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श्रीसेठजी - Shri Sethji - Shri Jaydayal Goyandkaji

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Ram. Teachings and Preachings of Shri Jaydayalji Goyandaka - the Founder of Govind Bhavan Karyalaya, the Mother institution of Gita Press, Gorakhpur.
राम। श्री जयदयाल गोयन्दका (सेठजी) के प्रवचन।

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2021-01-29 18:48:30 *गीताप्रेस संस्थापक श्रीसेठजी श्रीजयदयालजी गोयन्दकाका संक्षिप्त जीवन–परिचय*
*स्वास्थ्यके लिये अनुष्ठान*

'कल्याण'का प्रथम अंक निकलनेके बाद श्रीसेठजीका स्वास्थ्य विशेष खराब हो गया। ओषधोपचार जैसा होना चाहिये, वैसे हो रहा था पर उससे कोई विशेष लाभ प्रतीत नहीं हुआ। परिवारवालोंको चिन्ता थी ही, सत्संगी भाइयोंको भी चिन्ता थी। अन्य स्वजनोंको भी चिन्ता होने लगी। बीकानेरके पण्डित श्रीगणेशदत्तजी व्यास श्रीसेठजीके यज्ञोपवीत गुरु थे तथा उनका श्रीसेठजीपर बड़ा स्नेह था। इन्हें रूग्ण देखकर वे चिन्तित हो गये। व्यासजी स्वयं ज्योतिष एवं तंत्रशास्त्रके ज्ञाता थे। सेठजीकी जन्मपत्री देखकर वे इस निष्कर्षपर पहुँचे कि ग्रह शान्तिके बिना वे स्वस्थ नहीं होंगे। अत: इसके लिये उन्होंने श्रीसेठजीके परिवारवालोंको प्रेरणा दी। यद्यपि परिवारवालोंका श्रीव्यासजीपर बड़ा विश्वास था, पर किसीने भी अनुष्ठानादिके लिये प्रोत्साहन नहीं दिया। अर्थका कोई संकोच नहीं था। रुपये चाहे जितने व्यय किये जा सकते थे, पर बात अड़ रही थी सैद्धान्तिक आदर्शको लेकर। श्रीसेठजीके सिद्धान्तमें निष्कामता कूट-कूटकर भरी थी। वे तो उपासनाके लिये उपासनाका सिद्धान्त मानते थे। नश्वर शरीरके लिये प्रभुकी उपासना वे उचित नहीं मानते थे, न कभी प्रोत्साहन देते थे, फिर ग्रहोंकी उपासनाके पक्षपाती होनेका प्रश्न ही नहीं था। परिवारवालोंमें किसीकी हिम्मत नहीं पड़ी कि प्रत्यक्ष या छिपकर व्यासजीको प्रोत्साहन दें। समर्थन न पाकर व्यासजी कुछ निराश हो गये, क्योंकि अनुष्ठान अर्थसाध्य था। उनके पास उतने रुपए थे नहीं और परिवारमें किसीने स्वीकार नहीं किया। साथ ही वे श्रीसेठजीको स्वस्थ देखना चाहते थे और अपनी समझसे सर्वोत्तम उपाय करना चाहते थे। अचानक उन्हें भाईजीकी याद आई। उन्होंने सारा विवरण लिखकर भाईजीको भेजा कि अनुष्ठान तो मैं स्वयं कर दूँगा, उसका खर्च वहन तुम कर लो। पत्र पाते ही भाईजीने चुपचाप बिना किसीको बताये व्यासजीके बताये अनुसार सारी अर्थ–व्यवस्था कर दी। अनुष्ठान पूर्ण हो गया। सचमुच ही अनुष्ठान पूर्ण होते ही श्रीसेठजी पूर्ण स्वस्थ हो गये।

*अग्रवाल महासभाको परामर्श*

मारवाड़ी अग्रवाल महासभामें दो दल हो गये थे – एक दल विधवा-विवाह आदिका समर्थक था, दूसरा दल इस आर्य–संस्कृतिका घातक मानकर विरोध करता था। वार्षिक अधिवेशन कलकत्तामें चैत्र शुक्ल सं.१९८४ में होनेवाला था। दूसरे दलका श्रीसेठजीके पास तार आया कि आपलोग महासभाको अपना सहयोग न दें तथा अधिवेशनमें उपस्थित तक न हो। श्रीसेठजीने भाईजीको बम्बई तार दिया कि यदि काममें विशेष हर्ज न हो, माँजी स्वस्थ हों तथा वे आज्ञा दें तो महासभाके समय पहुँचना चाहिये। उसी दिन उन्होंने दोपहर बाँकुड़ाके लिये प्रस्थान किया। श्रीसेठजीने भाईजी, अनुज श्रीहरिकृष्णदास एवं हनुमानदासजी गोयन्दका आदिसे परामर्श किया। अन्तमें कलकत्ते जानेका विचार तय हुआ। महासभामें सम्मिलित होनेवालोंके प्रति बहुत विरोध-प्रदर्शन किया जा रहा था। अतः ये सभी लोग शान्ति रक्षाकी दृष्टिसे हावड़ा स्टेशनसे पहले ही राजारामतल्ला स्टेशनपर उतर पड़े। सत्संगी भाइयोंको पहले ही सूचना मिल चुकी थी, अतः दस-पंद्रह व्यक्ति राजारामतल्ला स्टेशनपर आ गये थे। वहाँसे मोटरमें बैठकर गोविन्द-भवन चले गये। दोनों दलोंको समझानेके लिये भाईजीको भेजा गया। भाईजीने शान्ति बनाये रखनेकी पूरी चेष्टाकी तथा अधिवेशन शान्तिसे सम्पन्न हो गया। श्रीसेठजीका अधिवेशनमें सम्मिलित होनेका पूर्ण विचार था, पर सभापतिके भाषणमें विधवा–विवाहका समर्थन देखकर विचार बदल गया।


