Get Mystery Box with random crypto!

श्रीसेठजी - Shri Sethji - Shri Jaydayal Goyandkaji

Logo of telegram channel sethji — श्रीसेठजी - Shri Sethji - Shri Jaydayal Goyandkaji
Logo of telegram channel sethji — श्रीसेठजी - Shri Sethji - Shri Jaydayal Goyandkaji
Channel address: @sethji
Categories: Uncategorized
Language: English
Subscribers: 204
Description from channel

Ram. Teachings and Preachings of Shri Jaydayalji Goyandaka - the Founder of Govind Bhavan Karyalaya, the Mother institution of Gita Press, Gorakhpur.
राम। श्री जयदयाल गोयन्दका (सेठजी) के प्रवचन।

Ratings & Reviews

2.33

3 reviews

Reviews can be left only by registered users. All reviews are moderated by admins.

5 stars

0

4 stars

0

3 stars

1

2 stars

2

1 stars

0


The latest Messages

2021-02-14 08:07:52
970 views05:07
Open / Comment
2021-02-14 07:51:00 *।।श्रीहरि:।।*

जिसका भगवान में प्रेम, श्रद्धा और विश्वास होगा वह भगवान पर निर्भर होगा । भगवान के नाम-रूप, गुण-प्रभाव, तत्त्व, रहस्य, महिमा तथा श्रद्धा की बातों का श्रवण, पुस्तकों में पढ़ना, मन से मनन करना आदि अभ्यास है । यह रमण है, इससे हृदय का अंधकार दूर होता है और भगवान के तत्त्व-रहस्य का विशेष ज्ञान होता है । श्रद्धा-प्रेम होता है । फिर मिलने की इच्छा होती है । फिर विशेष प्रभाव जाना जाता है और असली भजन-ध्यान होता है, जिससे भगवान प्रकट होकर दर्शन देते हैं ।

*― परम श्रद्धेय श्रीजयदयालजी गोयन्दका सेठजी*

('मेरा अनुभव' पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर)

*नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!!!*
754 views04:51
Open / Comment
2021-02-13 05:52:51 एक बार हरिद्वारमें कुम्भका मेला था। उसमें गीताप्रेसने भी पुस्तकोंकी दुकान लगाई थी। मेलेमें आग लग जानेसे गीताप्रेसकी दुकान भी जलकर भस्म हो गई। दुकानका बीमा कराया हुआ था, अत: पूरे रुपये मिल गये। श्रीसेठजीके सामने बात आई तो उन्होंने पूरा हिसाब देखा और आज्ञा दी कि जो पुस्तकें बिक गई थी उनका रूपया बीमा कम्पनीको वापस कर दिया जाय। वैसा ही किया गया। वे तो कहा करते थे कि ईमानदारी और भगवान् की सेवाकी भावनासे व्यापार किया जाय तो उससे भी मुक्ति हो जाती है।

एक दिन मस्तीमें आकर बोले––स्वामीजी ! कई लोगोंको कोई न कोई शौक होता है। मेरी रुचिका विषय है––सत्संग, अन्यथा मैं इन सब कामोंमें क्यों पड़ता ? इसमें कुछ–न–कुछ खर्च भी करता रहता हूँ और समय भी लगाता हूँ।


पुस्तक
*श्रीभाईजी–– एक अलौकिक विभूति*
गीता वाटिका प्रकाशन
981 views02:52
Open / Comment
2021-02-13 05:52:51 *गीताप्रेस संस्थापक श्रीसेठजी श्रीजयदयालजी गोयन्दकाका संक्षिप्त जीवन–परिचय*

