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श्रीसेठजी - Shri Sethji - Shri Jaydayal Goyandkaji

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Ram. Teachings and Preachings of Shri Jaydayalji Goyandaka - the Founder of Govind Bhavan Karyalaya, the Mother institution of Gita Press, Gorakhpur.
राम। श्री जयदयाल गोयन्दका (सेठजी) के प्रवचन।

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2021-02-07 05:04:26
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2021-02-07 05:04:24
259 views02:04
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2021-02-07 04:15:28 *गीताप्रेस संस्थापक श्रीसेठजी श्रीजयदयालजी गोयन्दकाका संक्षिप्त जीवन–परिचय*
*मध्यस्थता*
पढ़े–लिखे न होनेपर भी श्रीसेठजीको समाजका अत्यधिक विश्वास प्राप्त था। पारिवारिक विभिन्न प्रकारके झगड़े सलटवानेके लिये लोग कोर्टमें न जाकर श्रीसेठजीको अपना पंच बना लेते थे। श्रीसेठजीने लाखों–लाखों रुपये कोर्टमें बर्बाद होनेसे बचाये तथा दोनों पक्षवालोंको सन्तुष्ट करके भेजा। उनका पर्याप्त समय इन कामोंमें लगता था। इतना ही नहीं, कई बार तो बड़े-बड़े व्यक्तियोंकी भी मध्यस्थता की। एक बार पं. मदनमोहनजी मालवीय हरिजनोंके लिये मन्त्र दीक्षा देनेका विशेष प्रचार कर रहे थे––सभा, पुस्तकें, व्याख्यान, लेख आदिके द्वारा। श्रीकरपात्रीजी महाराजने शास्त्र विरुद्ध होनेसे इसका विरोध किया। दोनोंमें शास्त्रार्थका दिन निश्चित हुआ। यह शास्त्रार्थ ऋषिकेशमें हुआ। उनमें दो मध्यस्थ चुने गये–– श्रीजयदयालजी गोयनका एवं श्रीगौरीशंकरजी गोयन्दका। यह शास्त्रार्थ कई दिनोंतक चला तथा उनमें दोनों व्यक्ति उपस्थित रहे। दोनों ही महानुभाव उच्च कोटिके विद्वान होनेके कारण प्रबल युक्तियों एवं प्रमाणोंसे अपना पक्ष ठीक सिद्ध कर रहे थे। अन्तमें गौरीशंकरजीने करपात्रीजी महाराजके पक्षमें अपना निर्णय दे दिया। परंतु सेठजीने कुछ इस प्रकारका निर्णय दिया–– 'देश और समाजकी परिस्थितिके अनुसार प्रोढ़ युक्तिओंके द्वारा मालवीयजीने अपना पक्ष सिद्ध कर दिया है। शास्त्रप्रमाणकी दृष्टिसे श्रीकरपात्रीजी महाराजका पक्ष ठीक है।' स्पष्ट निर्णय न देनेसे करपात्रीजी महाराज कुछ रूष्ट हो गये। करपात्रीजीने 'कल्याणमें' में लेख देना बन्द कर दिया। परंतु बादमें श्रीसेठजीने अपनी व्यवहार–कुशलतासे करपात्रीजीको प्रसन्न कर लिया। करपात्रीजीने स्वयं एक बार कहा कि गीताप्रेसवाले श्रीसेठजी और भाईजीने गोरक्षा—आंदोलनमें इतना सहयोग दिया है कि मेरा मन प्रसन्न हो गया और मतभेद रहनेपर भी मैंने विरोध करना छोड़ दिया।
कट्टर सनातन धर्मी होनेपर भी श्रीसेठजी सामाजिक परिस्थिति, राष्ट्रीय हित, मानवोचित सदस्यता एवं राष्ट्रीय नेताओं तथा महात्माओंके आदरभावसे कभी असावधान नहीं हुए।


पुस्तक
*श्रीभाईजी–– एक अलौकिक विभूति*
गीता वाटिका प्रकाशन
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2021-02-04 06:13:51 ।।श्रीहरि:।।