पुस्तक
*श्रीभाईजी–– एक अलौकिक विभूति*
गीता वाटिका प्रकाशन
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2021-01-28 06:16:37 *ॐ श्री परमात्मने नमः*

*अभिमान छोड़कर भगवान्‌की शरण हो जायें । अपना कुछ अलग न रखें । अन्य किसीका आश्रय न रखें । शरणागति नींद लेनेकी तरह बहुत सुगम है, पर अभिमानीके लिये कठिन है । जीव स्वतः परमात्माका है, अतः आश्रय लेना इसका स्वभाव है ।*

*भक्तोंपर भगवान्‌का विशेष प्रेम है । भक्तको भगवान्‌की सेवामें आनन्द आता है और भगवान्‌को भक्तकी सेवामें आनन्द आता है ।*

*भगवान् हमारेसे दूर नहीं रह सकते । वे सदा हमारे साथ हैं और सदा हमारे साथ रहेंगे‒यह बात आप आज ही स्वीकार कर लें । भगवान् हमारे भीतर हैं‒यह हमारे पास सबसे बड़ा गुप्‍त खजाना है । हमारे कण-कणमें भगवान् विराजमान हैं । यदि इस बातको आप भूल जाते हैं तो इसे भगवान्‌के कोषमें जमा कर दो कि ‘हे नाथ ! मैं इस बातको भूल जाऊँ तो आप याद करा देना ।’*

*कोई काम करना हो तो मनसे भगवान्‌को देखो । भगवान् प्रसन्‍न दीखें तो वह काम करो और प्रसन्‍न न दीखें तो वह काम मत करो । यह एक गुप्‍त साधन है । एक-दो दिन करोगे तो पता चलने लगेगा ।*

*परमात्माकी प्राप्‍तिके बिना मनुष्यशरीर किसी कामका नहीं है ।*

*मनुष्यशरीरकी उम्र श्‍वासोंपर निर्भर है, वर्षोंपर नहीं । जैसे, घड़ी चाबीपर निर्भर होती है । श्‍वासोंकी गिनती पूरी होते ही मरना पड़ेगा । भोग भोगते समय श्‍वास तेजीसे चलते हैं, जिससे आयु जल्दी समाप्‍त हो जाती है । भोग भोगनेसे शरीर जल्दी मरता है । एक दिनमें २१,६०० श्‍वास नष्‍ट हो रहे हैं, रोज कितना घाटा लग रहा है, पर इस घाटेकी पूर्ति नहीं हो सकती । वास्तवमें हम जी नहीं रहे हैं, प्रत्युत मर रहे हैं । जिस मौतसे सभी डरते हैं, वह मौत प्रतिक्षण समीप आ रही है । कहते हैं कि रुपयोंसे सब कुछ मिलता है, पर उम्र भी मिलती है क्या ?*

*कल्याण करनेवाली तात्त्विक बातें मुझे पुस्तकोंसे नहीं मिली हैं, सन्तोंसे मिली हैं । सन्तोंसे मिलनेके बाद फिर पुस्तकोंसे मिली हैं ।*

*इस समय पापोंकी लहर चली है । पतनका मौका आया है, अतः सावधान रहकर इससे बचो ।*

❈❈❈❈

*श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज*
_(‘सागरके मोती’ पुस्तकसे)_

*VISIT WEBSITE*

*www.swamiramsukhdasji.org*

*www.swamiramsukhdasji.net*

*BLOG*

*http://satcharcha.blogspot.com*

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*संतवाणी*
*श्रद्धेय स्वामीजी श्रीशरणानन्दजी महाराज*
_(‘मंगलमय विधान’ पुस्तकसे)_

*जो नहीं करना चाहिए तथा जिसे नहीं कर सकते, इसका ज्ञान मानवको विधानसे प्राप्त है । इस विधानका आदर करनेपर अशुद्ध तथा अनावश्यक कर्म मिट जाते हैं कारण कि जो नहीं करना चाहिए उसके नहीं करनेपर अशुद्ध कर्म नहीं रहते और जो नहीं कर सकते उन संकल्पोंका त्याग करनेपर अनावश्यक कार्य जमा नहीं रहते । उसका परिणाम यह होता है कि जो कर सकते हैं और जो करने योग्य है वह कार्य पूरा हो जाता है । कार्यकी पूर्ति होनेपर यदि कर्तामें कर्मकी फलासक्ति नहीं है तो अपने-आप विश्रामकी अभिव्यक्ति होती है । अनावश्यक कार्यका जमा रखना, न करने योग्य कार्य करना तथा कर्त्तव्य-कर्ममें फलासक्ति रखना विश्राममें बाधक है । विश्राम ही में आवश्यक सामर्थ्यकी अभिव्यक्ति, विचारका उदय एवं प्रीतिकी जागृति स्वतः होती है, जो विकासका मूल है । विश्रामके सम्पादनमें मानव असमर्थ तथा पराधीन नहीं है । विश्रामके सम्पादनकी स्वाधीनता मानवको विधानसे मिली है । पर विधानके अनादरसे ही आज मानव विश्राम-प्राप्तिमें भी अपनेको असमर्थ तथा परतन्त्र मान बैठा है ।*

❈❈❈❈
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2021-01-28 06:16:20 *गीताप्रेस के संस्थापक श्रीसेठजी श्रीजयदयालजी गोयन्दकाका संक्षिप्त जीवन–परिचय*