*श्रीशान्तनुबिहारीजी द्विवेदी (स्वामी अखण्डानन्दजी)से वार्तालाप*

श्रीशान्तनुबिहारीजी द्विवेदी जो सन्यासके पश्चात् स्वामी अखण्डानन्दजीके नामसे विख्यात हुए––'कल्याण'में प्रकाशित लेखोंसे प्रभावित होकर सम्वत १९९३ में भाईजीके पास रहनेके लिये गोरखपुर आ गये। 'कल्याण' के सम्पादकीय विभागमें काम करने लगे, साथ ही साधन–भजनमें विशेष रूचि लेने लगे। भाईजीमें तो विशेष श्रद्धा थी ही, श्रीसेठजीमें भी अच्छी श्रद्धा थी। सेठजीसे कई बार एकान्तमें समय माँगकर बातें किया करते थे।
एक दिन उन्होंने श्रीसेठजीसे पूछा–– आपके गुरु कौन है ? श्रीसेठजीने कहा––मैं स्वामी मंगलनाथजीको गुरुतुल्य मानता हूँ। पहले तो उनपर सोलह आना श्रद्धा थी, बादमें जब वे गोशालाके मुकदमेमें पड़ गये तो श्रद्धा दो पैसे कम हो गई। निर्गुणविषयक उनका और हमारा सिद्धान्त एक ही है। ब्रह्म–साक्षात्कारके लिये अद्वैत वेदान्त सर्वथा आवश्यक है। श्रीशंकराचार्यजीपर भी साढ़े पन्द्रह आने श्रद्धा बताई। कारण पूछा तो कहा श्रीशंकराचार्यजीने तत्त्वज्ञानके लिये कर्मत्याग करके संन्यास–ग्रहणकी जो अनिवार्य आवश्यकता बतलायी है, वह मुझे मान्य नहीं है, और बातें मैं मानता हूँ। श्रीसेठजीका स्वाभाव ऐसा था कि वे वेदशास्त्र, पुराणकी किसी बातको न अनुचित बताते थे और न ही खण्डन करते थे। उनकी बोलनेकी शैली थी––यह बात हमारे समझमें नहीं आयी, इस बातमें मेरी रुचि नहीं है। किसी भी विवादसे अपनेको अलग कर लेनेका उनमें अद्भुत कौशल था।

श्रीसेठजी कहीं भी सत्संग–प्रवचन करते तो अपनी संध्योपासनाका समय अवश्य बचा लेते थे। एक दिन उन्होंने बताया––जबसे मैंने यज्ञोपवीत ग्रहण किया है तबसे अबतक (लगभग पचास वर्षोंमें) कभी संध्योपासनामें अन्तर नहीं पड़ा। यथाशक्ति कालातिक्रमण भी नहीं किया, कर्मातिक्रमण की तो बात ही क्या है ? ट्रेनमें होनेपर समयपर मानसिक सन्ध्या करके बादमें क्रियारूपमें भी कर लिया करते थे। जल न मिलनेपर बालूसे भी अर्ध्य देनेका काम करना पड़ा। अपने धर्मका यह अपूर्व निर्वाह उनकी दृढ़निष्ठाका ही सूचक है।
श्रीसेठजी जब गीताजीकी टीका लिखा रहे थे तो श्रीद्विवेदीजी भी कुछ महीनोंके लिये उनके निवास–स्थान बाँकुड़ामें रहे थे। वहाँसे आनेके समय श्रीसेठजी और उनके विद्वान भ्राता श्रीहरिकृष्णदासजी उनसे बोले––पण्डितजी ! आपके घरमें लड़कीका विवाह होने वाला है। आप हमारी इस बर्तनकी दुकानके अन्दर चले जाइये और आपको जितना चाहिये उतना बर्तन छाँटकर अलग कर दीजिये। हम आपके साथ भेज देंगे। उनकी उदारता देखकर द्विवेदीजीका हृदय भर गया। बर्तन तो उन्होंने अधिक नहीं लिये, पर उनके उन्मुक्त हृदय–उदारतासे आप्यायित हो गये।
