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श्रीसेठजी - Shri Sethji - Shri Jaydayal Goyandkaji

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Ram. Teachings and Preachings of Shri Jaydayalji Goyandaka - the Founder of Govind Bhavan Karyalaya, the Mother institution of Gita Press, Gorakhpur.
राम। श्री जयदयाल गोयन्दका (सेठजी) के प्रवचन।

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2021-01-25 05:20:45 *श्रीसेठजी श्रीजयदयालजी गोयन्दकाका संक्षिप्त जीवन–परिचय*

*अन्तरंग मित्र*

जयदयालजीके प्रति हनुमानदासजीकी तो श्रद्धा थी, पर उनके घरवालोंकी नहीं थी। एक बार उन्होंने अपनी स्त्रीसे कहा कि जयदयालजी दूसरेकी मनकी बात बता देता है, पर उनकी स्त्रीको इस बातपर विश्वास नहीं हुआ और उसने कहा कि यदि मेरे मनकी बात बता दे तो मैं सच मानूँ। परीक्षाके लिये उसने मनमें किसी विशेष बातका चिन्तन किया तथा जयदयालजी ने वह बात ज्योंकि त्यों बता दी। तबसे उनकी स्त्रीकी भी श्रद्धा हो गई।

सत्संगके प्रसंगमें एक दिन जयदयालजीने उनकी पत्नीसे कहा कि भगवान् का ध्यान करना चाहिये। वह बोली–– उसका ध्यान करना तो संभव है, जिसे पहले देखा हो। भगवान् को तो मैंने पहले कभी देखा नहीं, तब उनका ध्यान कैसे करुँ ? जयदयालजीने उसे समझानेकी चेष्टा की कि ऐसी धारणा रखनेसे भगवान् के दर्शन होने बड़े कठिन है। पर वह अपने बातका समर्थन करती हुई बोली कि प्रत्यक्ष न सही स्वप्नमें दर्शन हो जायँ तो उसके अनुसार ध्यान किया जा सकता है। जयदयालजीने अन्तमें कहा––अच्छी बात है, यदि स्वप्नमें तुम्हें भगवान् के दर्शन हो जायँ तो फिर ध्यान करोगी ? उसने तुरंत उत्तर दिया है फिर तो अवश्य करुँगी। कहना नहीं होगा कि उसी दिन रात्रिमें उनको स्वप्नमें भगवान् विष्णुके दर्शन हुए।
जयदयालजीकी उम्र बीस–बाईस सालकी थी तब ध्यानमें वृत्ति इतनी तल्लीन रहती कि कई बार रास्तेमें बैठ जाते या किसीका कंधा पकड़कर चलते। एक दिन हनुमानदासजीका कंधा पकड़कर रास्तेमें चल रहे थे और उनसे कह रखा था तुम ध्यान रखना, मेरी वृत्तियाँ ध्यानमें एकाग्र हो रही है। रास्तेमें इसी तरह जाते हुए श्रीलालजी गोयन्दका पिताजी स्नान करके आ रहे थे। उनसे सिरसे सिर भिड़ गया। उन्होंने कहा––देखकर नहीं चलता? उन्होंने कहा––गलती हो गई, क्षमा चाहता हूँ। फिर हनुमानदासजीसे बोले––मैंने तुम्हें पहले ही कह दिया था कि मेरी वृत्तियाँ ध्यानमें एकाग्र हो रही है, तुम ध्यान रखना, परन्तु फिर भी तुमने ध्यान नहीं दिया।


पुस्तक
*श्रीभाईजी–– एक अलौकिक विभूति*
गीता वाटिका प्रकाशन
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2021-01-25 05:20:32 *श्रीसेठजी श्रीजयदयालजी गोयन्दकाका संक्षिप्त जीवन–परिचय*