*ध्यान लगवाना*
एक बार श्रीहनुमानदासजी गोयन्दका श्रीसेठजीसे मिलनेके लिये चक्रधरपुर गये। एक दिन उन्होंने कहा––लोग समाधि लगाते हैं, उसी तरह मेरी भी समाधि लगा दें। श्रीसेठजी बोले–– *समाधि दो प्रकारसे लगाई जाती है। एक तो प्राणायामके द्वारा योग पद्धतिसे, दूसरी भगवान् के सगुण स्वरूपका ध्यान करनेसे आनन्दमें विभोर होकर बाह्य–ज्ञान लुप्त होनेसे लग सकती है।* इस दूसरे प्रकारसे तुम्हारी समाधि लगानेकी चेष्टा करके मैं समाधि तो लगा सकता हूँ, पर समाधिको पुन: उतारनेकी क्रिया मैं नहीं जानता। यदि तुम्हारी समाधि लग गई और फिर नहीं उतरी तो लोग तुम्हें मरा हुआ समझकर शरीरको जला देंगे। अत: समाधिकी बात छोड़ दें। हनुमानदासजीने पूछा–– इस प्रकारकी समाधिमें स्थित मनुष्यको लोग जला दें तो उसकी क्या गति होगी ? श्रीसेठजीने कहा–– वैसे मनुष्यको भगवत्प्राप्ति हो जायगी, क्योंकि उसकी वृत्तियाँ भगवत्स्वरूपमें लीन रहती है। उस मनुष्यका तो लाभ ही है, क्योंकि उसका जीवन सफल हो गया। यह बात सुनकर उनकी उत्कंठा और बढ़ गयी। वे समाधि लगानेका आग्रह करने लगे। अधिक आग्रह देखकर श्रीसेठजीने स्वीकार कर लिया। जिस मकानमें वह रहते थे उसके समीप ही एक दूसरा टूटा हुआ मकान था। लोगोंकी धारणा थी कि उस मकानमें भूत रहता है। श्रीसेठजीने उसी मकानमें चलनेको कहा, क्योंकि उसमें किसीके आनेकी संभावना नहीं थी। दोनों व्यक्ति वहाँ जाकर थोड़ी-सी जगह साफ करके ओढ़नेकी चादर बिछाकर बैठ गये। श्रीसेठजी प्रभावसहित सगुण भगवान् के ध्यानकी बातें करने लगे। कुछ समय बीत गयापर उनका ध्यान नहीं लग रहा था। यह देखकर श्रीसेठजी अपने स्थानसे उठे और जहाँ स्वयं बैठे थे वहाँ उन्हें बिठा दिया और उनके स्थानपर स्वयं बैठ गये। पुन: ध्यानकी बातें आरम्भ करते ही उनको रोमांच होने लगा, नेत्रोंसे प्रेमाश्रु बह निकले तथा ध्यान होने लगा कुछ देर बाद समाधि जैसी स्थिति होनी आरम्भ हो गयी। श्रीसेठजीने कहा–– मेरी रायमें अब समाधिकी चेष्टा यहीं बन्द कर देनी चाहिये, क्योंकि लोग तुम्हें देखकर कदापि नहीं समझेंगे कि समाधि लगी हुई है। वे मरा हुआ मानकर जलानेकी व्यवस्था करेंगे। घरवालोंको बड़ा दु:ख होगा। लोग डरसे मेरे पास आना बन्द कर देंगे तथा उन्हें जो आध्यात्मिक यत्किंचित सहायता मिलती है, वे उस से वंचित रह जायँगे। ऐसे कार्यमें तुम निमित्त बनो, यह मैं नहीं चाहता। तुम्हारे कल्याणमें तो कोई संदेह है ही नहीं। आज हुआ तो क्या ? और कुछ दिन बाद हुआ तो क्या ? अत: मेरी बात मान लो। मैं वचन दे चुका हूँ, अत: तुम्हारी अनुमतिसे ही बन्द करना उचित है। वे उस प्रेममय रायकी अवहेलना नहीं कर सके। श्रीसेठजीने समाधि लगाने की चेष्टा बन्द कर दी। कुछ देर बाद सेठजी बोले–– वास्तवमें इस मकानमें एक मनुष्य मरकर प्रेत हो गया था। वह अबतक यहीं था। अभी हमलोगोंके बीच जो भगवान् की चर्चा हुई, उसे सुनकर उसने प्रेतयोनिसे छूटकर सद्गति प्राप्त कर ली। अतः हम लोगोंका परिश्रम तो सफल हो गया।


पुस्तक
*श्रीभाईजी–– एक अलौकिक विभूति*
गीता वाटिका प्रकाशन
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2021-01-28 06:16:05 *गीताप्रेस के संस्थापक श्रीसेठजी श्रीजयदयालजी गोयन्दकाका संक्षिप्त जीवन–परिचय*

*शारीरिक बल*

युवावस्थामें श्रीसेठजीमें शारीरिक बल भी असाधारण था। चारपाईकी रस्सीको मुँहसे पकड़कर चारपाईको चारों ओर घुमाया करते थे। दोनों हथेलियोंपर दो लड़कोंको खड़ा करके उन्हें उठा लेते थे। आसन , व्यायाम किया करते थे। कभी-कभी ललाट एवं गलेकी नाड़ीको तेज चला कर दिखाते थे। पैरोंमें पसीना लाकर भी दिखाते थे। लोगोंने हाथ लगाकर देखा, कभी शरीरको एकदम गर्म कर लेते, कभी एकदम ठंडा। कभी शरीरके नीचेका आधा भाग ठंडा कर लेते, ऊपरका आधा भाग गरम। कभी नेत्रोंसे आंसुओंकी अजस्त्रधारा बहाकर दिखाते। इन बातोंका रहस्य पूछा गया तो श्रीसेठजीने कहा–– इसमें क्रियाकी प्रधानता नहीं है, केवल संकल्पसे जैसा चाहूँ वैसा कर लेता हूँ।