श्रीद्विवेदीजीने श्रीसेठजीके पूर्व जन्मकी कुछ बातें सुनीं तो उनको पूरा विश्वास नहीं हुआ। एक दिन उन्होंने श्रीसेठजीसे एकान्तमें पूछा––आपके पूर्वजन्मके सम्बन्धमें आपके नामसे कई बातें कही जाती है। क्या आपने कभी पूर्वजन्मकी बातें किसीको कहीं है ? श्रीसेठजीने कहा–– मैंने अबसे बीस-तीस वर्ष पूर्व कुछ ऐसी बातें कही थी। उन्होंने पूछा––आपको पूर्वजन्मका स्मरण है ? श्रीसेठजीने 'हाँ' में उत्तर दिया। बोले––चाहें तो आप भी अपने पूर्वजन्मकी बातें जान सकते हैं। उन्होंने पूछा–– सो कैसे ? श्रीसेठजी बोले––अपरिगृहस्थैर्ये जन्म–कथान्ता सम्बोध:' इस योगसूत्रके अनुसार संयम कीजिये। वासनारहित प्रज्ञामें सत्यका आविर्भाव होता है। मैंने कभी ऐसी धारणा की थी तब मुझे पूर्व जन्मकी स्फूरणा हुई थी। पर श्रीसेठजी जन्म–जन्मान्तरकी चर्चापर बल नहीं देते थे। सगुण–निर्गुण परमात्माकी उपासनापर ही पल देते थे। श्रीसेठजी व्यक्ति पूजाके विरोधी थे। उनका कहना था किसी साधु–महात्माको अपनी पूजा नहीं करनी चाहिये। फोटो खिंचवाना, उच्छिष्ट प्रसाद देना, स्त्रियोंसे एकान्तमें मिलना, अपनी प्रशंसा करवाना––वे किसी महात्माके लिये उचित नहीं समझते थे। न वे स्वयं कभी ऐसा करते थे। इस सम्बन्धमें इतने दृढ़ थे कि बड़े–बड़े प्रसिद्ध महात्माओंसे मिल–जुलकर एकान्तमें तथा जनसमूहमें उन्होंने नि:संकोच ऐसा कह दिया कि आपको ऐसा नहीं करना चाहिये। इस चर्चाको लेकर कभी–कभी विवादके प्रसंग भी उपस्थित हो गये, पर वे अपने सिद्धान्तपर अडिग रहे। एक बार श्रीकरपात्रीजी महाराजका वेदान्त चर्चामें श्रीसेठजीसे मतभेद हो गया। वह मतभेद था–– तत्त्वज्ञके आचरणके सम्बन्धमें। श्रीसेठजीका कहना था–– तत्त्वज्ञ महात्मा उसको मानना चाहिये जिसका आचरण लोगोंके लिये आदर्श एवं अनुकरणीय हो। उनकी दृढ़ निष्ठा थी कि जो सच्चा ज्ञानी है, उससे शास्त्र–विरुद्ध आचरण हो ही नहीं सकता।
916 views02:52
Open / Comment
2021-02-11 07:07:46 *गीताप्रेस संस्थापक श्रीसेठजी श्रीजयदयालजी गोयन्दकाका संक्षिप्त जीवन–परिचय*
*तीर्थ यात्रा*
सन १९३८ के लगभग गीताप्रेसकी ओरसे एक तीर्थयात्रा ट्रेन निकली थी। लगभग तीन महीनेतक सब तीर्थोंकी यात्रा हुई। श्रीसेठजी भी साथमें थे। उनकी खान-पानकी पवित्रता एवं निष्ठा सिद्ध थी। वे खान-पानकी वस्तुमें पवित्रता एवं व्यक्तियों तथा पात्रोंकी शुद्धिपर बड़ा ध्यान रखते थे। आपने इस निष्ठाके कारण वे चाहे जहाँका भोजन एवं जल स्वीकार नहीं करते थे, चाहे वह भगवत्प्रसाद ही क्यों न हो। कई बार ऐसे प्रसंग उपस्थित हो जाते थे, जहाँ प्रसादकी मर्यादा तथा आपसी व्यवहारका निर्वाह करना पड़ता था, वहाँ वे, अपनी व्यवहार–कुशलतासे प्रसादकी मर्यादाका निर्वाह करते हुए––बिना किसीका चित्त दुखाये अपनी आचार–निष्ठाको अक्षुण्ण रखते थे। एक बार एक मन्दिरमें दर्शन करने गये। दर्शन करके बाहर निकल रहे थे तो पुजारी भगवान् का चरणामृत देनेके लिये दौड़कर उपस्थित हुए। चरणामृत होनेसे श्रीसेठजीने हाथमें ले लिया तथा मुँहमें न लेकर सिरपर डाल लिया। साथवाले लोग इनकी निष्ठा देखकर मुग्ध हो गये। साथ रहनेवालोंको इस प्रकारके निष्ठा निर्वाहको देखनेके कई उदाहरण मिलते थे।