जिस आदमी को *बिल्कुल चेत नहीं* रहे, उसके आगे भी *भगवान के नाम का उच्चारण करने से वह भी उत्तम लोक में चला जाता है।*


अमृत वचन पुस्तक से पृष्ठ 100 गीताप्रेस गोरखपुर
*परम श्रद्धेय श्री जयदयाल गोयन्दका सेठ (श्रेष्ठ)जी*

नारायण! नारायण! नारायण !नारायण!
244 views03:13
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2021-02-03 05:22:33 *गीताप्रेस संस्थापक श्रीसेठजी श्रीजयदयालजी गोयन्दकाका संक्षिप्त जीवन–परिचय*

*गीताकी तत्व–विवेचना टीका*
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराज वैसे तो सर्वप्रथम श्रीसेठजीसे श्रीगम्भीरचन्दजी दुजारीकी प्रेरणासे मार्गशीर्ष कृष्ण २ सं. १९९१ को चुरूमें मिले थे। पर इनका विशेष आकर्षण श्रीसेठजीके प्रति सं. १९९३ के चतुर्माससे हुआ। सन् १९३६ में स्वामीजी श्रीचक्रधरजी महाराज(श्री राधा बाबा), स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजके पास गोविन्द–भवन कलकत्तामें जाया करते थे। गोविन्द–भवन उन दिनों बाँसतत्ला गलीमें था। एक दिन श्रीरामसुखदासजी महाराज श्रीसेठजीके कुछ पत्र एक साधकको सुना रहे थे। श्रीराधा बाबा भी वहीं बैठे सुन रहे थे। एक पत्र सुनकर बाबाके मनमें आया कि बिना स्वरूपानुभूति कि ऐसा पत्र लिखा ही नहीं जा सकता। उन्होंने स्वामीजीसे पूछा––यह पत्र किसका लिखा हुआ है तथा वे कहाँ रहते हैं ? स्वामीजीने बताया यह पत्र श्रीसेठजीका है एवं वे बाँकुडा में रहते हैं। बाबाने कहा––मैं इनसे मिलना चाहता हूँ स्वामीजीको प्रसन्नता हुई कि एक प्रतिभा––सम्पन्न युवक सन्यासीके मनमें श्रीसेठजीके प्रति आदरभाव जाग उठा है। उन्होंने सारी व्यवस्था करवायी तथा बाबा बाँकुड़ा पहुँच गये। बाबाने एकान्तमें श्रीसेठजीसे काफी बातचीतकी तथा उन्हें अपने अनुमानकी पुष्टि मिल गई । उनकी श्रद्धा श्रीसेठजीपर बढ़ गई। कई दिनोंतक बाबा भगवतत्त्वपर श्रीसेठजीके साथ विचार–विनिमय करते रहे। तीन–चार दिनों बाद श्रीसेठजीको सत्संगके लिये राँची जाना था। श्रीसेठजीके अनुरोधपर बाबा भी उनके साथ राँची गये। वहाँ भी परस्पर विचार–विनिमय चलता रहा। बाबा श्रीसेठजीकी स्वरुपानुभूतिपर और उनके चिन्तन–विवेचनपर मुग्ध थे। बाबाको लगा कि गीतापर श्रीसेठजीके जो भाव, विचार और अनुभव है, वे यदि लिपिबद्ध नहीं हुए तो जगत् दिव्यनिधिसे वंचित रह जायगा। उन्होंने श्रीसेठजीसे कहा––आप