पुस्तक
*श्रीभाईजी–– एक अलौकिक विभूति*
गीता वाटिका प्रकाशन
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2021-01-27 04:42:03 लगनेसे उसकी पूर्तिके लिये श्रीसेठजीके पश्चात् श्रीभाईजीके परामर्शसे हाथके बुने कपड़ोंका व्यापार खोला गया। इनके विलक्षण व्यक्तित्वसे आकर्षित होकर कई निस्पृह एवं कर्मठ व्यक्ति गीताप्रेसमें सेवा-भावनासे आ गये थे। श्रीघनश्यामदासजी जालान तो आजीवन निष्ठापूर्वक कार्य सँभालते रहे। इनके अतिरिक्त मुख्य थे श्रीसुखदेवजी अग्रवाल, श्रीगंगाप्रसादजी अग्रवाल तथा श्रीशम्भुनाथजी चतुर्वेदी।

पुस्तक
*श्रीभाईजी–– एक अलौकिक विभूति*
गीता वाटिका प्रकाशन
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2021-01-27 04:42:03 * गीताप्रेस के संस्थापक श्रीसेठजी श्रीजयदयालजी गोयन्दकाका संक्षिप्त जीवन–परिचय*

*गीताप्रेसकी स्थापना*

स्वयं भगवान् की वाणी होनेसे पिताजी प्रारम्भसे ही श्रीसेठजीको बहुत प्रिय थी इसका स्वाध्याय वे बहुत मनपूर्वक करते। स्वाध्याय करते समय जब वे अध्याय १८ की श्लोक–संख्या ६८–६९का मनन करते, जिसमें भगवान्ने कहा है––जो पुरुष इस रहस्ययुक्त गीताशास्त्रका मेरे भक्तोंमें प्रचार करेगा उससे बढ़कर मेरा कोई मेरा प्रिय कार्य करनेवाला मनुष्योंमें न कोई है और न उससे बढ़कर कोई होगा–– तब इनके मनमें आता कि मैं भी ऐसा ही बनूँ। इन्होंने निश्चय किया कि स्वयं अपना जीवन गीताके अनुसार बनानेपर ही ऐसा संभव है। उन्होंने स्वयं तत्परतापूर्वक लगकर पहले अपना स्वयंका जीवन वैसा ही बनाया। थोड़े ही समयमें ये गीताजीके सिद्धान्तोंके ज्वलंत उदाहरण बन गये। उसके पश्चात् ये स्थान-स्थान घूमकर गीताके भावोंका प्रचार करने लगे। उसके लिए आवश्यकता थी शुद्ध पाठवाली गीता पुस्तककी, जो उस समय उपलब्ध नहीं थी। श्रीसेठजीने अपने भावानुसार उसकी व्याख्या लिखकर कलकत्ताके वणिक प्रेस से पाँचहजार पुस्तकोंका संस्करण छपवाया। सावधानी रखनेपर भी पुस्तकमें मुद्रणकी भूलोंको देखकर उनका मन खिन्न हो गया। दूसरे संस्करणमें भी चेष्टा करनेपर भी भूलोंका सर्वथा अभाव नहीं हो सका। तब इन्होंने सोचा, जबतक अपना प्रेस न हो तबतक यह काम सम्भव नहीं है। यद्यपि उनका व्यापार बांँकुड़ामें था, पर ये सत्संगके प्रचार हेतु घूमते रहनेके कारण किसी एक स्थानपर अधिक समय नहीं रह पाते थे। अतः समस्या थी कि प्रेसकी स्थापना कहाँकी जाय ? श्रीघनश्यामदासजीने सुझाव दिया कि यदि प्रेसकी स्थापना गोरखपुरमें की जाय तो उसकी व्यवस्थाका कार्य मैं अपनी व्यापारके साथ सँभाल सकता हूँ श्रीसेठजीको सुझाव ठीक लगा और गोरखपुरमें प्रेस खोलनेका निश्चय हो गया।