*अन्तरंग मित्र*

जब इनकी उम्र बारह वर्षकी थी तभी इनकी मित्रता श्रीहनुमानदास गोयन्दकासे हुई, जिनकी उम्र चौदह वर्षकी थी। इनका जन्म चूरूमें चैत्र शुक्ल १ सं. १९४० को हुआ था। बचपनकी मित्रता धीरे-धीरे गाढ मैत्रीमें परिवर्तित हो गई तथा साधनाकी प्रगतिके साथ-साथ अन्तरंग होती गई। दो–चार वर्षों बाद ही आपसमें आध्यात्मिक चर्चा करते थे। चर्चा ही प्रधान हो गयी दूर भी रहते तो बीच-बीचमें परस्पर मिलकर गहरी अध्यात्मिक चर्चा करते थे। सं. १९६३ में हनुमानदासजीकी भी साधनामें तत्परता आ गई एवं उन्हें जगत् स्वप्नवत प्रतीत होने लगा। उन्होंने सारी बातें श्रीजयदयालजीको पत्रमें लिखीं। उत्तरमें जयदयालजीने लिखा कि एक बार तुमसे मिलना है। या तो तुम आ जाओ या मैं आ जाऊँ। इस समय तुमसे जितना प्रेम है, उतना घरमें या बाहर किसीसे भी नहीं है। श्रीहनुमानदासजी उस समय कलकत्तामें थे। वे पत्र मिलते ही बहुत प्रभावित हुए तथा मिलने चुरू आ गये। मिलनेपर उन्होंने पूछा––मुझे क्यों बुलाया है ? उन्होंने कहा––देखो, संसारमें जिस कामके लिये आना हुआ है, वह काम पहले कर लेना चाहिये। वह काम है–– श्रीभगवान् के दर्शन कर लेना। उन दिनों इन दोनों मित्रोंमें भगवान् के प्रेम–प्रभावकी बहुत बातें होती थी। दिन–रात दोनों मित्र अधिक–से–अधिक एकान्तमें रहते। अध्यात्मिक विषयकी परम मार्मिक बातें होती। भगवान् के दर्शनोंके सम्बन्धमें भी बहुत रहस्यमय बातें होती थीं, किन्तु श्रीजयदयालजीने इन्हें वे सभी बातें गुप्त रखनेका कड़ाईसे आदेश दे रखा था। वेदान्तकी चर्चा भी होती। ज्ञानकी प्रथम, दितीय, तृतीय, चतुर्थ भूमिकामें ज्ञानीके क्या लक्षण होते–– ये बातें भी जयदयालजीने इन्हें बताईं। इन बातोंको तथा भगवान् के दर्शनोंकी बातें सुननेसे श्रीहनुमानदासजीके मनमें एकान्तमें रहनेकी प्रबल इच्छा जागृत हुई। वे बार-बार घर छोड़कर सन्यासके लिये इनसे आग्रह करने लगे। इनका प्रबल आग्रह देखकर श्रीजयदयालजीने कहा––कि चार–छ: महीने यहीं रहकर निरन्तर भजन–स्मरण करके अपनी स्थिति दृढ़ कर लेनी चाहिये, इससे सन्यास लेनेमें बड़ी सहायता मिलेगी। चार महीने तीव्र साधनाके साथ भगवच्चर्चा होती रही। चार महीने पूरे होते ही है फिर सन्यासके लिये आग्रह करने लगे।