गीतासम्बन्धी अपने विचारोंको लिपिबद्ध करा दें। श्रीसेठजीने कहा––इसे कौन करें और कैसे होगा ? मैं तो शुद्ध हिन्दी भी ठीक प्रकारसे बोल–लिख नहीं पाता। बाबाने कहा––मेरा लेखन आपको रुचिकर हो तो यह कार्य मैं कर सकता हूँ। श्रीसेठजीके एक गीता–प्रवचनको बाबाने लिपिबद्ध करके दिखाया। बाबाकी अभिव्यक्ति–कुशलता, भाषा–अधिकार और विषय–प्रवेशको देखकर श्रीसेठजी प्रसन्न हो गये। बस, तभी यह तय हो गया कि गीताकी टीका लिखी जानी चाहिये और यह भी तय हुआ कि यह कार्य गोरखपुरमें आरम्भ होगा। श्रीसेठजीको अन्यत्र जाना था। अत: गोरखपुरसे पहुँचनेकी तिथि तय हो गयी। बाबाको गोरखपुरका रेल–टिकट दे दिया गया। श्रीसेठजीने उन्हें वहाँ भाईजीसे मिलनेको भी कहा। बाबा पहले पहुँच गये, अत: वे भाईजीके निवास–स्थान 'गीता-वाटिका' जाकर उनसे मिले तथा वहीं ठहर गये।
श्रीसेठजीके गोरखपुर पहुँचनेपर गीताकी टीका लिखनेका कार्य आरम्भ हो गया। विद्वद–गोष्ठीमें पहले गीताजीके श्लोकके अर्थपर विचार किया जाता। यह विचार–गोष्ठी प्रतिदिन बैठती। इस गोष्ठीमें रहते श्रीसेठजी, स्वामी रामसुखदासजी महाराज, पूज्य बाबा, श्रीसेठजीके छोटे विद्वान भ्राता श्रीहरिकृष्णदासजी आदि। भाईजी भी कभी–कभी सम्मिलित हो जाते थे। कुछ समय तक पं.शान्तनुबिहारीजी द्विवेदी भी सम्मिलित रहे। बाबाका कार्य था, इस गोष्ठीमें गीताजीके श्लोकोंपर भिन्न–भिन्न आचार्योंके मतोंको बतलाना। तदुपरान्त श्लोकोंमें निहित रहस्यपर परस्परमें विचारोंका आदान–प्रदान होता। इस रहस्य–मन्थनमें श्रीसेठजीका मत ही निर्णयके रूपमें मान्य रहता। श्रीसेठजीके इन विचारोंको बाबा लिपिबद्ध करते। लिपिबद्ध सामग्रीमें आवश्यक संशोधन भाईजीके द्वारा होता। सत्संगके लिये श्रीसेठजीको प्राय: यत्र–तत्र जाना ही पड़ता था। अत: इस भ्रमणमें भी विचार–गोष्ठीमें भाग लेनेवाले यथासंभव साथ जाते। इस प्रकार निरन्तर तत्परतापूर्वक संलग्न रहनेके बाद लगभग ढाई वर्षमें यह कार्य सम्पन्न हुआ। लेखन–कार्यकी सम्पन्नता अप्रैल १९३९ में बाँकुड़ामें हुई, उस समय भाईजी भी वहीं थे। श्रीसेठजीके जीवनकी यह तत्त्व–निधि सर्वप्रथम 'कल्याण' के १४ वें वर्षके विशेषांक 'गीता–तत्त्वांक' के नामसे सन् १९४० में प्रकाशित हुई। बादमें श्रीसेठजी द्वारा आवश्यक संशोधनके पश्चात् ग्रन्थरूपसे 'गीता–तत्त्व–विवेचनी' के नामसे गीताप्रेससे प्रकाशित हुई।