सन १९२२में श्रीसेठजीने सत्संग प्रचार हेतु गोविंद भवन कार्यालयके नामसे एक ट्रस्ट सोसायटी रजिस्ट्रेशन एक्टके अंतर्गत पंजीकृत कराया। इसी ट्रस्टके अंतर्गत गीताप्रेसकी स्थापना मई सन् १९२३में गोरखपुरमें हुई। प्रारम्भमें उर्दू बाजारमें दस रुपये मासिक किरायेपर मकान लेकर उसमें सर्वप्रथम हैंड प्रेस प्रिंटिंग मशीन खरीदकर सितंबर सन् १९२३ में कार्य आरम्भ हुआ। इससे मुद्रण सुन्दर न होनेपर २२ अक्टूबर सन् १९२३ को सबसे पहले एक ट्रेडिल मशीन दो हजार रुपयेमें खरीदी गई और उसी मकानमें लगायी गयी। इससे भी कार्यमें समुचित प्रगति न होनेपर १० जनवरी १९२४ को सात हजारमें २०-३० इंच साइजकी पैन–फ्लेट–बेड सिलिंडर मशीन खरीदी गयी। इससे गीताके मुद्रणमें सुविधा हो गई और गीताके छोटे-बड़े कई संस्करण प्रकाशित होने लगे। किरायेका स्थान बहुत छोटा होनेसे अपना मकान खरीदनेकी आवश्यकता प्रतीत हुई एवं वर्तमान गीताप्रेसका पूर्वी खण्ड दस हजार रुपयेमें १२ जुलाई १९२६ को खरीदा गया। उस समय तो वह मकान आवश्यकतासे अधिक बड़ा लगता था, पर कार्यका विस्तार होनेसे थोड़े समय बाद वह स्थान भी छोटा लगने लगा। अतः आवश्यकतानुसार उसी मकानके बगलमें क्रमशः और भी जमीन खरीदी गयी और विस्तार होता गया। गीताजीके अतिरिक्त श्रीसेठजी भाईजी द्वारा लिखित पुस्तकें, रामचरितमानसके विभिन्न संस्करण, 'कल्याण' अन्य संतोंकी पुस्तकें भी प्रकाशित होने लगी। श्रीसेठजीके जीवन –कालमें लगभग पाँच सौ विभिन्न आकार–प्रकारकी पुस्तकें प्रकाशित होकर दैवी–सम्पदाका प्रचार–प्रसार करने लगी थी। धीरे-धीरे विस्तार करते हुए विभिन्न आकारोंकी बीस स्वचालित मशीनें लग गई थीं। इसके अतिरिक्त फोल्डिंग मशीनें, सिलाई मशीनें, कटिंग मशीनें अलग थीं। इतने बड़े कार्यके सम्यक संचालनके लिये अर्थकी समुचित व्यवस्था होना परमावश्यक था। इस दृष्टिसे श्रीसेठजीकी सूझ-बूझ तथा दूरदर्शिताकी जितनी प्रशंसाकी जाय वह कम ही होगी। श्रीभाईजी जैसे अभिन्न सहयोगीके मिल जानेसे कार्यकी प्रगतिमें चार चाँद लग गये। श्रीसेठजीने प्रारम्भसे ही अनुभव किया कि चन्दे या दानपर चलने वाली संस्थाओंका जीवन सुदीर्ध नहीं होता। चन्देपर निर्भर रहनेसे न तो आयका स्थायी स्त्रोत रहता है, न उनके सिद्धान्त सदैव स्थिर रहते हैं। दानदाता अर्थके बलपर संस्थाकी नीतिको प्रभावित करते हैं। इसलिये इन विभूतिद्वयने प्रारम्भसे ही ऐसी नीति अपनायीकि अर्थकी दृष्टिसे गीताप्रेसकी आधारशिला दृढ़ रहे। साथ ही पुस्तकोंको लागतसे भी कम मूल्यपर उपलब्ध कराना था, जिससे वे सस्ती रहनेसे प्रचार अधिकाधिक होता रहे। इन सपनोंको साकार करनेके लिये टीटागढ़ पेपर मिलसे कागजकी एजेंसी ली गई। साथ ही अहिंसाके व्यवहारिक प्रचारके लिये चर्मरहित जूतोंकी दुकान, लाखरहित चूड़ियोंकी दुकान तथा आयुर्वेदिक औषधियोंकी दुकान कलकत्तेमें गोविन्द–भवनमें खोली गयी। इस अर्थनीतिका परिणाम था कि गीताप्रेसकी प्रगतिके लिये कभी किसीके सामने हाथ नहीं फैलाया गया। 'न लाभ, न हानि' के सिद्धान्तको स्वीकार करनेपर जब कार्यका विस्तार हुआ तो घाटा
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2021-01-26 05:02:37 * गीताप्रेस संस्थापक श्रीसेठजी श्रीजयदयालजी गोयन्दकाका संक्षिप्त जीवन–परिचय*

*अन्तरंग मित्रको गोपनीय पत्र*
पूज्य श्रीसेठजीने चूरूसे वि. सं. १९७२ के लगभग अपने अन्तरंग मित्र श्रीहनुमानदासजी गोयन्दकाको कलकत्ते एक परम गोपनीय पत्र लिखा। श्रीसेठजीकी लेखनीसे ऐसी स्पष्ट स्वीकारोक्ति मिलनी दुर्लभ है। पत्रका महत्वपूर्ण अंश उद्धरित किया जा रहा है––
"सिद्ध श्रीकलकत्ता बंदर भाई हनुमानसेती लिखी चूरूसे जयदयालका जयगोपाल परम आनन्द बचना। श्रीपरमेश्वरने हरदम याद राखियो।………
और आपको कसूर छे नहीं। अपणे कोई प्रेमकी बात हुई जेंको तुमा कुछ भी विचार करना नहीं। हमारी मरजी माफक सगली बात हुवे छे पीछे तुमारो दोष कुछ भी छे नहीं।
हमां तुमाने रेल मायं कई थी तुमारो भी हमारे मायं पूरो प्रेम नहीं है। जिको भाईजी पूरण प्रेम हुया पछे देरी लागे नहीं। पूरण प्रभाव जान्यो पीछे कुछ बाकी रेवे नहीं। संसारके हिसाबसे तुमारो बहुत प्रेम छे, सगलोंसे ज्यादा प्रेम है।
ईश्वर भावसे पूरण विश्वास हुवतो तो परमेसर तो सगली जगा मौजूद छे। दर्शन हुया पड्या छे फेरूँ चिन्ता रेवती नहीं। हमारे केनेमें पूरण विश्वास तथा हमारेपर पूरण विश्वास तथा प्रेमपूरण हुयाँ पीछे संसार मांय कुछ करतब बाकी रेवे नहीं। इस मांय जान लेना। कुछ पूछना हो तो चिट्ठी मौजूद राखियों। रूपकार पूछ लियो।


पुस्तक
*श्रीभाईजी–– एक अलौकिक विभूति*
गीता वाटिका प्रकाशन
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2021-01-26 04:49:52 * गीताप्रेस के संस्थापक श्रीसेठजी श्रीजयदयालजी गोयन्दका का संक्षिप्त जीवन–परिचय*