श्रीजयदयालजी थोड़ी देर सोचते रहे, फिर बोले––तुम्हारे भविष्यकी बातों की स्फूरणा मेरे मनमें हो रही है। तुम्हारे लिये सन्यास लेना ठीक नहीं है। तुम इसे निभा नहीं सकोगे, क्योंकि तुम्हारा वैराग्य स्थायी नहीं है परन्तु उनका आग्रह चालू रहा। आग्रहके उत्तरमें श्रीजयदयालजीने कहा––देखो, मैं तुम्हारे साथ चलनेका वचन दे चुका हूँ और तुम कहोगे तो मैं चलूँगा,पर तुम्हें अभी भोग भोग ना अनिवार्य है। यदि तुम सन्यास लोगे तो फिर तुम्हें अपनी गृहस्थीमें आना पड़ेगा और मैंने यदि सन्यास ग्रहण किया तो मैं वापस लौटूँगा नहीं। मैं तो यदि बना तो कानोंसे बहरा, मुँहसे गूँगा और पैरोंसे पंगु सन्यासी बनूँगा। मेरे मनमें अपने एवं तुम्हारे पूर्वजन्मकी बातें स्फुरित हो आई है। लगभग दो हजार वर्ष पहले तुम राजा थे, मैं तुम्हारा मंत्री था। उस समय भी हम दोनोंने राज्य छोड़कर सन्यास लिया था। संन्यासके बाद हम लोगोंके पास बहुत लोग सत्संग करने आते थे। वृक्षोंके नीचे सत्संग होता का। कुछ समय बाद मेरा शरीर छूट गया। तुम अकेले रह गये। लोग तेरा अत्यधिक सम्मान करते थे। मैं जब जीवित था तो सम्मान मेरा भी बहुत होता था, परन्तु मैं मनसे स्वीकार नहीं करता था। मेरी मृत्युके पश्चात तुमने सम्मान स्वीकार करना आरम्भ कर दिया अर्थात पूर्व प्रकृतिके अनुसार उस त्यागाश्रममें भी गद्दे, तकिये एवं बढ़िया खान-पान आदि भोग तुम भोगने लगे, जिससे तुम्हारी बड़ी हानि हुई। तेरा पतन हो गया। समयपर तुम्हारी मृत्यु हुई। मृत्युके बाद तबसे अबतक तुम्हें मनुष्य–जन्म नहीं मिला। तुम पशु–पक्षी आदि योनियोंमें भ्रमण करते रहे, परन्तु मैं इतने दिनोंतक ऊपरके लोकमें ही रहा। अब इतने दिनों बाद दैवयोगसे तुम्हारे शुभ कर्म प्रकट हुए और तुम्हें मनुष्य–जन्म मिला और मेरा भी आना हुआ। यदि अब तुम हठ करोगे तो वचनबद्ध होनेसे मैं तुम्हारे साथ सन्यास ग्रहण कर लूँगा,पर निश्चय मानो कि तुम्हें लौटना होगा और मैं लौटूँगा नहीं। मेरा–तुम्हारा संग छूट जायगा। इन बातोंको लेकर बहुत देर विचार होता रहा। अन्तमें सन्यासका विचार त्याग दिया गया। यह निश्चय हुआ कि जयदयालजी बाँकुड़ा रहे तथा हनुमानदासजी कलकत्तामें। समय-समयपर दोनों मिलते रहे। यह क्रम कई वर्षोंतक चलता रहा। जब मिलते तो कई बार सारी–सारी रात भगवत्-चर्चा करते बीत जाती, फिर भी बातें समाप्त नहीं होती। चूरु भी प्राय: साथ ही जाया करते थे।


पुस्तक
*श्रीभाईजी–– एक अलौकिक विभूति*
गीता वाटिका प्रकाशन
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2021-01-25 05:20:19 *श्रीसेठजी श्रीजयदयालजी गोयन्दकाका संक्षिप्त जीवन–परिचय*

*साधना और साक्षात्कार*

वैसे तो इनकी आध्यात्मिक साधना बचपनसे ही प्रारम्भ हो गयी थी पर चौदह-पंद्रह वर्षकी उम्रमें पूर्वजन्मके संस्कारोंके फलस्वरुप साधनामें दृढ़ता आने लगी। प्रारम्भमें इन्होंने हनुमानजीकी उपासनाकी थी। एक दिन स्वप्नमें श्रीहनुमानजीके बन्दरके रूपमें दर्शन हुए थे। ये डरने लगे। ये बोले––तुमने प्रसाद बाँटनेका संकल्प किया था, बाँटा क्यों नहीं ? उन्होंने कहा––अब बाँट दूँगा। इतना कहते ही वे अन्तर्ध्यान हो गये।