तीर्थयात्रा करते समय साथवालोंके आग्रहके कारण श्रीसेठजी भावनगरका राजमहल देखने गये। वहाँ उस समय राजा तो थे नहीं, परन्तु स्वागत–सत्कारका पूरा प्रबन्ध था। कार्यकर्ताओंने श्रीसेठजी से खाने–पीनेके लिये बहुत आग्रह किया। श्रीसेठजी उत्तर देते रहे––मैं अभी भोजन करके आया हूँ, भूख नहीं है। अन्ततः वे लोग जल पीनेके अनुरोधपर अड़ गये। श्रीसेठजी बार–बार एक ही उत्तर देते––भूख नहीं है। वहाँसे लौटनेपर एक महानुभावने सेठजीसे पूछा––वे लोग आग्रह कर रहे थे जल पीने को और आप उत्तर देते रहे 'भूख नहीं है'। इसका क्या रहस्य है ? श्रीसेठजीने बताया––उस समय मुझे प्यास लगी हुई थी और वहाँका जल पीना नहीं था, क्योंकि शुद्धताका पता नहीं, तब मैं यह कैसे कह देता कि प्यास नहीं है। वे अपने वाक्–कौशलसे बिना वहाँके लोगोंका चित्त दुखाये बच आये।

तोताद्रिमें यात्रियोंने वहाँकी अभिषेक–तेलकी महिमा सुनकर टीन भरकर ट्रेनमें रख लिये। वहाँ तेलकी कोई कीमत नहीं ली जाती। श्रीसेठजीको यह बात ज्ञात होनेपर सबको डाँटा और कहा यह प्रसादकी मर्यादाके विपरीत है, अन्याय है, बेईमानी है। सबसे कीमत वसूल ली गई और सैकड़ों रुपये मंदिरमें जमा कराये गये। उनकी न्यायनिष्ठा आदर्श थी। मार्गमें रेलवे–कर्मचारियोंको पुरस्कार तो दिलवा देते थे, परन्तु घूस देनेको मना करते थे। तीर्थोंके प्रति श्रीसेठजीकी विशेष रूचि नहीं थी। उनका मुख्य उद्देश्य सत्संग–प्रचारका था। प्रत्येक स्टेशन एवं शहरमें श्रीसेठजीका प्रवचन होता। उसकी व्यवस्था करनेके लिये कुछ लोग अग्रिम पहुँच जाते थे। श्रीरमण महर्षिका दर्शन करने श्रीसेठजी गये तथा ध्यानके विषयमें उनसे बात की। यात्रामें श्रीसेठजी कई स्थानोंपर वहाँके विद्वानोंको बुलाते, उनका बड़ा आदर–सत्कार करते और दक्षिणा देते।


पुस्तक
*श्रीभाईजी–– एक अलौकिक विभूति*
गीता वाटिका प्रकाशन
406 views04:07
Open / Comment
2021-02-10 04:30:41 *गीताप्रेस संस्थापक श्रीसेठजी श्रीजयदयालजी गोयन्दकाका संक्षिप्त जीवन–परिचय*
*दुख मिटानेकी युक्ति*

जिन दिनों 'गीता–तत्त्व–विवेचनी' टीका बाँकुड़ामें लिखी जा रही थी, उस समय भाईजी, रामसुखदासजी महाराज, बाबा चक्रधरजी महाराज, पं. शान्तनुबिहारजी द्विवेदी आदि विद्वान वहींपर थे। उन्हीं दिनों मोहनलालजीके छोटे बच्चेका शरीर शान्त हो गया। मोहनलालजी श्रीसेठजीके छोटे भाई तो थे ही, श्रीसेठजीके कोई सन्तान न होनेसे उन्हींको दत्तक पुत्रके रूपमें स्वीकार कर लिया था। बच्चेको लेकर सब श्मशान गये। लौटनेपर देखा कि श्रीसेठजी अत्यन्त व्याकुल है। सब लोग उनकी सेवामें लग गये। समझाने लगे––आप इतने दुःखी हो जायँगे तो लोग क्या कहेंगे ? आप इतने भगवद्भक्त हैं, लोग कहेंगे कि जब इनका दु:ख नहीं मिटा तो भगवान् के मार्गपर चलनेसे हमारा दुःख क्या मिटेगा ? श्रीसेठजीने कहा––घर—बाहरका कोई भी व्यक्ति मेरे सामने दुःखी होकर आयेगा तो मैं फिर दुःखी हो जाऊँगा। इसलिये तुम लोग यह प्रतिज्ञा करो कि कोई दु:खी नहीं होगा तो मैं व्याकुल नहीं रहूँगा। ऐसा ही किया गया और सब ठीक हो गया। श्रीसेठजी सर्वथा सामान्य हो गये।
दूसरे दिन एकान्तमें किसीने श्रीसेठजीसे पूछा––क्या कल सचमुच आपको इतना दु:ख हुआ। श्रीसेठजी बोले–– नहीं, मैंने सोच–विचारकर दु:खी होनेका अभिनय किया था। यदि मैं व्याकुल न होता तो घरके सब लोग रोते–पीटते और मैं उन्हें समझाते–समझाते थक जाता। जब मैं दुखी हो गया तो सब लोग समझदार हो गये तथा मुझे समझाने लगे। अकेले मेरे दु:खी होनेसे सबका दु:ख मिट गया।
लोगोंका दु:ख मिटानेकी भी एक कला होती है, जो किसी–किसी महापुरुषको आती है।


पुस्तक
*श्रीभाईजी–– एक अलौकिक विभूति*
गीता वाटिका प्रकाशन
746 views01:30
Open / Comment
2021-02-09 14:24:56 ॥श्रीहरि:॥
अपने द्वारा की हुई भलाई और दूसरों द्वारा की हुई अपनी बुराईको भूल जायँ किन्तु दूसरेके द्वारा किये गये उपकारको कभी न भूलें।
- ‘साधन-नवनीत’ पुस्तकसे
श्रद्धेय जयदयाल गोयन्दका
674 views11:24
Open / Comment
2021-02-08 06:04:17
693 views03:04
Open / Comment
2021-02-08 04:40:40
304 views01:40
Open / Comment
2021-02-07 05:05:51
312 views02:05
Open / Comment