*पूज्यजनोंकी श्रद्धा*

श्रीसेठजीके पिताजी पहले आर्यसमाजी थे। 'सत्यार्थप्रकाश पढ़ा करते थे। बादमें जब श्रीसेठजीकी सत्संगकी बातें सुनीं तथा इनका प्रभाव देखा तो उससे बहुत प्रभावित हुए तथा इनमें श्रद्धा हो गई। श्रीसेठजी बताया करते थे कि उनके जैसी श्रद्धा बहुत कम व्यक्तियोंकी थी। अपनी पत्नीसे कहते–– थे कि इसको पुत्र नहीं मानो, यह अपने घरमें अवतार है। सं. १९७१ में श्रीसेठजीसे प्रभावित होकर 'हरे राम' के मन्त्रका जप करने लगे। इनके सत्संग आदिके प्रचारसे इनकी श्रद्धा बहुत बढ़ गयी। एक बार बहुत बीमार हुए तो इनसे पूछा कि मेरा शरीर रहेगा या नहीं ? श्रीसेठजीने कहा––मुझे मालूम नहीं है। वे बोले––हनुमानको तो तुम बता देते हो, वह तुम्हारा मित्र है, मैं भी तो तुम्हारा कुछ लगता हूँ। उसी समय श्रीसेठजीके मनमें आया कि इस बीमारीमें शरीर नहीं जायगा।
मृत्युके एक महीने पूर्व फिर पूछा कि अब मेरा शरीर रहेगा या नहीं ? श्रीसेठजीने कहा––बतानेसे कोई लाभ नहीं है। यदि मैं कहूँगा मर जायेंगे तो हमलोगोंका सेवाभाव कम हो जायगा कि इनका शरीर तो जानेवाला है ही। यदि मैं कह दूँगा कि नहीं मरेंगे तो भी सेवाभाव कम हो जायगा कि शरीर जानेवाला तो है नहीं इसलिये बतानेमें लाभ नहीं है। जब उन्होंने नहीं बताया तो इनकी माँसे उन्होंने कहा कि तुम पूछो, मुझे तो बताता नहीं। इनकी माँने दो तीन बार इनसे अलगसे पूछा कि तुम्हारे पिताजी बार–बार पूछते हैं। फिर पिताजीने पूछा तो इन्होंने कह दिया कि आपका शरीर बचता नहीं लगता। मृत्युके एक दिन पहले रात्रिमें सोये नहीं, बोले कि सोते समय कहीं प्राण निकल न जाय ! इन्होंने कहा––आप सो जाइये। वे बोले––तुम गारण्टी लो तो मैं सो सकता हूँ। इनके कहनेपर सो गये। दूसरे दिन प्रातःकाल उठे तो इन्होंने कहा––आज आपका शरीर जा सकता है, आज नींद मत लीजियेगा, आज मेरी गारण्टी नहीं है। उनको जमीनपर सुला दिया था। उनको इतना आनन्द और मुग्धता थी कि जिसका वर्णन नहीं हो सकता। मृत्युसे पहले श्रीसेठजीकी माँको बोले कि इसे अपना लड़का नहीं मानना, इसे अवतार मानना। उनके मामा श्रीनारमलजी बाजोरियाको बोले––इसे भानजा मत मानिये। इसने अपने घरमें अवतार लिया है। अपने सब लोगोंका उद्धार हो जायगा। पहले दिनसे ही अवर्णनीय प्रसन्नता थी।
श्रीघनश्यामदासजी जालान अपने पिताका कहना न मानते तो श्रीसेठजीके पिताजी उनसे कहते–––– तुम इसका संग करते हो, पर न इसकी बात मानते हो और न इसका अनुकरण करते हो, फिर संग करनेसे क्या लाभ हुआ ?

श्रीहीरालालजी गोयन्दका श्रीसेठजीके सत्संगमें निकटके साथी थे––बहुत श्रद्धा थी। उनसे भी उनके पिताजी, श्रीसूरजमलजीकी अधिक श्रद्धा थी। वे लोगोंको बुला–बुलाकर श्रीसेठजीके प्रभाव, गुणोंकी प्रशंसा करते तथा उन्हें सत्संगमें लगाते। श्रीसेठजी उनसे कहते–– आप मेरी प्रशंसा न किया करें। वे उत्तर देते–– और आपकी सब बात मान लेंगे, केवल यह एक बात नहीं मानेंगे। उनकी मृत्युके चार–पाँच घंटे पूर्व श्रीसेठजी उनके पास बैठे थे। भगवान् की बातें सुना रहे थे। उनको विष्णु भगवान् का चित्र दिखाया और बोले कि भगवान् के दर्शन करिये। वे बोले––यह तो चित्र है तब श्रीसेठजीने अपना चश्मा उतार कर उनको लगा दिया और बोले––अब देखिये। चश्मा लगनेपर बोले––अब दर्शन हो रहे हैं।
सं. १९७३ में श्रीझाबरमलजी सिंघानिया पूरुलियामें थे। उनको प्लेगकी बीमारी हो गई और डॉक्टरोंने जवाब दे दिया। श्रीसेठजी उस समय चूरू में थे, उनके पिताजीका स्वास्थ्य ठीक नहीं था। श्रीझाबरमलजीने श्रीसेठजीको बुलानेका तार भेज दिया कि तुमसे मिलनेकी इच्छा है, स्थिति चिंताजनक है। श्रीसेठजीने तार पिताजीको सुनाया। पिताजी कटाक्षसे बोले––जाना ही चाहिये, तुम्हारा मित्र है। श्रीसेठजीने कहा––मैं जानेकी बात नहीं कहता हूँ। पिताजी बोले––तब मुझे तार सुनानेकी जरूरत क्या थी ? सेठजी तो गये नहीं। बादमें श्रीझाबरमलजीने बताया कि तार देनेके बाद उन्होंने देखा कि यमदूत आये हैं। फिर देखा, श्रीसेठजी आ रहे हैं तथा उनके साथ श्रीभगवानं भी हैं। उनको देखते ही यमके दूत भाग गये। वे ठीक हो गये।
एक बार श्रीबद्रीदासजी गोयन्दकाने, जो श्रीसेठजीमें श्रद्धा रखते थे उनकी खड़ाऊँ धोकर उस जलको पी लिया। यह बात श्रीसेठजीके छोटे भाई श्रीहरि कृष्ण दासजीने देख ली। उन्होंने श्रीसेठजीसे इसकी शिकायत की। श्रीसेठजीने उनको बुलाकर कहा आपको ऐसी बातें नहीं करनी चाहिये। मैं जिस बातको बुरी बताता हूँ वह आप लोगोंको नहीं करनी चाहिये। यदि चोरी करनेसे धन मिलता हो तब भी चोरी नहीं करनी चाहिये। बादमें उनको बात समझमें आ गई।