पुस्तक
*श्रीभाईजी–– एक अलौकिक विभूति*
गीता वाटिका प्रकाशन
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2021-02-02 04:22:33 *गीताप्रेस संस्थापक श्रीसेठजी श्रीजयदयालजी गोयन्दकाका संक्षिप्त जीवन–परिचय*

*स्वर्गाश्रममें सत्संग–सत्र*
उत्तराखण्ड हमारे देशका शताब्दियोंसे साधना–स्थल रहा है। श्रीसेठजी वैसे तो स्थान–स्थानपर भ्रमण करके सत्संग कराया ही करते थे, पर उत्तराखण्डकी पवित्र भूमि ऋषिकेशमें तो श्रीसेठजीने एक सत्संग सत्र ही खोल दिया था। यह क्रम सं. १९७८-७९ के लगभग प्रारम्भ होकर अभीतक निर्बाध चल रहा था। प्रतिवर्ष श्रीसेठजी चैत्रसे आषाढ़तक प्राय: यहीं रहते एवं सत्संगियोंका एक दल बड़ी ही पवित्र श्रद्धाके साथ एकत्रित होकर सुरसरिकी पावन कलकल धारासे सुसज्जित पुलिनपर भगवद्–रसका आस्वादन करता। कुछ दिन बाद यही आयोजन गंगाके दूसरे तटपर, कुमार जिसे स्वर्गआश्रम कहते हैं, आयोजित होने लगा। उस समय वहाँ सघन जंगल था, रहनेके लिये मात्र कुछ कुटियाएँ थी। गंगातटपर विशाल वटवृक्षकी छायामें भगवद्–रसका प्रवाह बहता रहता। धीरे–धीरे सत्संगमें आनेवालोंकी संख्या बढ़ने लगी। उनकी सुविधाके लिये श्रीसेठजीकी प्रेरणा एवं प्रयत्नसे यहीं गंगातटपर ‘गीता–भवन’ नामक एक विशाल भवनका निर्माण सत्संगमें आने वालोंके प्रवास निवास हेतु हुआ। सत्संगके लिये एक बड़े हॉल का भी निर्माण हुआ एवं स्नानकी सुविधाके लिये विशाल घाट भी बने। सत्संगके समय भोजनालयकी भी व्यवस्थाकी जाती थी।
सत्संग प्रवचन का क्रम प्रातः चार–साढ़े चार बजे प्रारम्भ होकर रात्रिके दस–साढ़े दस बजे तक चलता रहता। बीचमें थोड़ा समय भोजन तथा अपने व्यक्तिगत साधना–भजनके लिये रहता। पाँच–छ: समय तो श्रीसेठजी स्वयं प्रवचन देते तथा उनकी आग्रहसे भाईजी, स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराज, स्वामी श्रीशरणानन्दजी महाराज आदि अन्य संत भी पधारते एवं प्रवचन देते। प्रवचनके अतिरिक्त श्रीसेठजी आए हुए साधक–साधिकाओं की समस्याओंके समाधान भी उन्हें एकान्तमें समय देकर करते थे।

पुस्तक
*श्रीभाईजी–– एक अलौकिक विभूति*
गीता वाटिका प्रकाशन
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2021-01-31 06:07:58 *गीताप्रेस संस्थापक श्रीसेठजी श्रीजयदयालजी गोयन्दकाका संक्षिप्त जीवन–परिचय*