इसके पश्चात श्रीशिवजीकी उपासना की। फिर इन्होंने महाभारतमें सूर्य–उपासनाकी कथा पढ़ी तो सं. १९५६से सं. १९६६ तक सूर्य भगवान् की उपासना की। दस वर्षतक इनका कड़ा नियम था कि सूर्यके दर्शन करनेके पश्चात ही भोजन करते। इस अवधिमें कई बार इन्हें भूखा रहना पड़ा। ये सूर्यसे प्रार्थना करते हैं कि हे भगवान् ! यदि परस्त्रीसे मेरा किसी प्रकार भी सम्बन्ध हो जाय तो मेरा शरीर भस्म हो जाय। जब ये नेत्र बन्द करके सूर्यकी ओर देखते तो एक प्रकाशमय आनन्दका पुंज दिखाई देता। इससे उन्हें प्रकाशमय निराकार ब्रह्मके ध्यानमें सहायता मिली। महाभारतका स्वाध्याय बहुत श्रद्धा प्रेमसे करते थे। शिवजीके मन्दिर प्रतिदिन जाया करते थे। शिव-विष्णुमें भेद नहीं मानते थे। शिवजीने भी स्वप्नमें दर्शन दिये।
जब रामायण पढ़ने लगे तो उसमें ये बात मिलती कि शिवजी एवं हनुमानजी भगवान् रामके सेवक हैं तो रामजीके प्रति विशेष श्रद्धा होने लगी। रामजी साक्षात् परमेश्वर हैं–– ऐसा मानकर राम-नामका जप एवं उन्हींका ध्यान करने लगे। उनके ध्यानकी स्थिति सत्रह-अठारह वर्षकी आयुमें बहुत अच्छी हो गई थी। उस समय वृत्तीयाँ इतनी एकाग्र हो गयी थीं कि ध्यान तोड़ना चाहते तब भी नहीं टूटता। एक दिन घरमें छतपर बैठे भगवान् रामका ध्यान कर रहे थे। ऐसा दृढ़ विश्वास था कि भगवान् राम सामने खड़े हैं। मनकी आंखोंसे वे स्पष्ट दिखाई दे रहे थे।सायंकालका समय था। माताजीने भोजनके लिये आवाज दी। पहले तो ये बोले नहीं पर माताजीने कई बार आवाज दी तो ये बैठे-बैठे ही नीचे धीरे-धीरे जाने लगे कि ध्यानकी वृत्ति टूट न जाय। फिर जब भोजन करने लगे तो ध्यानकी गाढ़ता कम हो गई। उसके बाद तो रास्ता चलते हुए नामका जप और भगवान् के स्वरूपका ध्यान करने लगे। लोग उन्हें पागल हो जानेका भय दिखाते, पर ये उनकी बातकी ओर ध्यान नहीं देते। रामचन्द्रजीके भी स्वप्नमें दर्शन हुए तथा काफी देर तक बातें हुई।

उसके बाद योगवाशिष्ठका स्वाध्याय करने लगे। उसमें निराकार ब्रह्मकी अधिक महिमा मिलती तो मन निराकारकी उपासनाकी ओर अग्रसर होने लगा। वेदान्तकी पुस्तकका अधिक स्वाध्याय होने लगा। उस समय भी निराकार-साकारमें भेद नहीं मानते थे। फिर किसी कारणविशेषसे भगवान् विष्णुके स्वरूपका ध्यान करने लगे।

अब जीवनमें परिवर्तनका समय आया। नाथ-सम्प्रदायके बड़े ऊँचे सन्त श्रीमंगलनाथजी महाराज उस समय चुरू आये हुए थे। ये त्याग, वैराग्य एवं ज्ञानकी ज्वलन्तमूर्ति ही थे। सच्चे सन्तके एक क्षणका संग भी अमोघ होता है। श्रीजयदयालजीकी इनसे बहुत बातें हुई, सत्संग हुआ। इनके मनपर मंगलनाथजी महाराजके त्याग, वैराग्यकी गहरी छाप पड़ी और उसी समय मनमें निश्चय किया कि मैं भी ऐसा ही बनूँ। यह घटना सं. १९५६ की है। उसके पश्चात् साधनामें तत्परता बढ़ गई। कुछ समय बाद इनकी निराकार साधनाकी स्थिति बहुत अच्छी हो गई। एक बार इन्हें ऐसा भान हुआ कि मुझे ब्रह्मकी प्राप्ति हो गई। यह विचार आते ही मनमें तुरन्त स्फुरर्णा हुई कि जिसे ब्रह्मकी प्राप्ति हुई है उसे तो यह अनुभूति हो ही नहीं सकती कि "मैं ब्रह्म प्राप्त हूँ।" अत: मेरा भ्रम ही है। सं. १९६४ (सन१९०७) में ये चूरूमें अपने घरके चौबारेमें थे, उस समय सर्वथा जागृत अवस्थामें इन्हें प्रथम बार भगवान् विष्णुके साक्षात दर्शनोंका परम सौभाग्य प्राप्त हुआ। उस समय इनका मुँह चद्दरसे ढँका हुआ था। आनन्दातिरेकसे ऐसी मुग्धावस्था हुई जिसका वर्णन करना संभव नहीं है। उनके मनमें आया कि मैंने तो भगवान् को बुलाया नहीं था, कैसे पधारना हुआ। मनमें स्फूरणा हुई निष्काम भक्तिके प्रचारके लिये।

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*श्रीभाईजी–– एक अलौकिक विभूति*
गीता वाटिका प्रकाशन
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