पुस्तक
*श्रीभाईजी–– एक अलौकिक विभूति*
गीता वाटिका प्रकाशन
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2021-01-26 04:48:24 *गीताप्रेस संस्थापक श्रीसेठजी श्रीजयदयालजी गोयन्दका का संक्षिप्त जीवन–परिचय*

*व्यापार*
सं. १९६०में श्रीजयदयालजी अपने मामाके यहाँ काम करने चुरूसे बाँकुड़ा (बंगाल) आ गये। उनके यहाँ कुछ दिन काम सीखा, फिर अपना अलग व्यापार कर लिया। सं. १९६७ से सं. १९७७ तक, दस वर्ष चक्रधरपुरमें व्यापारकी दृष्टिसे रहना हुआ। सत्यवादिता की दृष्टिसे व्यापारमें इनका और पिताजीका मतभेद रहा। पिताजीका मोल-भाव जब ग्राहकोंको करते देखते तो उन्हें जितनेमें बेचना होता उससे कुछ अधिक दाम बताते और जो ग्राहक एक दाम पूछता उसे एक दाम बताते। एक दाम बतानेके बाद एक पैसा भी कम न लेते। मोल–भाववाला यदि अधिक मुनाफा दे देता तो हँसकर अधिक रकम वापस दे देते। श्रीजयदयालजी ग्राहकोंसे एक ही दाम बताते। उचित मुनाफा रखकर एक दाम बतानेके बाद उसमें जरा भी परिवर्तन न करते। पिता–पुत्र दोनों ही अपने–अपने विचारोंपर दृढ़ रहे। इससे व्यापारमें इनकी साथ बहुत बढ़ गयी। इनके श्रद्धालुजन इन्हें 'सेठजी' के उपनामसे पुकारते थे। इनका व्यापार तो बाँकुड़ामें ही रहा, पर कुछ वर्षों बाद व्यापारका कार्य घरवालोंपर छोड़कर ये अपना अधिकांश समय भगवद्भावोंके प्रचारमें ही लगाते थे।

*सत्संग–प्रवचन*
जब श्रीसेठजीकी उम्र बाईस वर्षकी थी तभीसे सत्संग–व्याख्यान देने लगे। धीरे-धीरे जैसे लोगोंकी सुननेमें रुचि बढ़ी ये अपना अधिक समय प्रवचनमें लगाने लगे। जहाँ भी रहते वहीं सत्संगका आयोजन होने लगा और उपस्थिति भी बढ़ने लगी। सं. १९६७ से जब ये चक्रधरपुर रहने लगे तो वहाँसे ये शामको खड़गपुर आ जाते तथा सत्संग सुननेवाले कलकत्तासे खड़गपुर पहुँच जाते। फिर वहाँ सत्संगकी चर्चा होती। फिर सब अपने-अपने स्थानोंको चले जाते। कलकत्तामें प्रारम्भमें इनका प्रवचन १७४, हरिसन रोडमें होता। श्रीआत्मारामजी खेमकाकी गद्दीमें श्रीसेठजी सोया करते, वही सत्संग कराते। श्रीहीरालालजी गोयन्दकाके पिताजी श्रीसूरजमलकी दुकान मनोहरदास कटरामें थी, वहाँ भी सत्संग होता था। प्रारम्भमें बीस-तीस व्यक्तियोंकी उपस्थिति रहती। रातमें आत्मारामजीकी गद्दीमें चार-पाँच प्रेमीजन सोते थे, ये रात्रिमें जगकर सबसे दो-दो घंटे अकेलेमें बात करते थे। इस तरह उस समय कलकत्ता जाते तो कई यात्रियोंमें रातभर जागकर सत्संगकी बातें करते थे। दिनमें लोगोंके घरोंमें जाकर सत्संगकी बातें सुनाते। धीरे-धीरे सत्संगियोंकी संख्या बढ़ने लगी और इसके लिये अन्य व्यवस्थाकी आवश्यकता हुई, तब बाँसतल्ला गलीमें 'गोविन्द-भवन' के नामसे एक स्थान किराये पर लिया गया। कलकत्तामें यह स्थान श्रीसेठजीके सत्संगका प्रधान केंद्र हो गया। उस समय हनुमानदासजी गोयन्दका श्रीआत्मारामजीके यहाँ नौकरी करते थे। जब श्रीसेठजी कलकत्ता जाते तो वे प्राय: दिन भर साथ रहते। उन्होंने आत्मारामजीको कह रखा था कि श्रीसेठजी जब कलकत्ता रहेंगे तो मैं काम नहीं करुँगा, उनके साथ ही रहूँगा।

उस समय ये साधकोंके पत्रोंका उत्तर अपने हाथसे लिखकर दिया करते थे। कई साधक इकट्ठे होकर उन पत्रोंके भावोंपर विचार–विमर्श करते। जैसे गीताजीके श्लोकोंके अर्थ निकाले जाते हैं, वैसे ही इनके लिखे शब्दोंके अर्थ निकालते। अधिक पत्र–व्यवहार श्रीहनुमानदासजी गोयन्दका, श्रीबद्रीदासजी गोयन्दकाका श्रीआत्मारामजी खेमका तथा श्रीज्वालाप्रसादजी कनोडिया आदिसे होता था। इनके पत्र लोग एक–दूसरेको रजिस्ट्रीसे पढ़नेके लिये भेजते तथा फिर वापस मँगा लेते। उस समय लोगोंकी श्रद्धा बहुत थी।