*परिवार*
श्रीसेठजीके तीन भाई और तीन बहने थी श्रीसेठजीसे छोटे भाई श्रीहरिकृष्णदासजी बड़े ही धर्मनिष्ठ एवं विद्वान थे। उन्होंने धर्मग्रन्थोंका अच्छा अध्ययन किया था। संस्कृतका भी अच्छा ज्ञान था। संस्कृतके कई ग्रन्थोंका हिंदीमें अनुवाद किया, जो गीताप्रेससे प्रकाशित हुए। कुछ समय व्यापारके कार्योंमें लगाकर अधिक समय वे स्वाध्यायमें लगाते थे। इनसे छोटे श्रीशिवदयालजी थे। उनका देहावसान सं. २००० में चूरूमें हो गया। सबसे छोटे भाई श्रीमोहनलालजीका जन्म आषाढ़ शुक्ल ७ सं. १९६५ (६ जुलाई सन् १९०८) को चूरूमें हुआ। सभी भाइयोंको सादगी तथा सत्यपरायणताके संस्कार पिताजीसे प्राप्त हुए थे। श्रीसेठजीके कोई संतान न होनेसे तब मोहनलालजी ८ वर्षके थे तभी उन्होंने गोद ले लिया। इनका अध्ययन रतनगढ़के ऋषिकुल ब्रह्मचर्याश्रममें हुआ। सन् १९२६ में स्नातक बनकर चूरु आये। सन् १९२७ में विवाह हुआ। तीन – चार महीने बाद ही पत्नीका देहान्त हो गया। घरवालोंके विशेष दबाव होनेसे और गाँधीजीका संकेत मिलनेसे सन् १९२७के मध्यमें पुन: विवाह हो गया–– श्रीमोहनलालजी झुनझुनवालाकी पुत्री सावित्रीबाईके साथ। पहले ये खादीके व्यवसायमें लगे। गाँधीजीसे प्रभावित होकर ये बिना किसीको बताये घरसे निकल गये। गाँधीजीने घर लौटनेकी राय दी। कई महीने बाद घर आ गये। १९ वर्षकी उम्रमें बाँकुड़ा आकर अपने मामाजीकी अनाजकी दुकानमें व्यापार सँभालना शुरू किया। करीब तीन वर्ष अनाजका व्यापार करनेके बाद सन् १९३२ में भाइयोंको राजी करके 'जयदयाल हरिकृष्ण' के नामसे सूतका व्यापार शुरु किया। इस समय परिवारकी स्थिति साधारण थी। फिर सूत रँगनेका काम प्रारम्भ किया। थोड़े समय बाद एक बनियान बनानेकी फैक्टरी लगाई। सन् १९३७-३८ के करीब श्रीसेठजी व्यवसायसे पूर्ण अवकाश ग्रहण कर चुके थे। १९३८ में श्रीकृष्णदासजीकी लड़की शान्ता, जो केवल २२ वर्षकी थी, विधवा हो गई––परिवारमें शोककी लहर दौड़ गई। उसी वर्ष मोहनलालजीका दूसरा लड़का ईश्वर चला गया। इनका धैर्य देखने योग्य था, सबको धैर्य बँधाते थे। सन् १९४० में 'गोयनका ट्रस्ट' की स्थापनाकी तथा अधिकांश व्यापार ट्रस्टमें ही करने लगे। आयसे जनताकी सेवा करना ही लक्ष्य हो गया। व्यापारमें असत्यका प्रयोग इन्हें भी पसन्द नहीं था। सन् १९४९ के अन्तमें श्रीहरिकृष्णदासजीकी पत्नीका निधन हो गया। परिवारकी भलाई तथा आपसी प्रेम बना रहे, इस बातको ध्यानमें रखकर मोहनलालजीने अपने दोनों बड़े भाइयोंके सामने कुटुम्बके आर्थिक बँटवारेका प्रस्ताव रखा। बँटवारेके समय प्रमुख अर्थोपार्जन करनेवाले होनेपर भी उन्होंने अपने लिये कोई हिस्सा नहीं लिया। सब काम प्रेमपूर्वक इस प्रकार तय किया कि वर्षों बाद भी लोगोंको इसका पूरा पता नहीं लग पाया। लोकोपकारी कार्योंमें भी श्रीमोहनलालजी पूर्ण रुचि रखते थे। बाँकुड़ामें काफी रुपया खर्च करके 'गोयनका विद्यायतन' नामक एक उच्च श्रेणीके विद्यालयका निर्माण किया। बाँकुड़ा जिलेमें अन्य तीन स्थानोंपर भी उच्च श्रेणीके विद्यालय स्थापित किये। बाँकुड़ाके दक्षिणमें द्वारकेश्वर नामकी बड़ी नदी है, उसपर पुल न होनेसे वर्षा ऋतु तथा गर्मीमें जनताको बहुत असुविधाका सामना करना पड़ता था। बहुत ही बड़ी धनराशि व्यय करके इन्होंने कुमारघाट नामक स्थानपर एक उत्कृष्ट पुलका निर्माण करा दिया। चक्षुदानके केंद्रोंका आयोजन एवं दुर्भिक्षके समय प्रचुर सहायता आदि कार्य तो करते ही रहते थे।


पुस्तक
*श्रीभाईजी–– एक अलौकिक विभूति*
गीता वाटिका प्रकाशन
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2021-01-31 06:02:47 *गीताप्रेस संस्थापक श्रीसेठजी श्रीजयदयालजी गोयन्दकाका संक्षिप्त जीवन–परिचय*

