21 17:21:34 आइये आज कुण्डलिनी से सम्बंधित कुछ बेसिक बातों की चर्चा करते हैं ।

सबसे पहले कुण्डलिनी नाम पड़ा कुंड से कुंड मतलब गड्ढा । गड्ढा किस चीज का, उर्जा से भरा हुआ कुंड या गड्ढा । कुंडलिनी वलयाकार साढ़े तीन फेरे लगाते हुए मूलाधार चक्र में स्थित है । मूलाधार चक्र रीढ़ की अंतिम हड्डी के इर्द गिर्द स्थित है । मूलाधार से उपर स्वाधिष्ठान चक्र स्थित है जो जननेन्द्रिय के इर्द गिर्द स्थित है । ठीक इसके उपर मणिपुर चक्र स्थित है यह नाभि से दो अंगुल नीचे है । इसके ऊपर अनाहत चक्र है जो छाती के दोनों पसलियों के ठीक मध्य में स्थित है । इसके उपर ग्रीवा ( गर्दन ) में कंठ के पास विशुद्ध चक्र स्थित है । और इसके ऊपर दोनों भौंह् के बीच आज्ञा चक्र स्थित है । सहस्त्रार कोई चक्र नही है बल्कि यह कुण्डलिनी की पूर्ण जाग्रत अवस्था है जिस अवस्था में दिमाग का नस नस सक्रीय रहता है । इसलिए इसे हजार कमल वाला बताया जाता है । इसका अर्थ हुआ सहस्त्रार जाग्रति मतलब पूर्ण रूप से जागृत मष्तिष्क ।
कुछ यौगिक क्रियाएं करने पर कुण्डलिनी अपने स्थान मूलाधार से ऊपर उठती है और परस्पर प्रत्येक चक्रो को भेदती हुई सहस्त्रार तक पहुँचती है । यह जीवनी उर्जा है जो मूलाधार में कुंड में स्थित रहती है । यह उर्जा स्वाभाविक रूप में निचे क्षरण होते हुए सृजन का कार्य करती है । ध्यान के द्वारा चक्रो को सक्रीय किया जाता है जबकि चक्रो को पूर्ण जागृत यौगिक क्रियाओं के द्वारा किया जाता है जब कुण्डलिनी ऊपर उठती है ।
प्रत्येक चक्र के बीज मन्त्र नीचे लिखे हुए हैं ।

मूलाधार बीज मन्त्र - लं ( LAM )

स्वाधिष्ठान बीज मन्त्र - वं ( VAM )
मणिपुर चक्र बीज मन्त्र - रं ( RAM )
अनाहत चक्र बीज मन्त्र - यं ( YAM )
विशुद्ध चक्र बीज मन्त्र - हं ( HAM )
आज्ञा चक्र बीज मन्त्र - ॐ ( OM MMMM ....)
सहस्त्रार - यह चक्र नही बल्कि अवस्था है | ईश्वर लीन अवस्था |
मन्त्रों का मानसिक जाप करते हुए चक्र ध्यान कर सकते हैं | ( साधारण गृहस्थ या जिन्हें ज्यादा ध्यान अभ्यास न हो दस मिनट से ज्यादा बीज मन्त्रों का मानसिक जाप न करें ) प्रत्येक चक्र की अपनी खासियत है और यह अपने खासियत के हिसाब से सक्रीय होते हुए अलग अलग सकारात्मक गुण उत्पन्न करने लगते हैं |

अधिक उर्जावान या क्रोधी व्यक्ति मणिपुर चक्र का बीज मन्त्र अधिक न जपे

साभार - मनीष शेखर

@Sanatan
939 views𝑺𝒂𝒕𝒚𝒂𝒎 𝒏𝒊𝒌𝒉𝒊𝒍 , edited  14:21
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2022-05-21 17:20:49
839 views𝑺𝒂𝒕𝒚𝒂𝒎 𝒏𝒊𝒌𝒉𝒊𝒍 , 14:20
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2022-05-20 09:03:21 जिस प्रकार भूमण्डल का आधार मेरु पर्वत वर्णित है उसी प्रकार इस मनुष्य शरीर का आधार मेरुदण्ड अथवा रीढ़ की हड्डी है। मेरुदण्ड तैंतीस अस्थि-खण्डों के जुड़ने से बना हुआ है (सम्भव है, इस तैंतीस की संख्या का सम्बन्ध तैंतीस कोटि देवताओं अथवा प्रजापति, इन्द्र, अष्ट यसु, द्वादश आदित्य और एकादश रुद्र से हो )। भीतर से यह खोखला है। इसका नीचे का भाग नुकीला और छोटा होता है। इस नुकीले स्थान के आसपास का भाग कन्द कहा जाता है और इसी कन्द में जगदाधार महाशक्ति की प्रतिमूर्ति कुण्डलिनी का निवास माना गया है।

इस शरीर में बहत्तर हजार नाड़ियों की स्थिति कही गयी है, इनमें से मुख्य नाड़ियाँ संख्या में चौदह हैं। इनमें से भी प्रधान नाड़ियाँ तीन हैं। इनके नाम इडा पिंगला तथा सुषुम्ना हैं। इडा नाड़ी मेरुदण्ड के बाहर बायीं ओर से और पिंगला दाहिनी ओर से लिपटी हुई हैं। सुषुम्ना नाड़ी मेरुदण्ड के भीतर कन्दभाग से प्रारम्भ होकर कपाल में स्थित सहस्रदलकमल तक जाती हैं जिस प्रकार कदलीस्तम्भ में एक के बाद दूसरी परत होती है उसी प्रकार इस सुषुम्ना नाड़ी के भीतर क्रमशः वज्रा, चित्रिणी तथा ब्रह्मनाड़ी हैं। योगक्रियाओं द्वारा जागृत कुण्डलिनी शक्ति इसी ब्रह्मनाड़ी के द्वारा कपाल में स्थित ब्रह्मरन्ध्र तक (जिस स्थान पर खोपड़ी की विभिन्न हड्डियाँ एक स्थान पर मिलती हैं और जिसके ऊपर शिखा रक्खी जाती है) जाकर पुनः लौट आती है। मेरुदण्ड के भीतर ब्रह्मनाड़ी में पिरोये हुए छः कमलों की कल्पना की जाती है। यही कमल षट्चक्र हैं। प्रत्येक कमल के भिन्न संख्या में दल हैं और प्रत्येक का रंग भी भिन्न है। ये छः चक्र शरीर के जिन अवयवों के सामने मेरुदण्ड के भीतर स्थित हैं उन्हीं अवयवों के नाम से पुकारे जाते हैं।

@Sanatan
674 views𝑺𝒂𝒕𝒚𝒂𝒎 𝒏𝒊𝒌𝒉𝒊𝒍 , edited  06:03
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