पुस्तक
*श्रीभाईजी–– एक अलौकिक विभूति*
गीता वाटिका प्रकाशन
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2021-01-25 05:25:12 *श्रीसेठजी श्रीजयदयालजी गोयन्दकाका संक्षिप्त जीवन–परिचय*

*व्यापार*
सं. १९६०में श्रीजयदयालजी अपने मामाके यहाँ काम करने चुरूसे बाँकुड़ा (बंगाल) आ गये। उनके यहाँ कुछ दिन काम सीखा, फिर अपना अलग व्यापार कर लिया। सं. १९६७ से सं. १९७७ तक, दस वर्ष चक्रधरपुरमें व्यापारकी दृष्टिसे रहना हुआ। सत्यवादिता की दृष्टिसे व्यापारमें इनका और पिताजीका मतभेद रहा। पिताजीका मोल-भाव जब ग्राहकोंको करते देखते तो उन्हें जितनेमें बेचना होता उससे कुछ अधिक दाम बताते और जो ग्राहक एक दाम पूछता उसे एक दाम बताते। एक दाम बतानेके बाद एक पैसा भी कम न लेते। मोल–भाववाला यदि अधिक मुनाफा दे देता तो हँसकर अधिक रकम वापस दे देते। श्रीजयदयालजी ग्राहकोंसे एक ही दाम बताते। उचित मुनाफा रखकर एक दाम बतानेके बाद उसमें जरा भी परिवर्तन न करते। पिता–पुत्र दोनों ही अपने–अपने विचारोंपर दृढ़ रहे। इससे व्यापारमें इनकी साथ बहुत बढ़ गयी। इनके श्रद्धालुजन इन्हें 'सेठजी' के उपनामसे पुकारते थे। इनका व्यापार तो बाँकुड़ामें ही रहा, पर कुछ वर्षों बाद व्यापारका कार्य घरवालोंपर छोड़कर ये अपना अधिकांश समय भगवद्भावोंके प्रचारमें ही लगाते थे।

*सत्संग–प्रवचन*
जब श्रीसेठजीकी उम्र बाईस वर्षकी थी तभीसे सत्संग–व्याख्यान देने लगे। धीरे-धीरे जैसे लोगोंकी सुननेमें रुचि बढ़ी ये अपना अधिक समय प्रवचनमें लगाने लगे। जहाँ भी रहते वहीं सत्संगका आयोजन होने लगा और उपस्थिति भी बढ़ने लगी। सं. १९६७ से जब ये चक्रधरपुर रहने लगे तो वहाँसे ये शामको खड़गपुर आ जाते तथा सत्संग सुननेवाले कलकत्तासे खड़गपुर पहुँच जाते। फिर वहाँ सत्संगकी चर्चा होती। फिर सब अपने-अपने स्थानोंको चले जाते। कलकत्तामें प्रारम्भमें इनका प्रवचन १७४, हरिसन रोडमें होता। श्रीआत्मारामजी खेमकाकी गद्दीमें श्रीसेठजी सोया करते, वही सत्संग कराते। श्रीहीरालालजी गोयन्दकाके पिताजी श्रीसूरजमलकी दुकान मनोहरदास कटरामें थी, वहाँ भी सत्संग होता था। प्रारम्भमें बीस-तीस व्यक्तियोंकी उपस्थिति रहती। रातमें आत्मारामजीकी गद्दीमें चार-पाँच प्रेमीजन सोते थे, ये रात्रिमें जगकर सबसे दो-दो घंटे अकेलेमें बात करते थे। इस तरह उस समय कलकत्ता जाते तो कई यात्रियोंमें रातभर जागकर सत्संगकी बातें करते थे। दिनमें लोगोंके घरोंमें जाकर सत्संगकी बातें सुनाते। धीरे-धीरे सत्संगियोंकी संख्या बढ़ने लगी और इसके लिये अन्य व्यवस्थाकी आवश्यकता हुई, तब बाँसतल्ला गलीमें 'गोविन्द-भवन' के नामसे एक स्थान किराये पर लिया गया। कलकत्तामें यह स्थान श्रीसेठजीके सत्संगका प्रधान केंद्र हो गया। उस समय हनुमानदासजी गोयन्दका श्रीआत्मारामजीके यहाँ नौकरी करते थे। जब श्रीसेठजी कलकत्ता जाते तो वे प्राय: दिन भर साथ रहते। उन्होंने आत्मारामजीको कह रखा था कि श्रीसेठजी जब कलकत्ता रहेंगे तो मैं काम नहीं करुँगा, उनके साथ ही रहूँगा।

उस समय ये साधकोंके पत्रोंका उत्तर अपने हाथसे लिखकर दिया करते थे। कई साधक इकट्ठे होकर उन पत्रोंके भावोंपर विचार–विमर्श करते। जैसे गीताजीके श्लोकोंके अर्थ निकाले जाते हैं, वैसे ही इनके लिखे शब्दोंके अर्थ निकालते। अधिक पत्र–व्यवहार श्रीहनुमानदासजी गोयन्दका, श्रीबद्रीदासजी गोयन्दकाका श्रीआत्मारामजी खेमका तथा श्रीज्वालाप्रसादजी कनोडिया आदिसे होता था। इनके पत्र लोग एक–दूसरेको रजिस्ट्रीसे पढ़नेके लिये भेजते तथा फिर वापस मँगा लेते। उस समय लोगोंकी श्रद्धा बहुत थी।



पुस्तक
*श्रीभाईजी–– एक अलौकिक विभूति*
गीता वाटिका प्रकाशन
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