*प्रयाग–कुम्भके गीता–ज्ञान–यज्ञ में*

कुम्भके समय तीर्थराज प्रयागमें लाखों लोग दूर–दूरसे एकत्रित होते हैं। भगवान्नाम–प्रचारका सुन्दर अवसर समझकर श्रीसेठजीके परामर्शसे वहाँ गीता–ज्ञान–यज्ञका आयोजन किया गया। माघ सं. १९८६ में वे स्वयं भी पधारे तथा भाईजी श्रीहनुमान प्रसाद पोद्दार भी वहाँ पहुँचे हुए थे। दिनमें श्रीसेठजीका प्रवचन होता। गीता प्रदर्शनीका भी आयोजन किया गया था। पं. जवाहरलाल नेहरुकी माताजी श्रीमती स्वरूपरानी नियमित रूपसे सम्मिलित होती थीं। आयोजन सफल रहा।

भाईजीकी एकान्तमें गंगा–तटपर रहनेकी लालसा प्रबल थी। वे श्रीसेठजीको बराबर पत्र लिखकर अनुमति माँगा करते थे। उत्तरमें श्रीसेठजीने पौष शुक्ल ४, सं. १९८६ को बाँकुड़ासे लिखा–– "तुमने लिखा मेरे द्वारा अधिक दिन काम होना कठिन–सा है। ……तुम्हारे जानेके विषयमें क्या लिखूँ ? मुझे तो 'प्रेस' और 'कल्याण' से संसारमें बहुत लाभ दीख रहा है। मेरी बुद्धिके अनुसार तुम्हें तो ही एकान्तमें रहकर काम देखना चाहिये। …… यदि मेरा और तुम्हारा प्रयाग जाना हो जाय तो वहाँपर एकान्तमें सब बातें की जा सकती है।

प्रयागमें जब दोनों मिले तो सारी व्यवस्था ठीक करके माघ कृष्ण ३०, सं. १९८६ को जब श्रीसेठजी बाँकुड़ा जाने लगे तो भाईजीने एकान्तमें बात करके अपनी हार्दिक लालसा उनके सामने रखी। श्रीसेठजीने बहुत प्रेमसे कहा–– मुझे तो गोरखपुरके महान् कार्यको छोड़कर कहीं जानेकी बिल्कुल नहीं जँचती है। तुम्हारा इतना आग्रह है तो तुम्हारी प्रबल इच्छाको रोकना उचित न समझकर कुछ दिनोंके लिये तुम्हें छुट्टी दी जा सकती है। पर 'रामायणांक' के सम्पादनकी जिम्मेवारी तुम्हारी है, तुम चाहे जहाँ रहकर कर सकते हो। भाईजी उनकी बातका पूरा आदर करते थे और एकान्तकी बात टल गई।

पुस्तक
*श्रीभाईजी–– एक अलौकिक विभूति*
गीता वाटिका प्रकाशन
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2021-01-31 04:58:48 ॥श्रीहरि:॥
संसारमें मूर्खोंको ही सुख प्रतीत होता है, विवेकसम्पन्न पुरुषोंके लिये तो सांसारिक सुख दुःखस्वरूप ही है।
- ‘साधन-नवनीत’ पुस्तकसे
श्रद्धेय जयदयाल गोयन्दका
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2021-01-30 04:23:11 *गीताप्रेस संस्थापक सेठजी श्रीजयदयालजी गोयन्दका*

*हरिजन बस्तीमें आग*

श्रीसेठजी प्राय: प्रतिवर्ष चूरू जाया करते थे। एक बारकी बात है, वे चूरूमें थे, तभी हरिजनोंकी बस्तीमें आग लग गई। हरिजनोंके सारे झोपड़ें जलकर भस्म हो गये। अपने बाल–बच्चोंको आश्रय देना भी हरिजनोंके लिये विकट प्रश्न बन गया। इस विपन्नवस्थाकी जानकारी श्रीसेठजीको मिली। उनका नवनीत–सा हृदय द्रवित हो गया। उन्होंने तुरन्त हरिजनोंके लिये नये झोपड़ें बनवानेकी व्यवस्था कर दी। नवीन झोपड़ियोंके बन जानेपर हरिजन पुन: सुखपूर्वक अपना जीवन व्यतीत करने लगे।

ऐसा कहा जाता है कि जब दु:खके दिन आरम्भ होते हैं तो उनकी श्रृंखला शीघ्र समाप्त नहीं होती। हरिजनोंके दुर्भाग्यकी बात क्या कही जाय ? श्रीसेठजीने जिन नवीन झोपड़ियोंको बनवाया था उनमें फिर आग लग गई। वे हरिजन पुन: आश्रय–विहीन हो गये। ज्योंहि श्रीसेठजीको यह ज्ञात हुआ कि आग लग जानेसे हरिजन पुन: घरबार–रहित हो गये हैं, श्रीसेठजीने असीम उदारतासे पुन: झोपड़ियां बनवा दी। हरिजनोंका हृदय अत्यधिक कृतज्ञतासे भर गया।
पर हाय रे दुर्भाग्यकी श्रृंखला ! झोपड़ियोंमें फिर आग लग गई और हरिजन फिर आश्रय–विहीन हो गये। अब वे किस मुँहसे श्रीसेठजीको अपना दु:ख–दर्द सुनायें ? हरिजन भले ही न कहें,पर श्रीसेठजी तक उनके दु:खकी गाथा पहुँच गयी। श्रीसेठजीने अपनी असीम उदारतावश सहज ही कहा कि उन हरिजनोंके लिये फिरसे नवीन झोपड़ियाँ बनवा देनी चाहिये। ऐसा कहते ही किसी स्वजनने कहा कि भगवान् को यह स्वीकार नहीं है कि हरिजन किसी आवास–आश्रयमें रहे, इसलिये तो उनके लिये बनी झोपड़ियोंमें बार–बार आग लग जाती है। अत: हरिजनोंके लिये नवीन झोपड़ियोंको नहीं बनवाना चाहिये।
इसपर परम भक्त श्रीसेठजीने उत्तर दिया––भगवान् क्या चाहते हैं और क्या करते हैं, इसे देखना हमारा काम नहीं है। हमारा कर्तव्य है कि अपनी दृष्टि ठीक लक्ष्यपर रखें तथा संकटग्रस्त हों उनकी यथाशक्ति उत्साहपूर्वक सहायता करें। यह तो भगवान् हमें सेवाका अवसर प्रदान कर रहे हैं, ऐसा मानना चाहिये।

स्वजन आगे कुछ नहीं बोल सके। अपने निश्चयानुसार श्रीसेठजीने हरिजनोंके लिये पुन: झोपड़ियाँ बनवा दी। इस बार उनके आवासोंमें आग नहीं लगी और वे श्रीसेठजीके उपकारको न भूलकर सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करने लगे।

*अहिंसा प्रचार*

जब श्रीसेठजीको पता लगा कि चमड़ेके जूते बनानेके लिये गाय–बछड़ोंकी हिंसाकी जाती है तो उन्होंने चमड़ेके जूते न पहननेका व्रत ले लिया। पहने हुए जूते भी वहीं छोड़ दिये। उन दिनों बिना चमड़ेके जूते सरलतासे मिलते नहीं थे अतः काफी दिनों तक श्रीसेठजी नंगे पैर ही घूमते रहे। फिर बड़ा प्रयत्न करके ऐसे जूतोंके निर्माणकी व्यवस्थाकी जिनमें चमड़ेका प्रयोग न हो।
इसी प्रकार पहले लाखकी चूड़ियाँ बनती थी, जिनके उत्पादनमें कीड़ोंकी हत्या होती थी। श्रीसेठजीका अहिंसक हृदय इस बातको सहन नहीं कर सका। उन दिनों मारवाड़ी समाजमें लाखकी चूड़ियाँ पहनना सौभाग्य–रक्षाका प्रतीक माना जाता था। श्रीसेठजीने अपने प्रवचनोंसे इस धारणाका उन्मूलन किया उसके स्थानपर जहाँ काँचकी चूड़ियाँ बनती थी, उन स्थानोंसे चूड़ियाँ प्राप्त करनेका प्रयास किया गया। कुछ समय बाद कलकत्तेमें गोविन्द–भवनकी दुकानमें चर्म रहित जूते–चप्पल तथा काँचकी चूड़ियोंके विक्रयकी व्यवस्था हो गई।

पुस्तक
*श्रीभाईजी–– एक अलौकिक विभूति*
गीता वाटिका प्रकाशन
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